उत्क्रमित ताड़ीखाना

उत्क्रमित ताड़ीखाना

उस दिन प्रखंड-कार्यालय में कुछ जरुरी काम से जाना पड़ा । पहुँचने पर प्यून से मालूम चला कि बी.डी.ओ.सा’ब को आजकल दूसरी ड्यूटी मिली हुयी है । सप्ताह-दस दिन बाद ही उनसे मिलना हो पायेगा । प्यून के दूसरी ड्यूटी शब्द पर मैं जरा चौंका । पूछने पर थोड़ा बेवकूफ बनना पड़ा । करेन्ट एफेयर्स से अनचान होने का तोह़मत भी लगा ।

            प्यून ने बताया कि अभी नया आदेश आया है— सभी साहबों को मय पूरे स्टाफ, रोज दिन फिल्ड ड्यूटी करनी है । गांव-देहात के महुआ के पेड़ों की गिनती करनी है । पेड़ों पर नम्बरिंग करनी है और ग्राम-प्रधान को हिदायत भी करना है कि इनके फलों का दाना भर भी दुरुपयोग न हो ।
 
            बात कुछ पल्ले न पड़ी । फिर एक बार बे-वाकिफ़ सा मुंह बना कर पूछना पड़ा । वहीं खड़े एक भलेमानस ने कहा कि राज्य भर में नशाबन्दी का नया कानून लागू हो गया है । शराब बनाने में महुए की अहम भूमिका होती है, इसलिए इस पर सख़्त पाबन्दी लगायी गयी है । किसी किसान के घर अब किलो आध किलो महुआ भी मिलना मुश्किल है । महुआ का संग्रहण और प्रयोग करने वाले पर गैर-ज़मानती वारंट भी जारी हो सकता है । हालाकि मर्डर और रेप केश जमानती किश्म का माना गया है ।

            मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ गयी । गर्मी की छुट्टियों में घर आता था तो दादी बड़े लाढ़ से तिल वा तीसी मिले महुए के लड्डु खिलाया करती थी । कहती थी - स्वास्थ्य के लिए बड़ा लाभकारी है । बड़ी सी कोठी-भांड़ी में ढेर सारा सूखा महुआ रखा रहता था । दरवाजे पर चार-छः बैल हुआ करते थे । एक-दो गायें हुआ करती थी । उनका मुख्य हेल्दी-डायट हुआ करता था - ये महुआ-दाना और हमारा हेल्दी-डायट होता था देशी गाय का विशुद्ध दूध । जर्शी गायों के बारे में उन दिनों केवल किताबों में पढ़ा था कि डेनमार्क नामक एक ऐसा देश है जहां दूध की नदी बहती है । बीस-पचीस किलो दूध देने वाली गायें होती हैं वहां । मशीनों से दूध दूहा जाता है...।

            किताबों से ये बातें तो अब बाहर निकल कर जमीन पर आ गयी हैं , किन्तु मेरुदण्ड में स्वर्ण-प्रवाह वाली देशी गायों का नस्ल समाप्त हो गया है लगभग । वैसे भी आजकल के बच्चों को कम्प्लान और हॉर्लिक्स ज्यादा भाता है । खैर ।

            बी.डी.ओ.सा’ब की नयी ड्यूटी पर फिर एक बार ध्यान खिंच गया । अच्छा हुआ कि मैंने पब्लिक सर्विस कमीशन फेश नहीं किया । वरना आज मुझे भी बगीचों में महुआ गिनना पड़ता । असमय में ही आँखों पर   बाइफोकल   ग्लास चढ़ा कर, कमीशन फेश करने वाले ने क्या कभी सोचा भी होगा कि ये दुर्दिन भी देखना पड़ेगा ! पता नहीं क्या-क्या सपने संजोये होंगे इन साहबानों ने और आज आभागे महुआ गिन रहे हैं । धन्य है हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था, जहां ए.सी. में बैठकर अंगूठा छाप चकती चलाता है और कमीशन सेक्योर करने वाला धूप-घाम में महुआ गिनता है ।

            फिर एक पुरानी बात याद आगयी । बहुत पहले भी ऐसा ही एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाला फ़रमान जारी हुआ था । गाज़ गिरी थी ऐसे ही साहबानों पर— दूर-दराज़ गांव-गिरांवों में जा-जाकर, कस्बों-टोलों को टटोलना था । झुग्गी-झोपड़ियों का मुआय़ना करना था, यहां तक कि उन्हें खुद के हाथों साबुन लगाकर देह मलमल कर, पानी भर-भरकर नहलाना भी था । चलते समय दो-चार साबुन की वट्टियां और सुगन्धित तेल की शीशी भी भेंट करनी थी ।


लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इस तरह के फ़रमान अकसर ज़ारी होते रहते हैं और मातहतों को उसका पालन भी करना ही पड़ता है । दरअसल लोक ही न रहेगा तो तन्त्र आरोपित किस पर होगा । अरे भाई जिसकी खा रहे हैं, उसकी कुछ तो सेवा करनी ही होगी न ! किसी को नहला-धुला देने में वी.डी.ओ.साहब की बेइज्जती थोड़े जो होगी । आँखिर सरकारी नौकर ठहरे । अब भला घर में पानी भरने वाला नौकर हो या कि बड़े दफ़्तर में - बात तो बराबर ही है न !

            खैर । शराबबन्दी की घोषणा हो गयी । नया कानून भी चट-पट पारित हो गया । न्याय-व्यवस्था को सम्भालने वाला विभाग व्यस्त हो गया वोतलों और पाउचों के धर-पकड़ में । और मुश्तैदी ऐसी कि बारुद का ज़ख़ीरा भले गुज़र जाये, शराब का कतरा भी घुसने न पाये सीमा में । ज़प्त की गयी वोतलों में कुछ फोड़फाड़ कर फेंकी गयी, कुछ को खास गोदामों में स-सम्मान विचाराधीन रखा गया । बात में पता चला कि अधिकांश वोतलें चूहे खा गए । लोकतन्त्र में ये चूहे भी बिलकुल स्वतन्त्र हो गए हैं । हमेशा मनमानी करते रहते हैं । कभी फाइलें खा जाते हैं, तो कभी वोतलें । उन्हें ये भी नहीं पता होता कि वोतलें बड़े लोगों की चीजें है, औकाद वालों की । हर कोई को अपनी हदोज़द का ज्ञान तो कम से कम होना ही चाहिए न !

किन्तु ऐसी अनहोनी सिर्फ और सिर्फ लोकतन्त्र में ही हो सकती है, इसमें कोई संदेश नहीं । शराबबन्दी से आम जनता को या कि राज्य को क्या मिला ये तो राज्यकीय वा विपक्षी परिगणक का काम है, किन्तु बिना परिगणन के ही इतना तो स्पष्ट है कि  प्रत्यक्ष रुप से राजकोष को मोटी रकम का नुकसान हुआ । और उसकी खानापूर्ति का ख़ामियाज़ा शराब नहीं पीने वाले को भी भुगतना पड़ रहा है ।

हालाकि ये सब भी लोकतन्त्र की विशेषता ही है । आतंक कोई मचाता है, लोकसम्पदा का नुकसान कोई और करता है ; आँखें मूंद कर, कान में ठेंपी लगाकर, रेलवे क्रॉसिंग पार करने में मरता कोई और है, परन्तु इन सबकी भरपाई सबको मिलकर करनी पड़ती है— टैक्स देकर,मंहगाई झेलकर या कि मुआवज़ा वाला किस्त भरकर ।

जहां तक बात है शराब पीने वालों का, तो वो एक दिन भी बन्द नहीं हुआ । धर-पकड़ करने वाले की चांदी भले हो गयी । आँखिर वच्चनजी ने कहा क्यों है — लड़वाते हैं मन्दिर मस्जिद, प्रेम कराती मधुशाला...।       
  मधुशालायें तथाकथित रुप से बन्द हो गयी, किन्तु कुछ खास वर्ग को नाराज़ किया, तो कुछ खास वर्ग को खुश भी तो करना लोकसेवक की जिम्मेवारी बनती है न । और इसीके तहत ताड़ीखाने को उत्क्रमित किया गया — सरकारी विद्यालयों के तर्ज़ पर, जहां सब कुछ वही होता है- पुराना वाला ही, सिर्फ साइनवोर्ड नया ।

ब्लॉक ऑफिस के बरामदे में पीलर से  टेका लगाये, चिन्तातुर खड़ा कुछ ऐसी ही बातें सोंच रहा था । चिन्ता इस बात की थी कि साहब तो महुआ गिनने में व्यस्त हैं, किन्तु मेरे जरुरी कागज़ात पर दस्तख़त कौन करेगा ? और बिना साईन के मेरा लोन सैंग्शन नहीं हो पायेगा । और बिना लोन के पिताजी का ऑपरेशन नहीं हो पायेगा...। और पिताजी नहीं होंगे तो फिर इस बेरोज़गार के घर को कौन चलायेगा ? उन्हीं की पेन्शन-राशि से तो घर चलता आया है आजतक... ।

तभी प्यून फिर मेरे पास आया । मेरा उदास चेहरा देख कर शायद उसे मुझसे हमदर्दी हो आयी थी— मुझे ऐसा ही लगा, किन्तु नहीं, ये मेरा भ्रम था । वो मुझे फिर से करेन्ट-अफेयर में परास्त करने आया था । उसके हाथ में एक वासी अखबार था और अंगुलियां एक खास समाचार पर थिरक रही थी — ये देखिये— वी.डी.ओ.साहब और जीविका के जिला परियोजना प्रबन्धक के हाथों लीची और आम के फ्लेवर वाला नीरा विक्रय केन्द्र का उद्घाटन हुआ है । साहब कह रहे थे कि ये सेहत के लिए बड़ा फ़ायदेमन्द है । मधुमेह के रोगी और गर्भिणी महिलाओं को इसे ज़रुर सेवन करना चाहिए । आने वाले दिनों में स्टॉवेरी और वैनिला फ्लेवर में भी इसे उपलब्ध कराया जायेगा... ।

 ख़बर सुन कर सिर झन्ना उठा । क्या इन साहबों को कुछ और कामवाम नहीं रह गया है ? हो सकता है कल किसी पॉर्न साइट का उद्घाटन करने भी जायें । सुना है, अभी हाल में कुछ ऐसे नेताओं को टिकट मिला है, जिन पर किसी सिरफिरे देशप्रेमी ने आरोप लगाया है कि जरुरी मीटिंग के दौरान पॉर्नसाइट विजिट करते पाया गया है इन्हें । कल को वो विजयी होकर ऐसे साइटों को भी बढ़ावा देंगे न ?मन ही मन भुनभुनाया और पैर पटकते हुए घर की ओर चल दिया । रास्ते भर दिमाग में तरह-तरह की बातें भूखे भेड़ियों की तरह खाँव-खाँव करती रहीं ।

संत लोग प्रायः कहा करते हैं - नाम में क्या रखा है , मतलब तो काम से है ।  संत तो दार्शनिक होते ही हैं । बिना दर्शन के संत-सिद्धि कैसे होगी ! भले ही असली दर्शन का कुछ अता-पता हो, न हो ।

 नेता लोग भी कम दार्शनिक नहीं होते । बल्कि यूं कहें कि वे तो दूर-दार्शनिक हुआ करते हैं, बिलकुल दूरदर्शन के माफ़िक — जनता की भेड़-चाल को दूर से ही भांप लेने वाले । उन्हें जनता की हर कमजोरी का बिलकुल सही-सही अन्दाज़ा होता है । किस समय शतरंज की कौन सी गोटी चलनी चाहिए - ये भला शतरंज का अदना खिलाड़ी क्या जाने । असली चैम्पियन तो नेताजी हुआ करते हैं । मन्दिर में गाय का और मस्जिद में सूअर का मांस फेंकने का कौन सा सही मुहूर्त होगा, ये भला कोई ज्योतिषी क्या बता पायेगा । मुहूर्त- चिन्तमणि में तो ऐसा कोई मुहूर्त लिखा हुआ भी नहीं है । परन्तु नेताजी को ऐसे सभी मुहूर्तों की सटीक जानकारी रहती है । कब टोपी लगाना है,कब जनेऊ पहना है,कब तिलक लगाकर मन्दिरों का दर्शन-लाभ करना है, कब झोपड़पट्टियों में जाकर खानाखाने वाला फोटू खिंचवाना है - ये सब जानता-सीखना हो तो नेता जी आगे पीछे घूमे । थोड़े दिनों में सब कुछ समझ आ जायेगा और कृपा हो गयी उनकी यदि तो कहीं से टिकट भी मिल जायेगा, वरना झंझट भरी दुनिया से टिकट कट भी जा सकता है ।

ताड़ से निस्रित रस का ताड़ी नाम था - सदियों से, तब तक इसे पीने के लिए किसी झुरमुट की तलाश करनी होती थी, शाम होने का इन्तज़ार करना पड़ता था । इधर-उधर तांक-झांक करते हुए, बिलकुल चौकन्ना रहना पड़ता था । परन्तु अब न शाम की जरुरत है और न झुरमुट की । नये नये फ्लेवर में, नयी-नयी पैकिंगों में , नयी-नयी शो-केशों में, सजी-धजी रखी मिल जायेंगी और किसी से लाज-लिहाज़ की भी जरुरत नहीं रह जायेगी । खूब छक कर पी सकेंगे और गर्व के साथ कह सकेंगे —  मैंने स्वास्थ्यवर्द्धक पेय पीया है— नीरा, नये फ्लेवर वाली नीरा । काम वही । नाम नया ।

इसी उहापोह में घर के चौखट के अन्दर कदम रखा - चिन्तातुर कदम । आहट पा पत्नी बाहर आयी । घर पहुँचने में काफी देर हो चुकी थी । पिताजी की दवा भी नहीं खरीद पाया था । मुंह भी लटका हुआ था ।

तीखे लहज़े में उसने सवाल किया — लीची फ्लेवर वाली नीरा के चक्कर में चले गए थे क्या ?
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