(नोट इसके पूर्व के पोस्ट में प्राक्कथन और विषयसूची दी जा चुकी है । )
प्रथम अध्याय
कालसर्प योग :: परिचयात्मक इतिवृत
प्राक्कथन क्रम में ही किंचित स्पष्ट किया जा चुका है कि
नवग्रहों में दो अप्रधान—छायाग्रह—राहु-केतु , जो वस्तुतः एक ही ग्रह के शीर्ष और
कबन्ध खण्ड हैं, के सम्यक् प्रभाव-क्षेत्र में जन्मकालिक सभी (शेष सात सूर्यादि)
ग्रहों के आ जाने से जो योग बनता है, उसे ही आधुनिक ज्योतिष में कालसर्पयोग नाम
से प्रचारित किया जा रहा है । जी हां, आधुनिक ज्योतिषीय पुस्तकों में, न कि
प्राचीन ज्योतिषीय ग्रन्थों में । आधुनिकता और प्राचीनता का काल निर्धारण अपने आप
में किंचित विवाद का विषय है । वैदिक-पौराणिक काल के प्राचीन ग्रन्थ में सीधे इस
नाम के योग का न पाया जाना ही इसे संशय के घेरे में ला खड़ा किया है । परिणामतः पक्ष-विपक्ष
के विचारों की अनुगूंज स्वाभाविक है । वर्तमान में स्थापित ज्योतिषियों का एक बहुत
बड़ा वर्ग है, जो इसे परले सिरे से नकारता है और सीधे ठगी का स्रोत करार दे देता
है, तो ठीक इसके विपरीत बहुसंख्यक आधुनिक ज्योतिषी ऐसे भी हैं, जो इसके बड़े
जोरदार समर्थक हैं ।
हालाकि महर्षि परासर रचित ‘ वृहत्पारासरहोराशास्त्र ’ के अध्याय ३६– ७-२३ में सहस्राधिक
योगों की चर्चा क्रम में सर्प नामक योग की
चर्चा है, जिसमें कहा गया है कि केन्द्र में अशुभग्रहों की अवस्थिति हो और शुभग्रहयोग
न हों तो सर्पनामक योग बनता है, जिसके परिणाणस्वरुप जातक दरिद्र, कुटिल, परवश, पराश्रित,
रोगी, दुःखी आदि होता है । ‘ भृगुसंहिता ’ योगवल्याध्याय तथा वराहमिहिर के ‘ जातक नभ संयोग ’ में सर्पयोग की
चर्चा है । कल्याण वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘सारावली ’ में भी सर्पयोग को
उद्धृत किया है । ‘शान्तिरत्नम्’ एवं ‘जैन ज्योतिष’ में भी
वर्णन मिलता है । वादरायण, गर्गाचार्य,मणित्थ आदि ने भी इस योग को नाम भेद से
गिनाया है । कुछ दशक पूर्व (१९३७ से १९५२ ई.सन्) रचित आचार्च पंडित रुपचन्द जोशीजी
की बहुचर्चित पुस्तक ‘ लालकिताब ’ में भी कालसर्पदोष के निवारण
के सरल उपाय सुझाये गए हैं । ‘ व्यावहारिक ज्योतिष तत्त्वम् ’ तथा ‘ जन्मांक फल विचार ’ जैसी पुस्तकों में भी दोष निवारण के उपाय सुझाये गए
हैं । यथा—
अग्रे वा
चेत् पृष्ठतो प्रत्येक पार्श्वे भाताष्टके राहुकेत्वोन खेटः । यो प्रोक्ता
सर्पश्च तस्मिन् जीतो जीतः व्यर्थ पुत्रर्ति पीयात् ।। राहुकेतु मध्ये
सप्तो विघ्ना हा कालसर्प सारिकः सुतयासादि सकलादोषा रोगेण प्रवासे वरणं ध्रुवं । कालसर्पयोगस्थ विषविषाक्त जीवणें भयावह
पुनः पुनरपि शोकं च योषने रोगान्ताधिकं
पूर्वजन्मकृतं पापं ब्रह्मशापात् सुतक्षयः किंचित ध्रुवम् ।।
तथा च— प्रेतादिवशं सुखं सौख्यं विनष्यति । भैरवाष्टक प्रयोगेन
कालसर्पादि भयं विनश्यति...इत्यादि ।
प्रश्न ये उठता
है कि आँखिर ऐसा भ्रम क्यों हो रहा है ? आमजन
या कि ज्योतिष का नया जिज्ञासु तो आशंका-ग्रसित हो ही जायेगा न कि सत्य क्या है
? और फिर सही जानकारी सही स्रोत से उसे नहीं मिलेगी तो, उक्त दो में
से किसी एक वर्ग का हिस्सा बन कर रह जायेगा । जिज्ञासुओं में बहुत थोड़े से लोग
ऐसे होंगे जो विशेष खोजबीन करना चाहेंगे और वे ही संशय-रहित सही जानकारी भी पा
सकेंगे ।
अतः यहां कालसर्प
नामक योग की भ्रामकता का निवारण करते हुये, सत्य से साक्षात्कार कराने का प्रयास
करता हूँ ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है - सीधे
कालसर्पयोग नाम का योग किसी अति प्राचीन ज्योतिष-ग्रन्थ में नहीं मिलता ।
यानी कि ये नाम आधुनिक ज्योतिषियों द्वारा दिया गया है । सच पूछें तो इस नये नामकरण के पीछे सिर्फ नये ‘लेबलिंग’ जैसी बात
है। पुरानी वस्तु पर नया लेबल चिपका देना और नये ढंग से उसकी मार्केटिंग करना । एक
ऐसा ही नया लेबलिंग हुआ है आजकल ‘पितृदोष’ का भी । ये भी ठीक कुछ-कुछ इसी तरह का है, बिलकुल कालसर्पदोष
जैसा ही — कुछ पुराने का ही नया भ्रामक नाम, जिसकी चर्चा फिर कभी किसी प्रसंग में
की जायेगी । फिलहाल तो आप कालसर्पदोष को ही समझें-जानें ।
इस नये नाम के
पीछे के तथ्य को समझें—
ज्योतिष शास्त्र विविध गणनाओं
के आधार पर मनुष्यादि के भूत-वर्तमान-भविष्यादि का कथन (संकेत) करता है । ज्योतिष
का कर्मकाण्ड-पक्ष आने वाली समस्या के निदान के पश्चात् सम्यक् उपचार की बात भी
करता है । सामान्य उपचार (ग्रहों से सम्बन्धित जप, दान, धारणादि) से समुचित लाभ
नहीं होने पर ग्रहों के अधिष्ठाता, अधिदेवों, प्रत्यधिदेवों की उपासना की बात की
जाती है । ऐसा नहीं है कि ये विशेष उपासना सिर्फ राहु-केतु की विशेष स्थिति में ही
की जाती है, प्रत्युत अन्यान्य ग्रहों के मामले में भी उनके
अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता की आराधरा का आदेश है शास्त्रों में । कभी-कभी तो सीधे
उनके अधिष्ठातृदेव की उपासना ही प्रशस्त कही जाती है । ज्ञातव्य है कि सभी (नवग्रहों) के एक-एक
अधिदेवता और एक-एक प्रत्यधिदेवता भी हैं । इसे निम्नांकित श्लोक एवं भावार्थस्पष्टी
सारणी से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है—
स्कन्धपुराण में कहा गया है—
शिवः शिवा गुह्ये विष्णुर्ब्रह्मेन्द्रयमकालकाः
।
चित्रगुप्तोऽथ भान्वादेर्दक्षिणे चाधिदेवताः ।।
नवग्रह-पूजन-मंडल में सूर्यादि नवग्रहों के क्रमशः दक्षिण पार्श्व
में उक्त—ईश्वर, उमा, स्कन्द, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, यम, काल और चित्रगुप्तादि
अधिदेवों को स्थापित-पूजित करे ।
इसी भांति सूर्यादि नवग्रहों के क्रमशः वाम पार्श्व में अग्नि, जल, पृथ्वी, विष्णु, इन्द्र, इन्द्राणी,
प्रजापति, सर्प और ब्रह्मादि प्रत्यधिदेवों को स्थापित करना चाहिए । यथा—
अग्निरापो धरा विष्णुः शक्रेन्द्राणी पितामहाः । पन्नगाः कः क्रमाद्वामे
ग्रहप्रत्यधिदेवताः ।।
नवग्रह
|
अधिदेवता
|
प्रत्यधिदेवता
|
सूर्य
|
ईश्वर
|
अग्नि
|
चन्द्रमा
|
उमा
|
अप्(जल)
|
मंगल
|
स्कन्द
|
पृथ्वी
|
बुध
|
विष्णु
|
विष्णु
|
वृहस्पति
|
ब्रह्मा
|
इन्द्र
|
शुक्र
|
इन्द्र
|
इन्द्राणी
|
शनि
|
यम
|
प्रजापति
|
राहु
|
काल
|
सर्प
|
केतु
|
चित्रगुप्त
|
ब्रह्मा
|
इस शास्त्रीय आदेश से यह सिद्ध होता है कि
छायाग्रह प्रधान—राहु के अधिदेवता है काल और प्रत्यधिदेवता हैं सर्प । राहु के
अधिदेवता और प्रत्यधि देवता के युग्म पद को ही कालसर्प नाम दिया गया आधुनिक
ज्योतिषियों द्वारा । प्रसंगवश ये भी स्पष्ट कर दें कि राहु का नक्षत्र भरणी होता
है और भरणी के स्वामी हैं काल (यम) तथा केतु का नक्षत्र है आश्लेषा, जिसके स्वामी
हैं सर्प । इन्हीं दोनों नक्षत्र-स्वामियों के योग से बनता है-- कालसर्पयोग ।
प्रसंगवश यहां एक और बात समझ लेने जैसी है—ये राहु नामक
छायाग्रह हैं कौन ?
एक समय, विचारकों का एक ऐसा वर्ग भी था जो राहु-केतु के
अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता था, जैसे कि आज एक वर्ग कालसर्पदोष को स्वीकार
नहीं कर रहा है । यानी कि मुख्य सूर्यादि सात ग्रह ही मान्य थे । उन्हीं के संचरण
और प्रभाव का आकलन किया जाता था ज्योतिर्विदों द्वारा । यहां तक कि कुछ प्राचीन
ज्योतिर्विद राहु-केतु का दृष्टि-विचार भी नहीं करते । कुछ ज्योतिर्विद अन्य
ग्रहों की भांति ही सप्तम दृष्टि को पूर्णदृष्टि मानते हैं, किन्तु एक प्रमाणिक दृष्टि-आदेश
भी मिलता है—
सुत मदन नवान्ते पूर्ण दृष्टि तमस्य, युगल दशम गेहे चार्द्ध
दृष्टिं वदन्ति ।
सहज रिपु पश्यन् पाददृष्टिं मुनीन्द्राः, निज भवन मुपेते लोचनांधः
प्रदिष्टः ।।
यानी पंचम, सप्तम, नवम और द्वादश को राहु पूर्ण दृष्टि से देखते
हैं । द्वितीय और दशम भाव को आधी दृष्टि से , तृतीय और षष्टम भाव को पाद (चौथाई) दृष्टि
से देखते हैं, तथा एक खास बात ये है कि निज भवन (कन्या राशि) में होने पर
दृष्टिहीन हो जाते हैं । ठीक यही नियम केतु के साथ भी लागू होता है । अन्तर सिर्फ
निज भवन (मीनराशि) का होगा, यानी केतु मीनराशि पर होने पर अन्धे हो जायेंगे, या
कहें दृष्टिदोष नहीं लगेगा उनका । स्वभाव के मामले में राहु शनि की तरह और केतु
मंगल की तरह व्यवहार करते हैं । बलाबल के विचार से शनि की तरह ही ये दोनों भी
संध्या बलीग्रह हैं । एक और बात पर ध्यान रखना चाहिए—भले ही राहु-केतु सदा विपरीत
चलते हों, यानी अभी मेष राशि पर हैं, तो आगे मीन राशि पर चले जायेंगे, न कि वृष
राशि पर । किन्तु दृष्टि विचार करते समय विपरीत गणना न करके सीधी गणना ही करनी
चाहिए । ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति देख
तो रहा है सामने, किन्तु चलता हो पीछे की ओर ।
दीर्घकालिक परिणाम-परीक्षण और अनुभव के आधार पर बहुत बाद में ज्योतिषियों
द्वारा इन्हें नवग्रहों में स्थान दिया गया—छायाग्रह कहते हुए । ठीक कुछ वैसा ही
जैसे कि आजकल मॉर्डेन स्ट्रॉलॉज़र अरुण, वरुण और यम (यूरेनश,नेप्चून,प्लूटो) को भी
शामिल कर लिए हैं कुण्डली विचार में ।
ग्रह-कक्षाओं का यदि विचार करें तो हम पाते हैं कि राहु और केतु
सदा एक समान—ठीक एक दूसरे के विपरीत यानी १८०डिग्री पर अन्तरिक्ष में निरन्तर गतिशील रहते हुए १८ वर्ष ७ महीने १८ दिन और १५ घंटे
में मेषादि द्वादश राशि-पथ पर परिभ्रमण कर लेते हैं, यानी किसी एक राशि से गुजरने
में १ वर्ष ६ महीने १९ दिन २ घंटे १५ मिनट लगते हैं । फिर भी इनकी गति शनि की तुलना में काफी अधिक है । क्यों कि
उन्हें राशि-पथ का एक चक्कर लगाने में पूरे तीस वर्ष लग जाते हैं । एक और खास बात
ये होती है कि शनि मार्गी-वक्री भी होते रहते हैं यानी आगे बढ़ते हुए पीछे भी चलने
लगते हैं । जब कि राहु-केतु के साथ ऐसा कदापि नहीं होता । गति के मामले में
राहु-केतु सूर्य-चन्द्रमा के ठीक विपरीत हैं, यानी कि सूर्य-चन्द्रमा कभी वक्रीगति
नहीं करते और राहु-केतु कभी मार्गी गति नहीं करते । शेष सभी ग्रह वक्री-मार्गी
होते रहते हैं । ग्रहों के वक्री-मार्गी होने का रहस्य भी बड़ा अद्भुत है । सच
पूछें तो वे वक्री वा मार्गी होते नहीं है, प्रत्युत हमें (पृथ्वी वासियों को) ऐसा
प्रतीत होता है । ठीक कुछ-कुछ वैसे ही जैसे एक्सप्रेस ट्रेन और पैसिंजर ट्रेन
समान्तर रुप से अलग-अलग ट्रैक पर एक ही दिशा में चलती हुयी किसी स्टेशन पर आगे हो जाये
किसी स्टेशन पर पीछे । इस रहस्य को स्वतन्त्र
रुप से समझना होगा, क्यों कि जरा जटिल विषय है । फिलहाल तो हम राहु-केतु के जंजाल
से बाहर आने की बात सोच रहे हैं । अतः उनकी ही चर्चा करें ।
राहु-केतु छायाग्रह हैं और सदा एक दूसरे के विपरीत यानी १८०डिग्री
पर ही रहते हैं । वस्तुतः ये दोनों ग्रहकक्षा में दो संपात विन्दु हैं । खगोलविदों
का मानना है कि ऐसे अनेक संपात विन्दु बनते हैं या बन सकते हैं । तो क्या अनेक राहु-केतु कहे जायेंगे ? इन बातों की गहन जानकारी के लिए खगोलशास्त्र का अवलोकन करना
चाहिए ।
राहु-केतु की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक रोचक पौराणिक प्रसंग
भी है, जिसे कथाक्रम में प्रायः लोग जानते भी हैं ।
देवासुर संग्राम में देवताओं की सदा हार होती थी । वे मारे भी
जाते थे । अतः अमृत प्राप्ति की योजना बनी ताकि अमरत्व प्राप्त हो जाए । किन्तु इस
जटिल कार्य में दानवों का साथ लेना अपरिहार्य था । लाचारी भी थी । क्योंकि उनके
बिना समुद्र-मन्थन जैसा दुरूह कार्य कदापि सम्भव ही नहीं था । फिर भी देवताओं ने
एक कुटिल योजना बनायी । मन्द्राचल को मथानी, कश्चप को आधार, वासुकि नाग को रस्सी बनाकर सर्पफन की ओर
दानवों को और पूंछ की ओर स्वयं देवगण लग गए समुद्र-मन्थन कार्य में । बहुत से दानव
तो वासुकि के फुफकार और दंश से ही काल-कवलित हो गए । पर्याप्त श्रम के पश्चात्
लक्ष्म्यादि नवरत्नों के अन्त में भगवान धनवन्तरि का उद्भव हुआ अमृत कलश सहित, जिसे
पान करने की होड़ लग गयी । उसी क्रम में वेष बदल कर दानव कुलजात सिंहिका-पुत्र
राहु भी देवगण की पंक्ति में बैठ गया । बैठा ठीक सूर्य और चन्द्रमा के बीच में ।
पार्श्व संसर्ग से सशंकित होकर दद्मवेषी राहु को इन दोनों ने पहचान लिया और
अमृतपान का झगड़ा मिटाते, अमृतपान कराते विष्णु के मोहिनी रुप को ईंगित भी कर दिया
। ऐसा ठीक उस समय हुआ जिस समय राहु दानव की अँजलि में मोहिनी रुपधारी विष्णु
द्वारा अमृत उढ़ेला जा चुका था और चट उसे पान करने हेतु अपनी गर्दन भी झुका ली थी
राहु ने । अमृत की कुछ बूंदे हलक तक ऊतर चुकी थी । इसी अवस्था में विष्णु ने सुदर्शन
चला दिया, जिसके परिणाम स्वरुप राहु का सिर धड़ विहीन हो गया । सुदर्शनचक्र के
प्रभाव से सिर कट कर धड़ से विलग तो अवश्य हो गया किन्तु सिर और धड़ दोनों
स्वतन्त्र रुप से जीवित रहे, जो आज भी सृष्टि में अपनी धाक जमाये हुए हैं । इनके
विरोध में चुंकि सूर्य और चन्द्रमा का विशेष हाथ रहा, इस कारण इनके साथ स्थायी
दुश्मनी बन गयी और सूर्य एवं चन्द्रग्रहण के रुप
में इनके स्पर्श की कथाएं पौराणिक चर्चा का विषय बनी हुयी है ।
अब मूल विषय पर आते हैं । राहु-केतु १८०डिग्री पर
सदा भ्रमणशील रहते हैं । इस प्रकार जन्मकुण्डली के द्वादशभाव( ३०डिग्री X १२ भाव = ३६०डिग्री ) को सीधे-सीधे दो
समान भागों में बांट देते हैं। यानी राहु
यदि मेष राशि पर हुआ तो निश्चित है कि केतु तुलाराशि पर ही होगा । इस प्रकार
राहु-केतु के बीच में (अधीन) कुण्डली के बारह में से सात भाव सदा रहेंगे ही । अब ग्रहगति संयोग से यदि किसी भाग के (इन सात के
मध्य ही शेष सभी सूर्यादि ग्रह बैठ गए, यानी कि मेष से तुला के अन्दर ही या कहें
तुला से मेष के अन्दर ही बैठे होंगे तो इस प्रकार हम कहेंगे कि राहु-केतु अथवा
केतु-राहु के गिरफ्त में सभी ग्रह आगए हैं । इन दोनों ही स्थिति में ग्रहों एवं
उन-उन भावों पर राहु-केतु का प्रभाव अवश्य पड़ेगा । न ग्रहों की स्वतन्त्र सत्ता
रह जायेगी और भावों का ही अपना प्रभुत्व । पापग्रह राहु-केतु वा केतु-राहु ग्रसित
सभी ग्रहों का जातक पर पड़ने वाला परिणाम अन्य स्थितियों की तुलना में बिलकुल भिन्न
हो जायेगा —ये बात सुनिश्चित है । इसमें कोई दो मत हो ही नहीं सकता ।
इस प्रकार बनने वाली ग्रह-स्थिति की जन्मकुण्डली ही कालसर्पयोग-
कालसर्पदोष ग्रसित कुण्डली कही जाती है । सभी ग्रहों की अपनी-अपनी निर्धारित गतियों
के अनुसार कालसर्पयोग बनाने जैसी स्थिति वर्ष में कई बार आती है । किन्तु इसमें
मुख्य भूमिका चन्द्रमा की ही होती है, क्यों कि ग्रहकक्षा में ये पृथ्वी से सर्वाधिक
समीप हैं । इनकी गति भी सबसे तेज है— निज परिपथ पर ।
इसे ठीक से समझने हेतु विक्रमाब्द २०७३ के पञ्चाङ्ग का अध्ययन
किया । इसमें देखा गया कि पूरे वर्ष में
सात बार ऐसी ग्रह-स्थिति बनी । १७ से २० अगस्त २०१६ के बीच ८१ घंटे १५ मिनट के लिए कालसर्पयोग की स्थिति बनी । इसी भांति आगे सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर और जनवरी २०१७
(सम्बत् के अन्त-अन्त तक) में भी ऐसी ही स्थितियां बनी । इस विस्तृत कालावधि में
जन्म लेने वाले जातक को कालसर्पदोष से पीड़ित होना पड़ा । और इस प्रकार बिलकुल स्पष्ट है कि प्रत्येक
चान्द्रवर्ष में काफी अधिक संख्या में लोग इस दोष से प्रभावित भी होते ही हैं- यह
भी स्वाभाविक है ।
विभिन्न भावों में मेषादि राशियों को रहने के परिणाम स्वरुप
कालसर्पदोष के परिणामों में भी अन्तर कहा गया है और इसे ही कालसर्प के विविध
प्रकारों की श्रेणी में रखा गया है । भाव परिवर्तन और भावगत आन्तरिक ग्रह-स्थिति
तथा राहु से केतु के बीच व केतु से राहु के बीच बनने वाली अनेक स्थितियों को ध्यान
में रखते हुए कालसर्पदोष के कई स्वरुप और तदनुसार विविध परिणाम भी होंगे ही ।
जिसकी चर्चा आगे अध्यायों में की जायेगी । अस्तु ।
---)(---
क्रमशः जारी...
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