लोकतन्त्र के डगमग पाये
ये बताने
की जरुरत नहीं है कि ‘लोकतन्त्र’ नामधारी जीव / अजीव चौपाया
है । ‘ विधाता
’ (इसे
बनाने वाले) ने तो इसका सृजन किया था- दस लक्षणों वाले ‘ धर्म के स्वरुप ’ वृषभ के अनुरुप ही, किन्तु थोड़े ही दिनों में खूंखार
भैंसा मार्का जीव बनकर रह गया ये ।
पुरानी
पीढ़ी तो जानती-मानती थी इन बातों को, किन्तु नयी पीढ़ी जो देखने-जानने, पढ़ने-गुनने
में उतना विश्वास नहीं रखती, जितना बिन समझे-बूझे,आलोचना (शिकायत के अर्थ में) करने
में विश्वास रखती है ।
ये
मैं बिलकुल दावे के साथ इसलिए कह सकता हूँ, क्यों कि यदि किसी ने मनोयोग पूर्वक
मनु का वो संविधान पढ़ा-समझा होता, तो आज उनकी मनुस्मृति की ये दुर्गति न होती । उस
अद्भुत समाजशास्त्र की इस कदर धज्जियां न उड़ायी जाती ।
चौपाये वृषभ रुपी धर्म या कहें धर्म
रुपी वृषभ में मनुस्मृतिकार ने ये दस लक्षण (गुण) कहे हैं । यथा— धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: । धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ मनुस्मृति ६।९२ ॥ ( धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या,
सत्य और अक्रोध) । उक्त दस शब्दों की विस्तृत व्याख्या हो सकती है,जोकि
यहां मेरा उद्देश्य नहीं है । अतः मूल विषय पर आते हैं
।
इन बातों और गुणों का
ध्यान रखते हुए ही लोकतन्त्र के सम्यक् संचालन के नियम बनाये गए थे,किन्तु कुछ
त्रुटियां रह गयी थी,जिसका नतीजा हुआ कि चन्द दिनों में ही इस व्यवस्था की ऐसी
दुर्गति हो गयी ।
मैं ये कहने की धृष्टता या कि उदण्डता
नहीं कर सकता कि बनाने बालों ने गलती की थी । बनाने वालों में कई अतिप्रबुद्ध
विचारक भी थे- इसमें कोई दो राय नहीं । बनाया तो खूब सोच-विचार कर, किन्तु बनाते
समय की कुछ विवशता ऐसी थी, जिसका दुष्परिणाम शनैः-शनैः सामने आने लगा । और बहुत
जल्द ही हमारा पावन लोकतन्त्र एक सुव्यवस्थित तन्त्र न रह कर, महज़ तमाशा बन कर रह
गया—मूर्खतन्त्र,अराजकतन्त्र,भीड़तन्त्र...। मज़बूरियों के बीच बनाया गया नियम,
तात्कालिक परिस्थिति को मद्देनज़र रखते हुए लिए गए निर्णय – ऐसा नहीं कह सकते कि
सब गलत ही थे, किन्तु चन्द लोगों के निजी स्वार्थ के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुयी
।
मैं ये नहीं कहता कि बाप बहुत योग्य था,बिलकुल
दूध का धोया हुआ,किन्तु दो अति महत्त्वाकांक्षी वेटे जब आपस में जूझने लगें - एक
माँ को लेकर,तो क्या बुढ़ापे में बाप दूसरी शादी रचाये? और यदि शादी रचा भी ले तो क्या सही में वो ‘नयी वाली’
उन दोनों की सगी माँ कही जा सकेगी ?
नहीं
न । ऐसी विकट परिस्थिति में बाप ने निर्णय लिया,भले ही वो बिलकुल बेवकूफी वाला
निर्णय था- माँ को ही काटने-बांटने वाला निर्णय । ऐसी ही कुछ विषम परिस्थिति
महात्मा भीष्म के सामने भी आयी थी । अनिर्णय की विवशता में ही निर्णय लिया था
उन्होंने - हस्तिनापुर के विभाजन का । किन्तु परिणाम क्या हुआ - दुनिया जानती है ।
फिरंगियों
की कुटिल चाल को या तो बूढ़े वाप ने सच में नहीं भांपा या फिर दो जवान जुझारु
वेटों की भोंड़ी महत्त्वाकांक्षा ने उसे मज़बूर कर दिया । सत्य-असत्य का इतिहास
बहुत घालमेल वाला है । इतिहास वैसे भी बहुत प्रमाणिक नहीं हो सकता । वह अक्षरसः
सत्य कदापि नहीं हो सकता । इतिहास तो इतिहास लिखने वाले की मानसिकता का शब्दचित्र
मात्र हुआ करता है । अब ऐसा तो नहीं है कि
कोई महर्षि व्यास - त्रिकालदर्शी व्यास, निष्पक्ष व्यास इतिहास लिखने बैठे हैं, जिसे
हर हाल में मान ही लेना चाहिए ।
खैर,
ढुलमुल इतिहास से बाहर आकर वर्तमान के आइने में अपने लोकतन्त्र की छवि को निहारने
का प्रयास करते हैं
; किन्तु हां,वर्तमान के अवलोकन की सुचारुता-सुस्पष्टता के लिए
बीच-बीच में भूत का झलक भी लेते जाना होगा, तभी ठीक से कुछ समझा जा सकेगा ।
संसार
के कई प्रमुख नियमों और संविधानों के मनन-चिन्तन,अनुशीलन करने के पश्चात् अपना नया
संविधान बनाया गया था । अब कोई आलोचक इसे विविध संविधानों की ‘कतरन वाला गेंदड़ा’ कह दे तो बात अलग है । वैसे भी गेंदड़ा को गुलदस्ता तो कहा नहीं जा सकता ।
एक खाश़ियत है हमारे
लोकतन्त्र की - इसमें कहने-बोलने, चीखने-चिल्लाने, उत्पात मचाने, यहां तक कि गाली देने तक की
पूरी स्वतन्त्रता है न !
समय-समय पर गाली देते रहो, और ये भी कहते रहो कि हमें बोलने की
आजादी नहीं मिल रही है... लोकतन्त्र का हनन हो रहा है...मौलिक अधिकार का हनन हो
रहा है...।
आप
जानते ही हैं कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता—इन चार सृदृढ़
स्तम्भों के सहारे हमारा लोकतन्त्र खड़ा है । मेज के इन चार पायों को यदि ‘डायगोनल’
रखें तो कहना उचित होगा कि धरातल के ईशान कोण पर न्यायपालिका और नैर्ऋत्यकोण पर
पत्रकारिता है, तथा अग्निकोण पर विधायिका और वायुकोण पर कार्यपालिका का स्थान है ।
इन्हीं
बातों को अब जरा दूसरे ढंग से स्पष्ट करते हैं । हमारा भारतीय वास्तुशास्त्र कहता
है कि ईशानकोण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण,मर्यादित और पवित्र होना चाहिए ,क्यों कि
वास्तुपुरुष का ये शीर्ष भाग है । इससे ठीक तिरछे यानी नैर्ऋत्य कोण को सबसे सुदृढ़
(मजबूत) होना चाहिए , क्यों वो पृथ्वीतत्त्व है और उसमें बाकी के सभी तत्त्व
समाहित से हैं । वह मालिक नहीं है । हुकूमत
करना उसका काम नहीं है,परन्तु सब पर उसकी पैनी नज़र होनी चाहिए । अपने मूल कर्तव्य
के साथ अन्य सबके क्रिया-कलापों का मूल्यांकन करते रहना चाहिए । अब दूसरी ओर
देखें,जहां अग्निकोण है । इसे बिलकुल जागृत,यानी चैतन्य होना चाहिए , क्यों कि
शरीर में अग्नि यानी ऊर्जा का प्रधान स्रोत ही सुदृढ़ नहीं रहेगा, तो शरीर मृत हो
जायेगा । इस अग्नि को अपने कार्य में अनुकूलता मिले ताकि वो अपना कर्तव्य-निर्वहण
सम्यक रुप से कर सके, इसके लिए वायुतत्त्व की चैतन्यता, जागरुकता, तत्परता अति
आवश्यक है । क्यों कि ये यदि लुंजपुंज हो गया तो सब गड़बड़ हो जायेगा ।
ये
चारों स्तम्भ(पीलर)अपने-अपने स्थान पर समानधर्मी हैं,समानकर्मी भी, समान उत्तरदायी
तो हैं ही । किसी एक पाये को कमजोर कर देंगे यदि तो मेज की सुदृढ़ता पर आँच आयेगी
ही - इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ये चारों
अपने आप में स्वतन्त्र हैं (स्वच्छन्द नहीं),फिर भी एक दूसरे के परिपूरक भी हैं ।
पिछले
दिनों में हमारे पवित्र ईशान(न्यायपालिका)की मर्यादा भंग हुयी है । इसके लिए कुछ
तो वह स्वयं भी जिम्मेवार है और काफी हद तक अग्नि (विधायिका) का योगदान भी रहा है
। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता पर हावी होने का हर सम्भव प्रयास विधायिका सदा करती
रही है । क्यों कि उसे लगने लगा है कि वही सर्वश्रेष्ठ है । वही असली मालिक है लोकतन्त्र
का । वह भूल गया है कि उसकी भूमिका एक सहयोगी अंग मात्र की है । वह शरीर नहीं है ।
विधायिका का ये भ्रामक अहंकार ही लोकतन्त्र के सर्वनाश का कारण बन रहा है ।
इस
अहंकार की उत्पत्ति का मूल कारण है अशिक्षा - अज्ञान । जरा खुल कर कहें तो कह सकते
हैं कि अयोग्य व्यक्तियों का विधायिका में प्रवेश । विधायिका में प्रवेश के लिए
किसी योग्यता प्रमाणपत्र की अनिवार्यता पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया, जब कि ये
बहुत ही जरुरी था । सर्वाधिक अनिवार्य शर्त होना चाहिए था योग्यता । क्या तुक है कि नियम पालन करने वाले के लिए
विशेष योग्यता अत्यावश्यक हैं और नियम बनाने वाले के लिए कुछ नहीं ! कितनी हास्यस्पद है ये बात ! कितनी विचारणीय है ये बात
!
किन्तु
प्रारम्भ में इस बात (नियम) को बिलकुल नज़रअन्दाज किया गया । स्वतन्त्रता संग्राम
में भाग लेना और बात है,जब कि विधायिका चलाना बिलकुल और बात । ये ठीक है कि नियम-कानून
बनाने के लिए अनुभवियों और विशेषज्ञों की पूरी टीम होती है, किन्तु उस योग्य टीम
का ‘हैंडलिंग’ तो अयोग्य के हाथ में होता है न ! बीमार घोड़े और अनएक्सपर्ट ड्राईवर से सुरक्षित यात्रा की आशा कैसे रखी जा
सकती है ? वो कहीं भी दुर्घटनाग्रस्त हो सकता है । औरों को भी
क्षतिग्रस्त कर सकता है ।
योग्यता
के मामले में सिर्फ शैक्षणिक योग्यता की ही बात नहीं है, चारित्रिक योग्यता उससे
भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसका कि हमारी विधायिका में निरन्तर अभाव होता जा
रहा है । शैक्षणिक योग्यता को तो कार्यानुभव से क़ायल किया भी जा सकता है,परन्तु
चारित्रिक योग्यता का तो कोई विकल्प हो ही नहीं सकता । वो तो बिलकुल निजी मामला है
। शैक्षणिक योग्यता कभी भी हासिल की जा
सकती है, किन्तु चारित्रिक योग्यता कहीं बाहर से आने वाली चीज नहीं है । इसे ‘एडॉप्ट’
नहीं किया जा सकता और न ‘हायर’ ही किया जा सकता है । ‘परचेज’
का तो सवाल ही नहीं ।
अशिक्षा
और अज्ञानता से ही मूर्खता की उत्पत्ति होती है । मूर्खता जड़ता लाती है । जड़ता
में उज्जड्डता पनपती है और सब मिलकर कारण बनता है सर्वनाश का । मूर्ख के
सामने, ज़ाहिल के सामने नीति, धर्म, नियम, कानून का कुछ मायने नहीं रह जाता । मानवता
भी तुरन्त दानवता में बदल जाती है । हुक़ूमत की ताकत हाथ आते ही निरंकुशता, स्वच्छन्दता
सब हावी होने लगता है, क्यों कि ये सब अज्ञानता परिवार के ही सदस्य हैं । और कुल
मिलाकर परिणाम ये होता है कि लोक या कि राष्ट्र गौण हो जाता है । मुख्य बन जाता है
व्यक्तिगत स्वार्थ, व्यक्तिगत सुखोपभोग, व्यक्तिगत सुरक्षा । अहंकारी, मदकारी
विधायिका विसार चुकी है कि वह लोकप्रतिनिधि बन कर प्रस्तुत हुआ है । लोकसेवा ही
उसका एक और एक मात्र कर्तव्य है । यही उसका अथ और इति है । परन्तु विडम्बना ये है कि सेवक अपने को शासक समझ
लिया है और ‘लोक’ – जो असली मालिक है, हासिये पर चला गया है ।
नौकर के लिए सारी सुरक्षा व्यवस्था है, सारी सुखसुविधायें हैं और मालिक भूखे
मरे,फटेहाल रहे,बीमार रहे,असुरक्षित रहे- इससे उसे कोई मतलब नहीं । चुंकि विधान
बनाना उसके हाथ में है, इसलिए वे सारे विधान जो उसके अनुकूल हों,उसने बना रखे हैं
। इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ तो तरह-तरह के हथकंठे भी अपना लिए हैं इसने । मालिक
की कमजोरी को भुनाने की अच्छी कला सीख ली है नौकर ने । वो पुरानी कहानी पूरी तरह
चरितार्थ होती है हमारे लोकतन्त्र पर,जो कि एक राजा ने एक बन्दर को नौकर रख छोड़ा
था, जिसने राजा की नाक पर बैठी मक्खी को उड़ाने के उपक्रम में राजा की नाक ही काट
डाली । राजा की नाक रहे या कटे, बन्दर को इससे क्या मतलब ? वह तो तथाकथित अपनी ड्यूटी कर रहा है ।
अतः
विधायिका के इस मूलभूत विकार को यथाशीघ्र दूर करना होगा । प्रवेश के अधिकार से
पूर्व हमें सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्ति विधायिका के योग्य है भी या नहीं ।
चारित्रिक रुप से पतित,कलंकित व्यक्ति को कदापि विधायिका का सदस्य नहीं बनने देना
होगा । सीधी सी बात है ज्ञानी पत्थर भी मारेगा तो विचार पूर्वक और अज्ञानी फूल भी
बरसायेगा तो मूर्खता पूर्वक ही । सत्ता का
मद ज्ञानी को भी अविवेकी बना दे सकता है, फिर अज्ञानी के लिए क्या कहना ।
विधायिका
निर्मित विधान के अनुपालन का दायित्व है कार्यपालिका पर । योग्यता की बात यहां
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सर्वसम्मत स्वीकृत भी है । शैक्षणिक योग्यता है भी यहीं
घुटने टेके । बैद्धिक चेतना का उत्कृष्ठ वर्ग यहीं हुआ करता है – बिलकुल दूध से
छंटे मलाई की तरह । किन्तु पिछले दिनों में इसकी गुणवत्ता में भी निरन्तर गिरावट
आयी है । अयोग्यता यहां भी हावी हुयी है । चारित्रिक पतन यहां भी भरपूर हुआ है ।
और सबसे बड़ी दुःखद बात ये है कि एक नौकर दूसरे नौकर को अपना निजी नौकर मान बैठा
है । हमारी कार्यपालिका विधायिका के हाथों की कठपुतली बनकर रह गयी है । इसकी
व्यैयक्तिक स्वतन्त्रता का कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है । ख़ैरियत है कि इसमें
निरंकुशता नहीं आयी है ।
और
इन सारी विकृतियों को दूर करने में अहम भूमिका होती है पत्रकारिता की । पिछले
दिनों में इसकी साख पर भी भारी वट्टा लगा है । हालाकि यहां भी वही अयोग्यता वाली
बात है । हां,फर्क सिर्फ इतना है कि वहां विधायिका में शैक्षणिक और चारित्रिक
दोनों प्रकार के अयोग्यता की भरमार है , तो यहां चारित्रिक अयोग्यता की । निहित
स्वार्थ के कारण कर्तव्य-पथ से बिलकुल विमुख सा हो गया है ये पाया । सत्य और
ईमानदारी से कोशों दूर होता चला गया है निरन्तर । जिसे बिलकुल निष्पक्ष होना चाहिए
था,जिसे सबको खरी-खोटी सुनाने का अधिकार था,जिसने दूध का दूध और पानी का पानी करने
का संकल्प लिया था,वो भी किसी न किसी पक्ष का शिकार हो गया है । किसी खास के
पिंजरे में बन्द तोता बन गया है ।
सोचने
वाली बात है- न्याय यदि बिकने लगे,मुंह देखी करने लगे,किसी के दबाव में आकर सही को
गलत और गलत को सही साबित करने लगे,उसे भी अपनी कुर्सी की चिन्ता सताने लगे तो क्या
गति होगी लोकतन्त्र की !
ठीक यही बात पत्रकारिता पर भी शतशः लागू होती है ।
कुल
मिलाकर विचार करें तो दावे के साथ कह सकते हैं कि लोकतन्त्र के चारों पाये दुर्बल
हो गए हैं । बीमार हो गए हैं । जिसमें एक पाया तो बिलकुल सड़ गया है । उसका ‘ ट्रान्सप्लान्टेशन ’ यथाशीघ्र अनिवार्य है, अन्यथा शेष अंगों में भी
‘ गैन्ग्रीन
’ होने की
पूरी आशंका है । साधारण दवा से ठीक होने
लायक स्थिति बिलकुल नहीं है । प्लास्टिक सर्जरी से भी काम चलने को नहीं है। केश
मेजर ऑपरेशन वाला है । किन्त विडम्बना ये है कि सुव्यवस्थित ऑपरेशन थियेटर का भी अभाव है । अतः
उचित है कि किसी प्राकृतिक आरोग्यशाला में ‘ पंचकर्म ’ चिकित्सा के लिए तत्काल भर्ती करा दिया जाए ।
अस्तु ।
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