घड़ी भर का ताज़ जीवन भर का राज

घड़ी भर का ताज़ जीवन भर का राज

            एक फिल्म आयी थी नायक, जिसमें अभिनेता अनिल कपूर ने खलनायक अमरीष पुरी को अपनी वाक् पटुता से काय़ल करके एक दिन के लिए मुख्य मन्त्री पद हासिल कर लिया था । पेशे से वो एक पत्रकार था ।

इस फिल्म ने मुझे बहुत बहुत प्रेरित किया । प्रेरित करने का मुख्य विन्दु रहा - पत्रकार से सीधे मुख्य मंत्री बन जाना । अतः मैं अपना सपना पूरा करने के ख्याल से पत्रकार बनने की कवायद में जुट गया । संयोग से शहर के एक अखबार ने मेरी महत्वाकांक्षा को समझा और मुझपर कृपा करके,चटपट पत्रकारिता वाली जिम्मेवारी सौंप दी मुझे ।

अभी बस दो-चार दिन ही तो हुये थे । मैं जी-जान से लगा हुआ था अपने पत्रकारिता धर्म के निर्वाह में कि तभी अचानक सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला सुनामी की तरह आकर मेरी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया ।  

            सुना है कि भूतपूर्व और भूत से भी भूत सांसदों-विधायकों को अब वे सारी सुविधायें मुहैया नहीं होंगी जो अब तक होते आयी थी । मेरे लिए ये खबर कितना दुःखदायी रहा - कह नहीं सकता । सोचा था कि किसी तरह कुछ तिगड़म लगा कर कुछ देर के लिए भी सीएम बन जाता तो आजीवन राज भोगता । किन्तु अब तो यही कहूंगा कि भगवान कभी भला न करें इन सुप्रीमकोर्ट वालों का । मेरा तो लुटिया ही डुबो दिया इन लोगों ने । वस यही समझें कि इस बीच कई बार हार्ट अटैक आए और अन्ततः मैं डीप डिप्रेशन का शिकार हो गया ।

            अरे भाई सुप्रीमकोर्ट को कोई और कामवाम नहीं रह गया है क्या ? भूतपूर्व स्वतन्त्रता सेनानी को जब कई तरह की सुविधायें मिल सकती हैं, तो ये भूतपूर्व सांसदों-विधायकों को क्यों नहीं ? लोकतन्त्र के पालकों-रक्षकों का इतना भी लिहाज़ नहीं रखना चाहिए ! क्या सुप्रीम कोर्ट को ये डर नहीं लगता कि नियम-कानून बनाना उन्हीं महानुभावों का काम है ? वे चाहेंगे तो किसी भी बात के लिए महाभियोग भी लगा सकते हैं । जिस संविधान की रस्सी में ये कानूनवाले बांधते हैं लोगों को, उस संविधान में हेरफेर करना तो उनके बांये हाथ का खेल होता है । ये कॉलेजियम भला क्या करेगा । ये चाहें तो भोजुआ को राजाभोज बना सकते हैं । जब जिसे चाहे मुख्यमंत्री ही नहीं प्रधानमंत्री भी बना सकते हैं । कम से कम भारतीय लोकतन्त्र के सात दशक के इतिहास को तो पढ़-समझ लेना चाहिए था ।  इनकी ताकत से तो विधाता भी डरता है । स्वस्थ लोकतन्त्र में कम से कम हर नागरिक को इनका सम्मान करना चाहिए और डरना भी चाहिए ।

            पंचायत स्तर से लेकर पार्षद स्तर तक, विधायक से लेकर सांसद स्तर तक कितने पापड़ बेलने का कठोर कर्तव्य करके लोग अधिकार पाते हैं । नेता बनना कोई साधारण बात है क्या ? मान-अपमान से बिलकुल ऊपर उठना पड़ता है । बहुत कुछ करना पड़ता है । बहुत कुछ सहना पड़ता है । कई नयी-नयी चीजें सीखनी पड़ती हैं । गालियां सुननी पड़ती हैं, गालियां देनी भी पड़ती है । जूते खाने पड़ते हैं, जरुरत पड़ा तो जूते फेंकने भी पड़ते हैं । झूठ और मक्कारी की सिद्धि के बिना तो नेता बनना ही मुश्किल है । बढ़िया नेता बनने के लिए बड़ा नरसंहार भी जरुरी होता है । नरसंहार के बिना न तो स्वतन्त्रता मिलती है और न कोई अच्छी वाली कुर्सी ।

      अब कोई एक दिन का सीएम बने या पांच दिन का या बीस वरस का , सुविधायें तो सबको मिलनी ही चाहिए जीवन भर – एक्श सीएम वाला । कोई तैंतीस वरस से सुविधायें पा रहा है तो क्या हुआ । कौन कहें कि जज साहब के वेतन से कट रहा है वो खर्चा । जनता आँखिर हाड़ तोड़कर कमाती काहे को है – नेताओं के आद-औलाद का भरण-पोषण भी नहीं करेगी तो और क्या खाक करेगी ? इतना सउर तो होना ही चाहिए जनता में कम से कम ।  जहां तक सुरक्षा का सवाल है, वो तो बाद में यानी पद से हटने के बाद और अधिक जरुरी हो जाता है, क्यों कि शत्रु खुले सांढ़ की तरह हमला बोलने को उतारु हो जाते हैं सत्ताहीन होने पर । अतः आप ये तोहमत नहीं लगा सकते हमारे इन रहनुमाओं पर कि सत्ता से चिपके रहने की उन्हें लत लग गयी है, या कि कुर्सी भा गयी है । बात दरअसल आजीवन सुरक्षा वाली है । देश-विदेश की खबर यदि रखते हों तो आपने सुना ही होगा कि सत्ता छोड़ने या छूटने के बात क्या दुर्गति होती है, यदि नहीं तो फिर से फिल्म नायक की सीडी मंगा कर देख लें । आशा है आपको भी सद्बुद्धि आ जायेगी और नाहक किसी पर इलज़ाम न लगायेंगे । 
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