सफेदपोश़ों का आतंकवाद

सफेदपोश़ों का आतंकवाद

आमतौर पर अपराधी और आतंकी  श्याहपोश़ी होते हैं । हमारे यहां तो कानून भी श्याहपोश़ी ही है,भले ही आँखों पर पट्टी सफेदवाली बंधी हुयी है । इसकी गति-नियति जगज़ाहिर है— अपराधी मुक्त हो जाता है, निरपराध सजा पा रहा होता है । सौ अपराधी भले ही छूट जाये , पर एक निरपराध को सजा न हो — ये तो केवल स्लोगन भर है । असल बात ये है कि अँधे के बुद्धि-विचार पर तो आँखवाले का ही नियन्त्रण होता है न । और ये आँखवाला भला ईमानदार कब से होने लगा ! संयोग से ईमानदार हो भी गया, तो सफेदपोश़ों के सामने उसकी चलती ही कितनी है !

सब जगह सफेदपोश़ों का बोलबाला है । जो भी है सफेदपोश़ों की मुट्ठी में , रस़ूकदारों की मुट्टी में—दौलत भी, श़ोहरत भी,यहां तक कि आब़रु भी । बात पावर की है न  । हम-आप मिल कर पावर-ऑफ-ऐटॉर्नी तो सौंप ही देते हैं, फिर अगला उसका सदुपयोग करे या कि दुरुपयोग । वह इस विश्लेषण में पड़ना जरुरी नहीं समझता । वह सिर्फ उपयोग जानता है । विश्लेषण तो विपक्षी का काम होता है । तुलसीबाबा भी तो कह ही गए हैं— समरथ के नहीं दोष गुसाईं ।

मुख्य रुप से ये सफेदपोश़ दो तरह के होते हैं । दोनों में अन्योन्यास्रित सम्बन्ध होता है – एक आशीर्वाद देते हैं, दूसरा लेते हैं । एक के आशीर्वाद से दूसरा विजय-लाभ करता है और दूसरे की क्षत्रछाया में पहले का आश्रम फलता-फूलता है । दोनों एक दूजे के पूरक होते हैं । पालक होते हैं । रक्षक भी होते हैं ।  ये दोनों अपने बनाये प्रोटोकॉल का अनुपालन करते हैं । इन दोनों के लिए डिग्रियाँ  बे-मानी होती हैं । क्यों कि इन्हें सर्वगुण-सम्पन्न मान लिया जाता है ।

फाइलें ढोने वाले चपरासी का पढ़ा-लिखा होना जरुरी है, परन्तु उनपर हस्ताक्षर करने वाले के लिए कोई जरुरी नहीं, क्यों कि उनका हस्ताक्षर तो स्वर्णाक्षर होता है । असली मोल तो वो रबर वाले मुहर का होता है न । हस्ताक्षर घसीटू हो या कि सुपाठ्य - क्या फ़र्क पड़ना है । ठीक वैसे ही नियम पालन करने वाले के लिए पढ़ा-लिखा होना जरुरी है । परन्तु उन नियमों को बनाने वाले के लिए भला क्या जरुरत है पढ़ाई-लिखाई की ! वैसे भी   प्रवचन और भाषण कहीं पढ़-लिख कर दिया जाता है  ? हां,इन्हें सुनने के लिए पढ़ा-लिखा होना बिलकुल जरुरी है ।

वैसे तो इनके लिए कोई खास ड्रेसकोड नहीं होता, परन्तु प्रायः ये अपने मनमाफ़िक ड्रेस में देखे जाते हैं । वैसे भी मन काला हो तो, तन पर सफेदी जरुरी लगता है । एक की दाढ़ी प्रायः लम्बी होती है,तो दूसरे की कटी-छंटी, सजी-सजायी । लम्बी दाढ़ी-मूछों के भीतर से चेहरे का भाव-कुभाव सहज ही बाहर आना मुश्किल होता है । और कटी-छंटी वाला तो रोआबदार होता ही है – इसमें क्या शक है । भीड़ इन दोनों का उपस्कर है । जरुरत पड़ने पर हथियार भी । घोष करना हो या कि घोषणा,तालियां बजाने के लिए भीड़ तो चाहिए ही न , और वो बड़े सहज में जुट जाती है । भीड़ जुटाने के लिए बस एक डमरु काफी होता है । एक ज़मूरा ही सैंकड़ों की भीड़ जुटा सकता है,फिर जहां ज़मूरे ही ज़मूरे हों वहां क्या कहना । शासन,प्रशासन,अनुशासन सब इनके सामने पानी भरते हैं । माइक-कैमरे वाले भी बिन बुलाये आ जाते है । कोई प्रेस-विज्ञप्ति कहकर निकलवानी नहीं पड़ती । वो मैडवॉक्स वाले स्वतः संज्ञान ले लेते हैं । क्यों कि उन्हें पता होता है कि टीआरपी की काउन्टिंग-ग्राफ कब और कैसे तेजी से ऊपर भागता है ।

आजकल बहुत तेजी से इन दोनों का विकास हो रहा है । और आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इन दोनों का भविष्य उज्ज्वल है । श्याहपोश़ी आतंकवाद के ऊपर यूएन भी यदा-कदा अँगुली उठा देता है,परन्तु सफेदपोश़ों के आतंकवाद पर भला कौन कुछ कहने की ज़ुर्रत करेगा ? कहने वाले का मुंह नहीं तोड़ देगी ये भीड़- सफेदपोश़ी भी कहीं आतंकी हुआ करता है !

  और एक पते की बात बताऊँ – लोकतन्त्र के सेहत के लिए इन दोनों का होना बहुत जरुरी है ।
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