शाही पनीर का किरकिरा ज़ायका
पनीर अपने आप में कोई खास ज़ायकेदार
नहीं होता । भले-चंगे दूध को फाड़फूड़ कर बनायी गयी चीज में भला क्या स्वाद हो
सकता है !
अलस स्वाद आता है उसके साथ मिले-जुले मिर्च-मसालों और सामानों का -
चीनी मिला दें, गुड़ मिला दें, नमक मिला दें, छोले-मटर मिला दें, आलू मिला दें या
कि मटन मिला दें । और फिर इन मिले जुले सामानों के बदौलत श़ेहरा बंध जाता है बे सवाद
से पनीर को ।
वैसे ही नेता-वोता में भी अपना कोई
दम-खम नहीं होता । फटे हुए दूध की तरह वह समाज के किसी काम का नहीं । न वह मजदूर
है , न किसान, न शिक्षक है, न विद्यार्थी । वास्तव में वह निहायत निकम्मा किस्म का
आदमी हुआ करता है । और चुंकि उसके पास कोई
काम नहीं हुआ करता, या कहें काम करना नहीं चाहता, इसलिए नेतागिरी करने लगता है ।
वैसे आप चाहें तो इसे कामचोर कह सकते हैं । हालाकि हरामखोरी इसके नस-नस में होती
है, इसलिए ये विशेषण अधिक सुटेबल होगा । इसे
पता होता है कि नेतागिरि करने में न खेत की जरुरत है, न बीज की, न डिग्री-डिप्लोमा
की, न पूंजी-पगहा की, न श्रम की औ न बुद्धि की ।
नेता के पास न कोई ताकत होती है और
न श़ोहरत । दौलत तो उसके पास होती ही नहीं । अब पनीर में भला अपना स्वाद होता तो
वो गोश़्त की श़ागिरदगी का क्यों मुहताज़ होता ! ज़ायका गोश़्त का होता है, शोहरत पनीर को मिलती है । सब कुछ देश और समाज
का होता है—जनता का होता है, और लुफ़्त उठाता है हरामखोर नेता । दौलत और श़ोहरत
बटोरता है कामचोर नेता । एक कहावत है न—लड़े सिपाही नाम कोतवाल के...ठीक कुछ वैसी
ही बात है ।
बिना पनीर के किसी डीनर पार्टी की
कल्पना भी नहीं की जा सकती । वैसे ही जैसे
बिना नेता के किसी देश की । शाही घरानों से निकल कर आम घरों तक जैसे बिरयानी आ
गयी, उसी तरह फाइव स्टार होटलों से निकल कर शहरी डीनर पार्टियों में पनीर का चलन
हो गया । और अब तो गांवों में, घरों में
भी घुस आया है बेस्वाद-सा पनीर । ठीक वैसे ही जैसे गली गली में नेता । अलग-अलग बात
के नेता – देश के नेता, राज्य के नेता, मजदूर के नेता, किसान के नेता, दुकानदार के
नेता, विद्यार्थी के नेता, चोरों के नेता, लुटेरों के नेता, आतंकवादियों के नेता,
कुत्तों के नेता, सूअरों के नेता... । हालाकि
यहां मैं थोड़ा गलत कह गया, क्यों कि पशुओं में नेतागिरी की संक्रामक और घातक
बीमारी बिलकुल नहीं है । सभी पशु मानसिक रुप से पूरे तौर पर स्वस्थ हुआ करते हैं ।
दरअसल मानसिक बीमारी तो आदमियों को होती है न ।
देश और राज्यों की कौन कहे , गांवों,
कस्बों और मुहल्लों में भी नेता मिल ही जाते हैं । शायद दुनिया में कोई जगह ऐसी नहीं जहां कुत्ता और
नेता न मिले । कुत्ते प्रायः गलियों में, चौराहों पर आपस में जूझते-भोंकते मिला करते
हैं । उसी तरह से नुक्कड़ का मंच हो कि पार्लियामेन्ट, या कि टीवीस्टूडियो – चीखते-चिलातें-जूझते-भोंकते
नेता मिल ही जायेंगे । किसी सामूहिक भोज के बाद फेंके गए जूठे पत्तलों पर जैसे
गली-मुहल्लों के कुत्ते जूझते-भूंकते हैं, उसी तरह मौके-बेमौके नेता लोग भी करते
हैं । खासकर चुनाव के पहले और कुछ-कुछ चुवाव के बाद भी । कुत्ता और नेता में एक
खास फर्क ये भी देखा जा सकता है— आजतक किसी मीडिया फाइल में नहीं मिला होगा कि
किसी कुत्ते ने पत्तल की छीना-झपटी में किसी कुत्ते की निर्मम हत्या की हो, किन्तु
नेताओं के साथ अकसर ऐसी घटना हो जाती है । दरअसल इसमें नेताओं की गलती नहीं है, गलती
है लोकतन्त्रिक व्यवस्था की । बढ़ती आबादी के अनुसार मुख्यमंत्री और प्रधानमन्त्री
की संख्या भी बढ़ानी चाहिए थी । कुर्सियां ज्यादा होती तो झगड़े कम होते । दयावान
और धैर्यवान जनता इतने हरामखोरों का बोझ ढोते आ रही है, तो क्या कुछ और के नहीं
ढोयेगी ?
पहले के समय में किसी-किसी घर के दरवाजे
पर पालतू किस्म के कुत्ते हुआ करते थे । किन्तु अब हर वंगलों और कारों की शान बढ़ा
रहे हैं कुत्ते । कुत्ते की क्वॉलीटी से मालिक की हैसियत का अन्दाज़ा मिलता है । गायों
से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये कुत्ते । ठीक वैसे ही जैसे जनता से भी अधिक
महत्वपूर्ण हो गये हैं नेता ।
मगर इधर मुझे थोड़ी चिन्ता हो रही
है । सुनते हैं कि शाही पनीर के ज़ायके में थोड़ा किरकिरापन आ गया है । भगवान कभी
भला न करें न्यायाधीशों का, जिन्होंने कुछ शाहजादों को बेघर करने का निर्णय सुना
दिया है । चिड़ियों को भी अपना घोसला प्यारा लगता है, नेता तो भला आदमी हुआ करता
है, भले ही बुद्धि थोड़ी ओछी है तो क्या हुआ ।
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