कालसर्पयोगःःकारण और निवारण भाग तीन

(गताश से आगे....दूसरे अध्याय का शेषांश)


   ()   वासुकिकालसर्पयोग—  जन्मकुण्डली के तृतीय स्थान से नवम स्थान तक राहु-केतु के शिकंजे में होना, यानी तीसरे भाव में राहु हो और तदनुसार नौवें भाव में केतु हो तो वासुकि नामक कालसर्पयोग का सृजन होता है । इस स्थिति को नीचे के चित्र से दर्शाया गया है—


   चुंकि इस योग में जन्मकुण्डली का तीसरे से लेकर नौंवें भाव तक राहु-केतु के अधीन रहता है यानि पराक्रम या सहज भाव से लेकर धर्मभाव तक प्रभावित रहता है, इस कारण वासुकि नामक कालसर्पयोग का जातक भाई-बहनों के साथ-साथ अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी सदा कष्ट पाता है । मित्रता का सुखलाभ भी नहीं मिल पाता है सही ढंग से । नौकरी पेशे में, या अन्य कार्यों में भी सदा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । नौकरी मिलने में (अनूकूल रोजकार में) कठिनाई तो होती है, बार-बार पदोन्नति या नीचे गिरावट की स्थिति भी बनती है । सीधे कहें कि पराक्रमी तो होता है, पर सफलता नहीं मिलती । मूल निवास स्थान से दूर रहते हुए नाना प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं । हो सकता है कि अन्य सुग्रहयोग के कारण विदेश की यात्रा कर ले, किन्तु वहां भी सुख-शान्ति, अर्थलाभ, मान-प्रतिष्ठा की सम्यक् प्राप्ति दुर्लभ ही होती है । कानूनी मामलों में भी फंसना-उलझना पड़ सकता है । धर्मस्थान में पापग्रह केतु जो कि स्वभाव से मंगल की तरह है, धार्मिक मामलों में भी पीछे ही रखता है । या कहें नास्तिक स्वभाव का होता है । पराक्रम भाव में बैठा राहु मिहनत तो कराते रहता है किन्तु सातवें बैठा केतु उसकी सफलता में बाधा भी उतनी ही उत्पन्न करता है । उधर धर्म भाव पर राहु की पाप दृष्टि नास्तिक या फिर बिलकुल अन्धभक्त की स्थिति भी बना देता है । कुल मिलाकर देखा जाये तो ऐसे जातक को जीवन भर, खास कर राहु-केतु के शासन काल में विशेष कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।

()    शंखपाल कालसर्पयोग— चतुर्थ स्थान से दशम स्थान (मातृ / सुख भाव से कर्म भाव) तक राहु-केतु के प्रभाव क्षेत्र में होने की स्थिति वाली जन्म-कुण्डली में शंखपाल नामक कालसर्पयोग सिद्ध होता है । इसे नीचे के चित्र से देखा-समझा जा सकता है—


    ध्यान देने की बात है कि ऐसी कुण्डली में जातक के सुख और कर्म दोनों पापग्रह पीड़ित होते हैं । भूमि, भवन, वाहन, माता, सुख, सौभाग्य, पिता, कर्म, नौकर-चाकर, अनुगामी इत्यादि की स्थिति प्रायः प्रतिकूल रहती है । नौकरी पेशा वाले ऐसे जातक को जरा भी स्थिरता नहीं मिलती । सदा यहां-वहां भटकने, किसी एक नौकरी में न टिक पाने,स्वयं छोड़ देने या निकाल देने जैसी स्थिति प्रायः बनती रहती है । व्यापार-क्षेत्र में यदि जातक आगे बढ़ना चाहता है तो वहां भी ऐसी ही स्थिति बनती है । कभी कुछ, कभी कुछ व्यवसाय परिवर्तन करते रहता है और सबमें निराशा और घाटे का ही सामना करना पड़ता है । पढ़ाई-लिखाई के समय भी तरह-तरह की बाधायें आती है । अग्रशिक्षा भी सन्तोषजनक नहीं मिल पाती । स्वास्थ्य भी प्रतिकूल बना रह सकता है ।

      ()     पद्मकालसर्पयोग—  पंचम यानी शिक्षा-सन्तान आदि के भाव से लेकर एकादश (आय) स्थान तक राहु-केतु के अधीन होने वाले योग को पद्मकालसर्पयोग के नाम से जाना जाता है । इसे नीचे के चित्र से देखा-समझा जा सकता है—


   पंचम यानी शिक्षा और सन्तान ये दोनों या फिर इनमें कोई एक तो अवश्य ही वाधित रहेगी । हालाकि ये परिणाम इस पर विशेष रुप से निर्भर करता है कि राहु के साथ और कौन है या भाव में राहु अकेला है । भावगत राशि क्या है - ये भी अति महत्त्वपूर्ण है । ऐसे दोष से पीड़ित जातक को पारिवारिक सुख का पूर्ण अभाव रहता है । अन्य ग्रहस्थिति यदि साथ दी तो हो सकता है कि वह परिव्राजक भी हो जाये । परिवार को त्याग कर चल दे । हालाकि वहां भी शान्ति-लाभ उसे नहीं मिलेगा । सन्तान या तो होगी ही नहीं या होगी तो दुःखदायी ही होगी । सन्तान से सुख की आशा नहीं ही रखी जा सकती । खासकर वृद्धावस्था (राहु-केतु काल) तो विशेषकर सन्तान के कारण कष्टदायी हो सकता है । कारावास की भी स्थिति बन सकती है । अन्य कानूनी मामलों में उलझना पड़ सकता है । कदम-कदम पर शत्रुओं का सामना करना पड़ सकता है । किसी बड़े षड़यन्त्र का शिकार होना पड़ सकता है । परवश जातक स्वयं भी षड़यन्त्रकारी हो सकता है । ऐसी कुण्डली वाले जातकों की पत्नी शायद ही सही चरित्र वाली हो । सौभाग्यवश चरित्रवती हुयी यदि तो भी सच्चा स्नेह उससे मिलने की आशा कम ही रहती है । विशेषकर यदि सप्तम भाव भी किसी प्रकार पीड़ित हुआ तो स्थिति और भी चिन्ताजनक हो सकती है । आय स्थान में बैठा केतु जुए, सट्टे, शेयर बाजार की ओर घसीट कर भारी नुकसान पहुँचा सकता है । गुप्तरोगों का भी शिकार होना पड़ सकता है । किसी रोग के हो जाने पर उसका निदान और चिकित्सा भी सहज नहीं हो पाता ।

()  महापद्मकालसर्पयोग— षष्टम भाव से द्वादश भाव तक राहु-केतु के अधीन होने पर महापद्म नामक कालसर्पयोग का सृजन होता है । इसे नीचे की कुण्डली से स्पष्ट किया गया है—

इस श्रेणी के जातक का चरित्र प्रायः संदेहास्पद होता है । प्रेम-प्रसंगों में प्रायः बाधायें आती हैं । किसी एक के साथ आजीवन दाम्पत्य निर्वाह असम्भव सा होता है । जीवनसाथी के चुनाव में एकाधिक बार धोखा हो सकता है । इसके लिए जातक स्वयं जिम्मेवार होता है, न कि उसका जोड़ीदार । प्रेम का हाथ बढ़ाना और थोड़े ही दिनों में पीछे हट जाना, या उसे धोखा देना ऐसे जातक की आदत सी होती है । सच पूछें तो ऐसे जातक को स्वयं पर भी भरोसा नहीं होता । जीवन में बार-बार विभिन्न मामलों में निराशा हाथ लगती है । शत्रु वहुतायत से होते हैं और प्रायः शत्रुओं से उसे हार खानी पड़ती है । रोग-व्याधि के मामले में भी ऐसी ही स्थिति बनी रहती है । कोई न कोई व्याधि हमेशा ग्रसित किए रहती है । रोग का सही निदान भी कठिन होता है । छोटा, सामान्य सा दीखने वाला रोग भी आगे चल कर भयानक हो जाता है । रोग-शत्रु आदि के कारण आर्थिक क्षति भी काफी उठानी पड़ती है ।  यूं कहें कि महापद्मकालसर्प पीड़ित जातक आजीवन रोग और शत्रुओं से घिरा रहता है । एक से किसी तरह पिंड छुड़ाता है , तब तक दूसरा आ घेरता है । परिणामतः निराशा होती है । हताशा होती है । और कभी-कभी तो आत्महत्या करने का भी मन बना लेता है । किन्तु षष्ठस्थ राहु आत्महत्या भी करने नहीं देता । पत्नी वियोग (पति वियोग) का सामना करना पड़ सकता है । लम्बे समय तक विरह वेदना में गुजारने के पश्चात यदि कोई रास्ता (विकल्प) सूझता भी है तो उसमें सफलता नहीं मिल पाती । पति-पत्नी की मनोनुकूलता बिलकुल नहीं होती । हमेशा अकारण बैरभाव, विपरीत विचारों की स्थिति बनी रहती है । धन का अकारण अपव्यय होता रहता है । आय भी सन्तोषजनक नहीं होती । सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, शारीरिक प्रायः हर प्रकार से दुःख ही दुःख झेलना पड़ता है ।

            ध्यातव्य है कि अबतक लग्न से लेकर षष्ठम भाव तक राहु का परिभ्रमण हो चुका है— अलग-अलग जातकों की जन्मकुण्डली में । तदनुसार केतु की स्थिति सप्तम भाव से परिभ्रमण करते हुए द्वादश भाव तक क्रमशः बनी है । अब तक द्वादशभाव चक्र की आधी परिक्रमा हो चुकी है । अब आगे ठीक विपरीत सी स्थितियां बनने जा रही है । जैसा कि हम अगले जन्मांक में ही देखेंगे—छः घर पीछे राहु की जो स्थिति थी, वही स्थिति अब केतु की होने जा रही है । इस प्रकार पुनः छः , पूर्व छः के ठीक विपरीत स्थितियां हमारे सामने होंगी । अब क्रमशः केतु वहां होगें जहां राहु हुआ करते थे पहले और राहु वहां होंगे जहां केतु हुआ करते थे । भाव तो वही होंगे, किन्तु भावस्थ ग्रह विपरीत होते जायेंगे ।
क्रमशः जारी.........

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