(दूसरे अध्याय का पहला भाग )
द्वितीय अध्याय
कालसर्प
योग के प्रकार और परिणाम
गत प्रसंग में कालसर्पदोष नामक
ग्रह-योग से परिचय कराया गया । अब यहां इसके प्रकारों की चर्चा की जायेगी । व्यावहारिक
रुप से विभिन्न कुण्डलियों में इन्हें यथास्थान रख कर स्पष्ट भी किया जायेगा ।
राशिचक्र में बारह राशियां हैं
। ये राशियां ही उदय-क्षितिज पर लग्न संज्ञित होती हैं । राशीनामुदयो लग्नः
वचनानुसार लग्न सारिणी में लग्न भी बारह ही कहे गए हैं । इस प्रकार बारह लग्नों के
बारह प्रकार के कालसर्पयोग बनेंगे । और आगे १२x१२=१४४ प्रकार भी हो जायेंगे । अब अनुक्रम से देखें तो जिस तरह राहु के पक्ष
से विचार करने पर उक्त १४४ स्थितियां बनी, उसी भांति केतु के पक्ष से विचार करने
पर भी वैसी ही १४४ स्थितियां भी बनेंगी ही । इस प्रकार कुल मिलाकर २८८ प्रकार के
कालसर्प घटित हो सकते हैं । थोड़े और गहराई में जायें तो कह सकते हैं कि ग्रह-कक्षा में संपात विन्दुओं को यदि
जिम्मेवार मानते हैं, तो ऐसी अनेक- अगनित स्थितियां भी बन सकती हैं । किन्तु इनमें
अति विशिष्ट बारह प्रकारों की ही चर्चा की जाती है और फलादि विचार एवं उपचार क्रम
में इनका ही प्रयोग होता है ।
यथा— अनन्त, कुलिक, वासुकि, शंखपाल, पद्म, महापद्म,
तक्षक, कर्कोटक, शंखनाद, पातक, विषाक्त और शेषनाग नामक कालसर्पयोग ।
अब यहां आगे किंचित उदाहरण से
विचार करें— मेषलग्न की कुण्डली में क्रमशः मेषादि द्वादश राशियों में वामावर्त
परिभ्रमण कराते हुए राहु को मीनराशि (बारहवें भाव) तक ले जाते हैं । स्वाभाविक है
इससे ठीक सातवें घर में बैठा केतु भी इसी तरह दक्षिणावर्ती परिभ्रमण करेगा क्रमशः
तुला से वृश्चिकादि बारह राशियों में । और इस प्रकार छः+छः=बारह प्रकार के अनन्तादि कालसर्पयोग बन जायेंगे । पुनः यदि
ऐसी ही क्रिया वृष को लग्न मानकर करेंगे तो इसी प्रकार (इसी विधि से) छः+छः=बारह प्रकार के कालसर्पयोगों का सृजन हो जायेगा । और फिर इसी तरह बढ़ते
हुए मीन तक चले जायें और फिर मीन से विपरीत क्रम से भी ऐसे ही चलें तो सभी प्रकार
स्पष्ट होते चले जायेंगे । राहु-केतु की इन स्थितियों को आगे दो चित्रों के माध्यम
से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है । पहले चित्र में राहु लग्न में बैठा है
और क्रमशः द्वितीय से षष्ठम् पर्यन्त उसकी सात स्थितियां दीख रही है । इसी भांति
सप्तम से द्वादश पर्यन्त केतु की स्थिति दीख रही है । तथा दूसरे चित्र में सारी
स्थितियां ठीक विपरीत स्थिति में हैं ।
चुंकि मुख्य रुप से सारे प्रयोग और उपचार बारह प्रकारों पर ही
है, इस कारण आगे इन्हीं बारहों की विशेष चर्चा की जायेगी ।
(१)
अनन्त कालसर्पयोग—
लग्न में राहु और सप्तम में केतु की अवस्थिति से बनने वाले योग
को अनन्त कालसर्प योग कहते हैं । नीचे दी गयी कुण्डली में हम देख सकते
हैं कि लग्न में मेष राशि पर राहु बैठे हैं और सप्तमस्थान (भाव) में तुलाराशि पर
केतु बैठे हैं । अब इन दोनों के बीच में यदि शेष सातों ग्रह कहीं न कहीं बैठ जायें
तो कालसर्प योग की स्थिति बन ही जायेगी ।
ध्यातव्य है कि यहां मेषलग्न
को आधार मान कर राहु-केतु की स्थिति दर्शायी गयी है । इसी प्रकार लग्न में वृष से
मीन पर्यन्त की कोई भी राशि होगी, तो भी बनने वाला योग कालसर्पयोग ही कहलायेगा ।
मुख्य कारण स्पष्ट है कि राहु-केतु के गिरफ़्त में बाकी के सभी ग्रहों का आ जाना
ही कालसर्पदोष का सृजन कर देता है । किन्तु हां,यह भी ध्यान रखने योग्य है कि
भिन्न-भिन्न राशियों या भिन्न-भिन्न भावों के अन्तर से बैठने वाले ग्रहों की
स्थिति पर जातक के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव बिलकुल भिन्न होंगे । कहने का तात्पर्य
ये है कि अनन्तकालसर्पदोष प्रभावित सभी जातकों का जीवन एक समान सुखमय या कि दुःखमय
कदापि नहीं हो सकता । क्यों कि उनकी अन्यान्य ग्रह, भावादि, बलादि, दृष्ट्यादि तो
बिलकुल भिन्न होंगे । किन्तु हां, दोष-प्रकार का नाम सबका एक ही कहा जायेगा –
अनन्तकालसर्पदोष ।
इस योग की स्थिति में जातक
अस्थिर बुद्धि, दुष्टचित्त, मानसिक रुप से बिलकुल अशान्त, कपटी, लम्पट, मिथ्या भाषी
एवं षड़यन्त्रकारी स्वभाव का होता है । ऐसे जातक का लगभग पूरा जीवन न्यायिक
विसंगतियों में व्यतीत होता है । पारिवारिक जीवन काफी दुःखमय हुआ करता है । नौकरी,
पद, प्रतिष्ठा,व्यवसाय आदि सभी कार्य क्षेत्रों में काफी श्रम करने के पश्चात् भी
अनुकूल सफलता नहीं मिलती । स्वयं तो मिथ्याचारी होता ही है, अन्य मिथ्याचारियों के
षड़यन्त्र का भी शिकार अकसर हो जाया करता है ।
(२) कुलिक कालसर्पयोग— द्वितीय स्थान से अष्टम स्थान तक राहु-केतु के आगोश
में अन्य सभी ग्रहों के आने से कुलिक नामक कालसर्पयोग बनता है ।
इस स्थिति को नीचे की कुण्डली में देखा जा सकता है । वृष राशि में राहु हैं
और तदनुसार उससे सातवें भाव में- वृश्चिक राशि पर केतु विराजमान होकर कालसर्प दोष
की स्थिति पैदा कर रहे हैं ।
कुलिक नामक
कालसर्पयोग में चुंकि द्वितीय और
अष्टमभाव (धन एवं आयु) सीधे प्रत्यक्ष तथा इस बीच के अन्य भाव अप्रत्यक्ष
रुप से प्रभावित होते हैं, इस कारण इसका सीधा प्रभाव जातक के धन-सम्पदा और
स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, या कहें वाधित करता है । धन का संचय तो प्रायः
दुर्लभ और दुरुह हो ही जाता है, सामयिक व्यय- व्यवस्था हेतु भी प्रायः चिन्ताजनक
स्थिति बन जाती है । लगभग आजीवन संघर्ष-पूर्ण व्यतीत होता है । सामाजिक अपयश और
अपमान का सामना करते हुए, अवांछित, अकारण कलह और कौटुम्बिक विविध परेशानियों का भी
सामना करना पड़ता है । पारिवारिक, यहां तक कि दाम्पत्य जीवन भी सुखमय नहीं होता । या
तो विवाह होने में ही अनेक वाधायें आती हैं, या यदि विवाह हो भी जाये तो कभी-कभी
तो विच्छेद तक की स्थिति भी उत्पन्न हो जासकती है- खास कर राहु-केतु वा सप्तमेश के
शासन कालों में—ऐसी आशंका विशेष रुप से बन सकती है । जातक की वाणी और व्यवहार में
भी कठोरता आ जाती है, क्यों कि वह सदा विषम परिस्थितियों से गुजरता रहता है ।
पुरुष कुण्डली में इस प्रकार के योग होने पर स्त्री (पत्नी) कुरुप, कटुभाषिनी, झगड़ालू
प्रकृति और कभी-कभी तो चरित्रहीना भी मिल जाती है । विश्वासघातिनी, अनपढ़, गवांर, अति
कामी स्वभाव वाली और निर्मोही होने की स्थितियां प्रायः लक्षित होती हैं । सन्तान
सुख या तो प्राप्त ही नहीं होता या फिर सन्तान होकर भी मनोनुकूल नहीं होती । इस
प्रकार सन्तान-पक्ष से भी येन-केन-प्रकारेण पीड़ादायी स्थिति ही होती है । इस
प्रकार जातक प्रायः टूट सा जाता है जीवन-संघर्ष करते-करते । स्वास्थ्य में निरन्तर
गिरावट होते रहता है । मूत्रवह संस्थान के रोग, धातुक्षीणता, गुर्दे की व्याधि, शरीर
में अत्यधिक मस्से आदि होना भी प्रायः ऐसे जातकों में देखा जाता है । जातक स्वयं
भी चरित्रहीनता की ओर अग्रसर होता जाता है । अनेक स्त्रियों से शारीरिक संम्पर्क
भी बन सकते हैं । बदचलन के कारण सामाजिक
अप्रतिष्ठा कई बार झेलनी पड़ती है । पारिवारिक, कौटुम्बिक, मित्रवर्गादि से भी सदा
अनबन बना करता है । पति का वियोग भी असमय में झेलना पड़ सकता है । या तो पिता की
मृत्यु अल्पावधि में (अल्पवय में) होजाती है, या पिता से विशेष तनाव की स्थिति बन
जाती है । कुल मिलाकर जातक अपने जीवन से उबने लगता है ।
क्रमशः जारी....
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