जनतान्त्रिक व्यवस्था का
मनतान्त्रिक ताण्डव
इस वहम में न रहियेगा कि यहां
कुछ तन्त्र-मन्त्र के बारे में बताने जा रहा हूँ । हालाकि तन्त्र-मन्त्र,टोने-टोटके
की बातें लूट-बलात्कार से कम हाइलाइटेड नहीं होती । वैसे मैं बात कर रहा हूँ
तन्त्र-मन्त्र की ही पर वो वाला नहीं जो आप समझ रहे हैं।
आप देख ही रहे हैं कि लम्बे
अरसे से हम सभी जनतन्त्र के दंश से जूझ रहे हैं, जी हां दंश ही । पर विच्छु वाला
नहीं । वो तो टप से लगता है और खट से रग-रग में जहर फैला जाता है । ये है ‘स्लोप्वॉयजनिंग’
वाला मामला । धीरे-धीरे फैलने वाला, वो भी कभी इस भाग में तो कभी उस भाग में । और ‘लोकलएनेस्थीसिया’
जैसा भी नहीं ।
सुना है किसी ने कहा था बहुत
पहले ही कि बेहतर है- देश अभी कुछ और गुलामी झेले, पर ऐसी आजादी नहीं चाहिए ।
किन्तु किसी एक की इच्छा से क्या होने को है ? हालाकि हुआ किसी खास की ही इच्छा से, पर उसकी इच्छा से - जिसके सिर पर
किसी संत का वरदहस्त था। कुछ बड़ी चीज पाने के लिए किसी बड़े से संत की कृपा जरुरी
होती है । अब संत की भी मजबूरी थी या कि इच्छा - इस बहस को यहां छेड़ने का कोई तुक
नहीं ।
बात इतनी ही है कि स्वतन्त्रता
या कहें जनतन्त्रता का दंश झेल रहे हैं । पहले हाथ काट दिये गए दोनों । अब कलेजा
भी निकाल लेना चाहता है जनतन्त्र । पहले भी
लुट रहे थे और आज भी । ‘टेबुल’
की दिशा बदल देने से ‘टॉक’
बदल जाये कोई जरुरी थोड़े जो है ।
लूटतन्त्र का ही परिष्कृत नाम
है जनतन्त्र । यानी सब मिलकर लूटो । लूटो सब मिल कर, जिसे जितना मौका मिले ; परन्तु शोर मचाते रहो कि मैं नहीं वो लूट रहा है । मैं तो लुट रहा हूं । अरे भाई ! रसगुल्ले को
कांटे-चम्मच से काट-कूट कर खाओ या कि पांचो अंगुलियों से एक बार उठाकर गटक जाओ -
क्या फ़र्क पड़ता है ? अभागा गज़नी तो नाहक ही बदनाम हो गया
। ऐसे ही गोरा भी । किन्तु गज़नी-गोरे
क्या कम हैं हमारे यहां ? अरे वो दुनिया वालों किसी को चाहिए
तो कहो, थोक भाव में हम मुहैया करा सकते हैं गज़नवियों को ।
जनतन्त्र में ज़मीर के जिन्दा रहने
की गुज़ायश बहुत कम रहती है— ऐसा सुना है मैंने । और जिसे ज़मीर सहेजना हो वो भला कुर्सी-टेबल,
गाड़ी-बंगला, ऐश-वो-आराम की बात क्यों सोचेगा ? वो कमअक्ल भला क्या सम्भाल पायेगा कुर्सी-मेज । टाट पर बैठने वाला कुर्सी
का मोल भला क्या जाने ! उसकी ज़िन्दगी तो ज़मीर बचाने में ही खप जाती है
।
वेद-पुरान भले ही कहते हों कि
आत्मा एक है और वही सबमें व्याप्त है । पर मुझे इसमें कोई दिलचश्पी नहीं और न
य़कीन ही । अरे भाई ऐसा कैसे हो सकता है— भेड़ और आदमी में एक सी आत्मा कैसे रह
सकती है ? कोई तुलना ही नहीं
है दोनों में । भेड़-गधे को कभी आदमी बनते देखा है आपने ? नहीं
न । तो फिर आदमी भी भेंड़-गीदड़ कैसे हो जायेगा? आदमी आदमी रहेगा हमेशा और भेड़ भेड़ । आदमी की
आत्मा भेड़ में डाल दी जाये यदि तो उसे घुटन होने लगेगा क्षण भर में ही । और यही
बात भेड़ की आत्मा के साथ भी होगी। ‘सफोकेशन’
दोनों ओर बराबर होगा ।
ये बात तो आप भी जानते हैं —
आदमी के पास बुद्धि और विवेक होता है। वो हमेशा उसका इस्तेमाल करता है। और भेड़ -
वो तो अगले वाले भेड़ के पीछे-पीछे विना कुछ सोचे-समझे वस मिमियाते रहता है । और
अगला वाला किसी होशियार गड़ेरिये की जादुई छड़ी के इशारे पर चलता है, या फिर किसी सघन अमियारी में आराम फरमाते, वहीं
बैठे हु...ऽ...र...ऽ...हु...ऽ...र...ऽ करते गड़ेरिये के मनतन्त्र से । क्यों कि सोच-विचार,
तर्क-वितर्क की शक्ति उस अगले वाले में भी कहां होती है !
यदि ऐसा होता तो क्या यही
स्वरुप होता जो आज सामने है ?
जनतन्त्र की स्थापना के समय ही
कुछ खास-खास तरह के जहरों का बड़े ज़तन से इन्तज़ाम कर दिया गया था । मज़हबी
बंटवारा उस जहर की पहली पुड़िया थी, जो हृदयरोगी के ‘एमडोपा’
की तरह आजीवन व्यवहार में आने वाली थी और
दूसरी पुड़िया ये कह कर दी गयी थी कि जनतन्त्र के सेहत के लिए बहुत ही जरुरी है- अगले दश वर्षों
तक । किन्तु धीरे-धीरे वह उस दूसरी पुड़िया का आदी हो गया । यानी कि पुड़िया के
बिना रह ही नहीं सकता,जी ही नहीं सकता । मनतान्त्रिकों की कृपा से उसकी अवधि भी हरबार
बढ़ायी जाती रही ।
क्या समझते हैं - कोई डॉक्टर अधिक
से अधिक दवाइयां आपको दे रहा है इसके पीछे सिर्फ आपका बुरा सेहत ही जिम्मेवार है ?
बिलकुल नहीं । सच्चाई का अंश इसमें अधिक है कि आप दवा खाते रहेंगे
तो डॉक्टर की सेहत अच्छी रहेगी । आपकी सेहत से भला उसे क्या लेना-देना । डॉक्टर
क्यों चाहेगा कि आप पूर्ण स्वस्थ हो जायें ! अरे भाई उसकी रोजी-रोटी का सवाल है । और कौन
मूरख भला अपनी ही पेट पर लात मारेगा ?
खैर । लगता है सेहत वाली बात
आपको ठीक से समझ नहीं आयी । तो लीजिये शिक्षा वाली वात से समझाता हूँ। आप अगर
पढ़-लिखकर समझदार और होशियार बन जायेंगे, तो फिर मौके-बेमौके सड़कों पर उतर कर हाय-बाय
कौन करेगा ? क्या लगता है ये
सारक्षता मिशन आपको साक्षर बनाने के लिए बनाया गया है ? इस
भ्रम में मत रहियेगा । ये रंग विरंगी मिशन , अभियान और योजनायें जो चल रही हैं वो
सिर्फ इसलिए कि उसी के रास्ते से अपने वेटे को विदेशी डिग्री दिलाने का रास्ता
निकलता है। कभी कहीं देखे हैं किसी नेता के बेटे को सरकारी स्कूल में जाते हुए ? सुना है - साल-छः महीने में तो भैंस को फ्रैंच बोलना आ जाता है । सत्तर
वर्षों में क्या-क्या आया बोलना ?
भेड़ों की तरह इकट्ठा किये गए
कहीं चिलचिलाती धूप में और अभियानों और योजनाओं का ज़ाम उढेलाते रहा - ऊँचे मंचों
से । पांच साल पर अंगुलियां रंगे आप, और पुलाव ढकेला कोई और, गरम छांछ हमारे
जिम्मे। छाल्ही-रबड़ी कोई और चाटे — इसी को जनतन्त्र कहते हैं न !
जनतन्त्र में कहीं कत्थक थोड़े
होता है । रागभैरवी और बसंतबहार थोड़े जो गाया जाता है। यहां तो ताण्डव मचता है। और ताण्डव का स्वर भी
अलग होता है। थाप भी। भंगिमा भी ।
तो आइये जनतन्त्र के आगामी
ताण्डव के लिए तन-मन को राजी कर लें,क्यों कि कलाकार अभी थके नहीं हैं। आप देखते-देखते
भले थक जायें । जय जनतन्त्र ।
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