चुनावी हिंसाःलोकतन्त्र पर कुठाराघात


चुनावी हिंसाःलोकतन्त्र पर कुठाराघात

कहने को तो हमारे यहां लोकतन्त्र है, किन्तु विचार करने पर बहुत कम ही लक्षण मिलता है लोकतन्त्र का । भले ही लेबल ख़ालिस लोकतन्त्र वाला है, किन्तु भीतर में  ख़ालिसपना वाला खाना ख़ाली है लगभग ।
हम इस बात का दावा भी नहीं कर सकते कि ये सब नया हो रहा है । दरअसल बीमारी बिलकुल पुरानी है, जिसका संक्रमण  दिनों दिन बढ़ते जा रहा है और बहुत तेजी से बढ़ रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं ।
किसी प्रबल प्रतिद्वन्द्वी को रास्ते से हटा देने का चलन बिलकुल पुराना है - लोकतन्त्र की स्थापना से भी पुराना । समय-समय पर इसकी आवृत्ति भी होते रही है ।  सुभाष और शास्त्री इसके दो ज्वलन्त उदाहरण हैं । और दोनों घटनायें अभी भी रहस्य के गर्भ में ही हैं, भले ही समय-समय पर जनता में कुछ चूरन-चटनी सी बांट दी जाती हैं - इनसे जुड़ी बातें ।
घटना के प्रति खेद व्यक्त कर देना और जांच कमीटी का तत्क्षण गठन कर देना भी पुराना ट्रेन्ड है । इधर कुछ दिनों से एक नया तरीका भी अख़तियार कर लिया गया है - मुआवज़ा – करारोपण द्वारा संचित धन का अज़ीबोगरीब उपयोग । और ये मुआवज़ा लेने वाले लोग तो और भी अज़ीब हैं हमारे लोकतान्त्रिक समुदाय में । धन्य है हमारा लोकतन्त्र और धन्य हैं इसके रहनुमा ।
अहिंसा परमो धर्मः – इस आधे-अधूरे नीति-वचन को जनमानस में बड़ी कलाबाज़ी से परोस कर धर्म की अद्भुत परिभाषा समझायी गयी है पिछले कई दशकों में । पूरा नीति-वचन तो शायद ही पता हो किसी को । पूरा जानने का प्रयास भी शायद ही किसी ने किया हो ।  
 खेद है कि ऐसे स्लोगन वाले देश में बिना हिंसा के चुनाव की कल्पना ही नहीं की जा सकती । बंगाल का पंचायती चुनाव और उस बीच हुये वारदात इसके ताज़े नमूने हैं । सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या यही हमारा लोकतन्त्र है ?
            रेखागणित का सिद्धान्त है कि किसी लकीर को बिना छेड़छाड़ किये उसके नजदीक एक दूसरी लकीर खींच दो, जो उस पहले वाली से बड़ी हो । स्वाभाविक है कि वो पहले वाली लकीर छोटी दीखने लग जायेगी ।
किन्तु दुःखद दशा ये है कि इस छोटे से सिद्धान्त को हमारे बड़े-बड़े नेता समझ नहीं पा रहे हैं या समझना जरुरी नहीं समझ रहे हैं । वो सिर्फ एक ही तरीका जानते हैं - पहली वाली लकीर को काटना-छांटना-मिटाना । अपना कद बड़ा करने की कोशिश वे कदापि नहीं करते हैं । अगले वाले का कद छोटा करने का हर तिगड़म करने में ही मश़गूल रहते हैं, जो कि बड़ी शर्मनाक और भविष्य के लिए चिन्ताजनक बात है । कभी कुछ अच्छे काम करने जैसा दिखाना भी चाहते हैं, तो वैचारिक दिवालियापन ऐसा है कि उनकी प्रस्तुति सर्कश के जोकर से जरा भी भिन्न नहीं होती ।  
 हमारे पावन लोकतन्त्र पर अनेक तरह से प्रहार निरन्तर हो रहे हैं । वोट पाने के लिए तरह-तरह के घृणित और हास्यास्पद हथकंडे अपनाये जा रहे हैं । एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई भी कोरकसर नहीं छोड़ा जा रहा है । सामने वाले की गलतियां दिखाने में ही हमारा सारा समय चूक जा रहा है । इसे ही हम लोकतन्त्र की सेवा समझ ले रहे हैं । केवल वाक्-वाण से भी सन्तोष नहीं हो रहा है, और अन्ततः हत्या पर उतारु हो जा रहे हैं । सब्ज़बाग, झूठ, फ़रेब, मक्कारी और हिंसा पर ही आकर ठहर गया है हमारा लोकतन्त्र ।
            आये दिन राजनैतिक और चुनावी हत्यायें काफी तेजी से बढ़ रही हैं । मुझे लगता है इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है समाज के सबसे अयोग्य व्यक्ति का राजनीति में प्रवेश तथा जिम्मेवार पदों पर गैरजिम्मेवार और अयोग्य व्यक्तियों का आसीन होना । हालाकि शिक्षा, कला, अभियन्त्रणा आदि विभिन्न क्षेत्रों से भी लोगों का आना हुआ है , पर अपराधी प्रवृति वालों का वर्चश्व रहने के कारण लोकतन्त्र की गरिमा को प्रायः ठेंस ही पहुँची है ।  
            क्या ही अच्छा होता , नियमों और शर्तों में आमूलचूल परिवर्तन करके एक सुदृढ़ स्वस्थ व्यवस्था और परम्परा का श्रीगणेश होता, जिसमें आपराधिक मामलों के इतिहास और वर्तमान वालों का सर्वथा-सर्वदा प्रवेश निषेध होता लोकतन्त्रान्त्रिक व्यवस्था में । चुनाव आयोग इतना शख़्त होता कि ऐसे लोगों को कदापि नामांकन का मौका न मिलता । सर्वोच्च न्यायालय स्वयं संज्ञान लेता और चुनाव पूर्व में बिलकुल राष्ट्रपति शासन जैसी स्थिति बहाल होती, बल्कि उससे भी कठोर  । अनाप-सनाप चुनावी खर्चे पर कठोर नियन्त्रण का प्रावधान होना चाहिए । चुनाव के नाम पर चन्दा लेने और देने की परम्परा पर ही रोक लगनी चाहिए । कालेधन वाला चन्दा मिलना बन्द हो जाये यदि तो फ़ालतू खर्चे अपने आप कम हो जायेंगे ।  हत्या जैसा कुकृत्य तो बहुत बड़ी बात है, सामान्य मार-पीट, कहा-सुनी जैसी घटना भी यदि किसी प्रत्यासी या उसके कार्यकर्ता द्वारा प्रमाणित हो तो अविलम्ब उसे निरस्त किया जाना चाहिए । उसकी विजय को अमान्य करार दिया जाना चाहिए । और सिर्फ आगामी ही नहीं,बल्कि आजीवन अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए । निर्णय और न्याय की प्रक्रिया त्वरित, सहज और पारदर्शी हो । इस बात का भी सुनिश्चय हो कि प्रत्यासी को निलम्बित करने हेतु मिथ्या आरोप तो नहीं है । क्यों कि पूरी सम्भावना होगी - इस नियम के दुरुपयोग का, जैसा कि हमारे यहां किसी अन्य कानूनों के साथ हुआ करता है ।
वैसे भी बात-बात में हम सेना का प्रायः दुरुपयोग ही करते हैं । अदनों काम में सेना को लगा देते हैं । तो क्यों न लोकतन्त्र की मर्यादा की रक्षा के लिए सेना का उपयोग किया जाय । चुनाव प्रक्रिया का आधुनिकीकरण हुआ है, फिर भी अभी बहुत कुछ सुधार की अपेक्षा है । ई.वी.एम. के आने से काफी सुविधा हुयी है । आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए ऐसी व्यवस्था होती कि घर बैठे ही जनता वोट दे दे ।
    इसका प्रत्यक्ष लाभ ये होता कि चुनाव के दौरान होने वाली विविध दुर्घटनायें रुकती और व्यवस्था जनित भारी व्यय-भार से भी राष्ट्रीय धन को मुक्ति मिलती ।
      किन्तु ये सब करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है । नियम बनाने और फिर उसका सही अनुपालन कराने वाले योग्य व्यक्ति की आवश्यकता है । और इन सबके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है नैतिक-शिक्षा और संस्कार की , जिसकी आपूर्ति वर्तमान शिक्षा-नीति और व्यवस्था में कदापि सम्भव नहीं । अस्तु ।

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