लोकतन्त्र के मनबढ़ुए-दुलरुए
खबर है कि इमामगंज थाना के पड़रिया
गांव में अवैध शराब की छापेमारी के लिए गये सुरक्षाबलों पर जम कर रोड़ेबाजी हुयी, डी.एस.पी.
समेत चार लोग घायल हुए , दो सिपाहियों को ग्रामीणों द्वारा बन्धक भी बनाया गया...।
ऐसी खबरों की कोई खास अहमियत नहीं रह
गयी हैं अब, क्यों कि बातें पुरानी हो चुकी हैं । रोड़ेबाजी की हवा जोरों से चल पड़ी है । पुलिस
के जवान हों या कि सेना के जवान, आए दिन सबका सामना हो रहा है ऐसे पत्थरबाज़ों से
।
विरोध के ये हथकंडे, ऐसी भावनायें संक्रामक बीमारी की तरह फैल रही हैं चारो ओर और सभी रहनुमा मूक द्रष्टा
की भूमिका में हैं । या तो इसे गम्भीरता से ले नहीं रहे हैं, या कोई संवैधानिक
लाचारी आड़े आ रही है !
कहते हैं कि विरोध-प्रदर्शन
लोकतन्त्र का अधिकार है । ठीक है, मान लेते हैं थोड़ी देर के लिए । किन्तु ‘
ढाल
’ जब ‘ तलवार
’
बन जाये, तो क्या गम्भीरता पूर्वक पुनर्विचार नहीं होना चाहिए ? या फिर किसी भयावह दुर्घटना के इन्तज़ार में हैं ?
क्या समस्या है कोई कठोर या बेरहम कदम
उठाने में ?
क्यों झेले जा रहे हैं ये दंश इतने दिनों से ?
सैनिकों और सुरक्षाबलों पर वार करने वाले, रोड़ेबाजी करने वाले क्या किसी आतंकवादी
से कम हैं ? और फिर अपराधी का साथ देने वाला, संरक्षण देने
वाला, सुझाब देने वाला, वरगलाने वाला- सभी तो लगभग एक जैसे अपराधी ही हैं ।
फिर क्यों नहीं कुछ ठोस कानून बनाया
जाता ?
कानून और उसका ‘ एम्प्लीमेन्टेशन
’ ऐसा होता कि भविष्य में किसी कानून तोड़ने वाले
को नानी याद आ जाती । एकल या कि सामूहिक दुष्कर्म, हत्या,घोटाला, देशविरोधी नारे
जैसे जघन्य अपराध करके भी अपराधी सीना ताने बेहयायी पूर्वक हमारे सामने घूमता है, और
हम बयान बाजी में भिड़े रहते हैं ।
वर्षों के संघर्ष और इन्तज़ार के
बाद , जटिल और उबाऊ न्याय-प्रक्रिया से गुज़रने के बाद सजा भी मिलती है तो चूरन-चटनी
माफ़िक । और वो भी जेल न हुआ मानों ससुराल हो गया । सजायाफ़्ता में ये वी.आई.पी.
शब्द कहां से जुड़ गया ?
कोई कठोर कानून बनाने में क्या
समस्या है ?
या कि सात पुस्तों के लिए स्थायी सम्पत्ति बनाने के चक्कर में ज़रुरी
और समुचित कानून बनाने की जिम्मेवारी ही समझ नहीं आ रही है ? और यदि ऐसा ही है तो फिर क्यों बेवकूफ बनाये जा रहे हैं हमें ?
लोकतन्त्रता ही नहीं गणतन्त्रता की
दुहाई देते हैं और विचार ऐसे पाले हुए हैं मन में, जिसे इन दोनों से कोई वास्ता ही
नहीं ।
‘ भारत तेरे टुकड़े होंगे ’
का नारा लगाने वाले को कठोर दण्ड देने के वजाय, गंदी राजनीति करके उसे नवोदित नेता
का रुप दे दिया- इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है ? भारत को बांटने में जिसकी खलनायकी भूमिका रही उसकी ‘ तस्वीर’
पर मूर्खतापूर्ण ही नहीं, हास्याष्पद राजनीति करने वाले को दिमागी-दिवालिया नहीं
तो और क्या कहेंगे ?
अनुयायियों और अन्धभक्तों की भीड़ जुटाकर,रंगरेलियाँ मनाने वालों को
दोषी करार देने में भी न्याय और व्यवस्था को पसीने छूट रहे हैं । सीमा सम्भालने
वाले को पागलों की भीड़ सम्भालनी पड़ रही है । आँखिर ऐसा कमजोर कानून हमने बनाया
ही क्यों ?
चारों ओर से ग्रील लगे कमरे में किसी अवोध
बालिका के साथ दुष्कर्म होते रहने की साज़िश पूर्ण वारदात पर खबरिया लोग हफ्तों
भुनाते रहे अपना टीआरपी और अब न्यायालय के माथे ठीकरा फोड़ने को उतारु हैं । घटना
हुयी या साजिश—निष्पक्ष रुप से ‘
ग्राउण्ड रिपोर्टिंग ’ जांच-पड़ताल
किए वगैर किसने अधिकार दे दिया था इन्हें चीखने को ? और अब चाहते
हैं कि मियां-बीबी के झगड़े को भी सी.बी.आई. ही निपटाये ? लोकतन्त्र
के इसी चौथे पाये पर नाज़ है ?
सत्ताधारी हों या कि विपक्ष,
अपने-अपने कर्त्तव्य-क्षेत्र में क्यों नहीं बंधते ? लोकतन्त्र
की कराहती आत्मा की पुकार क्यों नहीं सुनायी पड़ती ? भारत
माता की कटी बाहें क्यों नहीं दीखती ?
सत्ताधारी तो प्रायः सत्ता के मद
में चूर रहता ही है । किन्तु विपक्ष क्या सिर्फ गाल बजाने के लिए बैठा है ? मेडिकल की भाषा में यदि कहें तो विपक्ष को लोकतन्त्र की ‘
काया
का किडनी ’ कहने में
कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए । सत्तापक्ष की अवांछित गंदगी को छान-छून कर बाहर
निकाल फेंकने की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है विपक्ष की ।
किन्तु इस किडनी के सारे के सारे ‘ नेफ्रॉन
’ अब कुछ और
ही जिम्मेवारी सम्भाल लिए हैं । गन्दगी का छानबीन करने के बजाय, दिल और दिमाग तक को
निकाल फेंकने को उतारु हो जा रहा है विपक्ष । उनका एक मात्र उद्देश्य हो गया है-
सत्ता की आलोचना...नहीं नहीं केवल शिकायत । बात-बात में बाल के खाल खींचना । साधारण सी बात को भी तूल दे देना । किसी भी घटना
को धार्मिक,साम्प्रदायिक, लिंगीय, जातीय, क्षेत्रीय आदि खांचे में ढकेल कर बवाल खड़ा
करा देना और अपनी गोटी सेट करने की तिगड़म करना - वस सिर्फ यही काम रह गया है
विपक्ष का । वोट खरीदने के लिए चट जनेऊ पहनकर तिलक धारण कर लेना हो या कि पायजामे
का नाड़ा खोल कर ‘ निहुर ’
जाना पड़े - विपक्ष कुछ भी कर सकता है – पक्ष पाने के लिए — सत्ता हथियाने के लिए ।
भारतमाता के सुख-सौभाग्य से विपक्ष को कुछ लेना-देना नहीं । ठीक वैसे ही जैसे कोई
स्त्री अपनी सौतन को विधवा बनाने की होड़ में खुद को विधवा बना लेना सहज ही कबूल
कर लेती है । विपक्ष को किसी अच्छाई या बुराई से कोई वास्ता नहीं । वास्ता है
सिर्फ सत्तापक्ष के हर काम में अड़ंगा लगाना, भले ही देश या देशवासी का कितना हूं
नुकसान क्यों न हो जाये ।
कुर्सी कैसे हमारी हो – दिवा स्वप्न
का यही फ़ितूल केवल घूमते रहता है दिमाग में । बाकी बातों के लिए वक्त ही नहीं
बचता । कुर्सी मिले कैसे, कुर्सी बंचे कैसे, कुर्सी को भोगें कैसे- इस ‘ बाउण्डरीवाल
’
से जरा भी बाहर का कुछ दीखता-सूझता ही नहीं ।
नाटे से शरीर में, छोटी सी खोपड़ी
में बड़ी सी बुद्धि रखने वाले एक राष्ट्रभक्त ने बहुत पहले ही कहा था – ‘ सम्भल
जाओ, नहीं तो नक्शे से नामोनिशान मिटा देंगे ।
’
ये सुकृत्य कब का ही हो चुका रहता,
किन्तु कुछ दुर्बुद्धियों को रास न आयी उसकी बातें, और बड़े षडयन्त्रकारी अंदाज
में उसका ही काम तमाम कर दिया गया । एक वैसा ही राष्ट्रप्रेमी फिर दहाड़ लगा रहा
है, जिसका व्यक्तिगत कुछ भी नहीं । जो भी है राष्ट्र के लिए है । परन्तु सारे
गीदड़ मींटिग-सीटिंग में लगे हैं कि शेर को पछाड़ा कैसे जाये ।
एक बड़े साहसी ने बहुत पहले ही
दुस्साहस दिखाया था शराब-बन्दी का, पर ज़ाहिलों की ज़मात में सत्ता गवांनी पड़ी थी
। फिर एक ऐसे ही दुस्साहसी ने शपथ ली है । परन्तु उसका साथ देने के बजाय हम
रोड़ेबाजी कर रहे हैं...करवा रहे हैं ?
चुल्लु भर भी पानी मिले, नहीं तो
फल्गु वाली नाली ही सही , डूब मरना चाहिए नाक डुबो कर । वेटों को तर्पण भी नहीं
करना पड़ेगा । किन्तु नहीं, सत्ता के भूखे भेड़ियों में इतनी समझ नहीं होती । डूब
मरने के लिए भी साहस चाहिए । हिम्मत चाहिए ।
मुगलों ने नोच-चोंथ कर खाया,
फिरंगियों ने कांटे-चम्मच के उलट-पुलट कर खाया सोने की चिड़िया को । और अब ‘ चिल्ली-सॉश
’ के साथ खाये जा रहे हैं – हमारे अपने ही, तथाकथित
लोकतन्त्र के रहनुमा ।
क्या लगता है- ये जो कुछ भी हो रहा
है पूरे देश में— क्या सच में हम इतने जागरुक हो गए हैं आजकल ? हम इतने राम-भक्त हो गए हैं
? हम इतने गो-भक्त हो गये
हैं ? हम इतने नारी-भक्त
हो गये हैं ? हम इतने संवेदनशील हो गए हैं ?
असल में हम कुछ नहीं हुए हैं । हुए
होते कुछ, तो क्या यही रुप होता आज इतने दिनों बाद भी हमारा ?
असली बात तो ये है कि हम कुछ
मनबढ़ुये-दुलरुए पाल रखे हैं । जरुरत पड़ने पर इस़्तेमाल करने के लिए । और तरह-तरह
का नाम दे रखे हैं उनका - जातिगत नाम, धर्मगत नाम, वर्णगत नाम, वर्गगत नाम...। हालाकि
ये मनबढ़ुए-दुलरुए सिर्फ गीदड़ों की टोली में ही नहीं , बल्कि शेर की टोली में भी
हैं ।
किन्तु सीधी सी बात है कि इतने
वर्षों में कुछ खास नहीं कर पाये, तो अब क्या खाक करोगे ? फिर भी पूंछ रंगवा रहे हैं, मूंछ रंगवा रहे हैं ।
परन्तु याद रखो - हम बूझ चुके हैं ।
समझ चुके हैं । अब धोखे में न रखो, क्यों कि जान गये हैं— भोजपुरी में एक कहावत है- ‘ देखिहऽ
रेऽ लयिऽकन !
सियराऽ ओही वा, पोंछीयाऽ रंगइले वा ।’
देर से सही पर सेना को ‘
ऑल आउट ’ का आदेश
एक सराहनीय पहल है । किन्तु कुछ ऐसा ही ‘
हुड आउट ’, ‘ किक
आउट ’, ‘
शूट आउट ’ वाला
कानून भी बनाना होगा और इसके लिए दृढ़
इच्छा-शक्ति की जरुरत होगी । इसके बदौलत ही
मनबढ़ुओं-दुलरुओं का मन ‘ थोर ’ होगा । जय हिन्द ।। वन्देमातरम् ।।
Comments
Post a Comment