परजीवीदर्शन




                         परजीवीदर्शन

  आपकी उत्सुकता और आशंका का त्वरित समाधान करते हुए मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि ये बिलकुल नया वाला दर्शन है। अथक प्रयास के बावजूद षडदर्शनों में इसे अभी तक स्थान नहीं मिल पाया है और भविष्य तो मैंने देखा नहीं। हालाकि प्रयास जारी है। विद्वानों से आग्रह किया जा रहा है। आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि निकट भविष्य में पुराने पड़ चुके सारे दर्शनों को निरस्त करके, एक मात्र इसी महान दर्शन की स्थापना हो जायेगी। दुनिया का गुरु और अग्रणी होने के कारण हमारे देश को ही इसका परम श्रेय मिलना भी बिलकुल तय है।  

अपने देश की बूढ़ी हो रही भाषा में यदि आप यक़ीन नहीं रखते हों, इसे बोलने-लिखने में मानहानि मूहसूस करते हों तो आपकी सुविधा के लिए मैं इसका अनुवाद भी बतला ही देता हूँ। अंग्रेजी में इसे फिलॉस्फी ऑफ पैरासाइट या                पैरासाइटिक फिलॉस्फी कह सकते हैं । हालाकि इस शब्द को अभी किसी डिक्शनरी में ढूढ़ने का ज़हमत मत मोलिएगा । वनस्पति-विज्ञान में कस्कूटारिफ़्लेक्सा के नाम से जाने जाने वाले पौधे को आयुर्वेद में अमरबेल या  अमरलता कहते हैं। सदा दूसरे के रस से रसवान होना इसका प्रधान गुण है।  यह अद्भुत वनस्पति ही आधार है इस नये दर्शन का ।

 ये न तो नास्तिक दर्शन समूह का सदस्य है और न आस्तिक दर्शन समूह का ही । 
यावत जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत वाला सिद्धान्त शायद चार्वाक दर्शन का है। हालाकि मैंने कभी इसे पढ़ा नहीं, किन्तु इस नये वाले दर्शन का सिद्धान्त इसी दर्शन के मूलतत्त्वों पर आधारित है - ये मैं पूरी तरह से जानता हूँ ।
इसका प्रणयन ठीक वैसे ही हुआ है , जैसे पूरी दुनिया के कानूनों का कतरन हमारे अपने वाले कानून का,जिसे बड़े ज़तन से बनाया था हमारी पिछली वाली पीढ़ी ने, इस आशा और विश्वास के साथ कि लम्बी गुलामी से मुक्त होने के बाद राष्ट्र को नयी ऊर्जा मिलेगी और चहुमुखी विकास होगा । सौभाग्य है हमारा कि ये विकास सत्तर वर्षों में भी अभी वालिग नहीं हुआ है । विशेषज्ञों की राय है कि इसका चिर युवा वा किशोर ही रहना,देश के सेहत के लिए फायदेमन्द है ।

इस नये वाले दर्शन यानी परजीवीदर्शन का नवीन अनुगृहित वाक्य है — यावत जीवेत सुखं जीवेत, 
                        परजीवी रुपेण घृतं पिवेत । 
परजीवी रुपेण घृतं पिवेत का ये मौलिक सिद्धान्त जबसे सुना हूँ, पता नहीं क्यों मुझे बहुत भा रहा है और पिछले कई दिनों से अनवरत इस पर ही चिन्तन-मनन में लगा हूँ । और एक गूढ़ बात बताऊँ आपको ? इस पर लागातार चिन्तन करने में बड़ा ही सुकून मिल रहा है । परमात्म-चिन्तन से भी कहीं ज्यादा ।

   ज़ाहिर है कि जिस विषय का चिन्तन ही इतना शान्ति-सन्तोषप्रद है, वो अपने आप में कितना आनन्ददायक होगा ! सोच कर ही सिहरन हो रहा है । सुख,शान्ति और आनन्द यदि सौभाग्य से तीनों उपलब्ध हो जाये,फिर परमात्मा को पाने वाली समस्या भी खतम हो जाये । मैं समझता हूँ कि देश के विकास में इससे काफी मदद मिलेगी,क्यों कि आवादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा परमात्मा को ही खोजने में लगा हुआ है,ठीक उसी तरह जैसे  कुछ वैज्ञानिक एलीयन की खोज में व्यस्त हैं। जबकि मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस परजीवीदर्शन के अध्ययन,मनन,चिन्तन,प्रयोग और आत्मसात के बाद कभी कुछ खोजने की जरुरत ही नहीं रह जायेगी। हालाकि मेरा ये अनुभव अपना नहीं है। इसे कुछ परजीवीदार्शनिकों से कुछ दिनों के लिए उधार लिया हूँ।

जैसा कि मैंने कहा— मुझे अभी तक इसके बारे में बहुत ज्यादा जानकारी, अनुभव और ज्ञान  नहीं है , फिर भी थोड़ा कुछ प्रकाश डालने का प्रयास कर रहा हूँ । वो इसलिए कि आजकल इसकी बहुत ही आवश्यकता है और स्कोप भी । इसके फ्यूचर स्कोप को मद्देनज़र रखते हुए महानगरों, नगरों, कस्बों में ही नहीं पंचायतीराज के कारण गांव-गांव में पैरासाइटिक इन्डस्ट्रीज़   की स्थापना हो रही है। कुल मिलाकर  कहा जा सकता है कि किसी राष्ट्र का विकास इसी दर्शन की सिद्धि-असिद्धि पर निर्भर है।

  परजीवीदर्शन का अहं तत्त्व है - अन्तःकरण या कहें अन्तरात्मा ।  कुछ लोग इसीको ज़मीर भी कहते हैं । और दूसरा तत्त्व  है—  स्वार्थ । ये वही स्वार्थ है जिसे ज्यादातर लोग जानते हैं । यानी कि ये वो वाला स्वार्थ बिलकुल नहीं है,जिसके बारे में हमारे यहां के साधु-संत बतलाते रहते हैं — स्व का अर्थ । परजीवीदर्शन के फॉलोवरों को स्व को ढूढ़ने-जानने की  जरा भी जरुरत नहीं है । ज़मीर और स्वार्थ दो ही चीजों को ठीक से समझना होता है इस नये दर्शन के विद्यार्थी को । सुविधा की बात ये है कि पहले घटक को त्याग देना होता है और दूसरे को ग्रहण कर लेना होता है । पहले का जैसे ही त्याग करते हैं, दूसरा अपने आप ग्रहण हो जाता है । उसके लिए कोई खास साधना-वाधना बिलकुल नहीं करनी होती । इसीलिये आजकल ये सरल अनुष्ठान बहुत तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है ।

  सबसे बड़ी बात ये है कि जैसे ही आप इस दर्शन में सिद्ध हो जाते हैं,फिर कुछ करने-धरने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती । सबकुछ वैसे ही होने लगता है, जैसे जेनरेटर स्टार्ट करके ऑपरेटर निश्चिन्त हो जाता है । सिर्फ सुख-सुविधा ही नहीं बल्कि ऐशोआराम की पूरी व्यवस्था हो जाती है । स्वर्ग की अप्सराओं पर तो इन्द्र ने पहले से ही कब्जा जमा रखा है,किन्तु इस लोक वालियों पर ऐसे सिद्धों का पूरा हक बनता है । ऐश्वर्य इनके चरणों का दास हो जाता है। प्रशासन ही नहीं न्याय भी इनके आगे नतमस्तक होने को विवश हो जाता है । देर रात भी दरबार बैठ सकता है, निर्णय भी सुना सकता है। माइक और कैमरा लिए लोग सदा आगे-पीछे घूमते रहेंगे । यदि मन हो तो उन्हें भद्दी से भद्दी गालियां भी दे सकते हैं और वे सिर्फ दांत निपोरते हुये, यसऽ सरऽ यसऽ सरऽ की रट्ट लगायेंगे । और रही बात विधि-विधान की ।  तो, वो तो इनके साइडपॉकेट में भरे  रहने की चीज है — पान की गिलौरियों की तरह । जब मन हो निकाल कर थोबड़े में डाल लो, जब चाहो प..ऽ..च्च से थूक दो । पीकदान की भी ज़रुरत नहीं । मेज़ के नीचे वाली जगह आखिर कारीगरों ने बनाया किस लिए है !  
   इतना ही नहीं जब चाहें, जितनी बार चाहें संसद ठप्प करा सकते हैं । संसद ठप्प कराने का रेकॉर्ड लिखने के लिए गिनीज़बुक वाले रोज दिन फोन मिलाते रहेंगे । रोडजाम, चक्काजाम ये सब तो बायें हाथ का खेल होता है इन सिद्धों के लिए । वो पुरानी वाली किताबों की जैसे मिथकीय सुनते हैं न कि देवी के भृकुटि विलास मात्र से क्या से क्या हो जाता है— सृजन भी और संहार भी...। बस समझ लीजिये कि उन सारी विभूतियों  से लैस होते हैं ये सिद्ध । घटोत्कच पुत्र बरबरीक के तरकस की तरह इनके पास भी महज दो ही तीर होते हैं — इन्फॉर्मेशन वाला और प्रोडक्शन वाला । और रही बात चाटुकारों की , तो इसकी कमी जरा भी महसूस नहीं होती कभी भी । चाहें तो       बेडरुम में भी इनसे घिरे रह सकते हैं ।

  जरा और जानिये, परजीवीदर्शनशास्त्रियों के गुण— ऐसे सिद्ध लोग महापुरुष की श्रेणी में आ जाते हैं। महाजनः ये न गतः स पंथाः ....वो जिधर चल देते हैं उधर ही रास्ता बन जाता है । जहां बैठ जाते हैं वहीं दरबार हो जाता है । इतना ही नहीं, पाप-पुण्य से बिलकुल ऊपर उठ जाते हैं ऐसे लोग । क्यों कि उनके द्वारा किये गए कर्मों का फल भोगने के लिए सदा आमजनता तत्पर रहती है । शंकर ने तो सिर्फ हलाहल पीया था । किन्तु ये महासिद्ध बड़े-बड़े पहाड़,नदी के बालू,मिट्टी,जगह-जमीन,जंगल,डीज़ल,पेट्रोल,कंकरीट,सीमेंट, अलकतरा तक सब कुछ खा-पीकर डकार भी नहीं लेते । दरअसल डकार वाला गैस तब बनता है न, जब किसी का हाज़मा खराब हो । मजबूत हाज़में वाले का गैस क्या गैसकांड भी भला क्या विगाड़ेगा !

तो आइये चलें, परजीवीदर्शन की अनुभूति करें ।

दरअसल मेरी भी लाचारी है । पेट में गुड़गुड़ होने लगता है,यदि न कुछ कहूं आपसे ।
        आपने अपना बहुमूल्य समय दिया मेरे इस मनोविकार को पढ़ने-सुनने में, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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