कालसर्पयोगःःकारण और निवारण- भाग चार

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दूसरे अध्याय का शेषांश...


()  तक्षक कालसर्पयोग— सप्तम स्थान में राहु और लग्न में केतु के विराजमान होने से केतु और राहु के गिरफ्त में जब शेष भाव आते हैं, तब तक्षक नामक कालसर्पयोग का सृजन होता है । यह ठीक विपरीत स्थिति है अनन्तकालसर्पयोग से । यानी सप्तम में सिर है और प्रथम में पूंछ या कहें कबन्ध भाग । इसे नीचे की कुण्डली में देखा जा सकता है—




   इस प्रकार की कुण्डली में सप्तम स्थान विशेष पीड़ित है । पीड़ित तो लग्न भी है । जीवन-साथी का सुख प्रायः नहीं ही मिल पाता । वैवाहिक सम्बन्ध वाधित होता है, या विवाह होता ही नहीं । यदि हुआ भी तो अनुकूल स्थिति नहीं बन पाती । दोनों एक दूसरे पर चरित्रहीनता का आरोप लगाते हुए जीवन गुजारते हैं । ऐसे जातक पुरुष प्रायः परायी स्त्री में अनुरक्त होते हैं । पूरा जीवन अस्त-व्यस्त और संघर्षमय होता है । हो सकता है एकाधिक बार जेल-यात्रा भी करनी पड़े । शत्रुपक्ष की सदा प्रबलता बनी रहती है । जननांगों के रोग पीड़ित करते हैं । और कुछ नहीं भी तो कम से कम मधुमेह (सूगर) की बीमारी तो अवश्य होगी ही । मौत का कारण भी ऐसे लाइलाज रोग ही होंगे । लेन-देन के मामले में सदा धोखा उठाना पड़ेगा । उधार दिया हुआ पैसा प्रायः डूब जायेगा । इस कारण ऐसे जातकों को उधार देने से बंचना चाहिए । जीवनसाथी का विलगाव ही नहीं जीवन में आनेवाले साझेदारों, मददगारों से भी नुकसान ही उठाना पड़ सकता है । ऐसे लोग यदि व्यापार करते हैं, तो उन्हें बहुत सोच-समझ कर कार्य करना चाहिए । एकल व्यापार ही करें तो ज्यादा अच्छा है । क्यों साझेदारी में हानी की अधिक आशंका होती है ।

()  कर्कोटक कालसर्पयोग— द्वितीय भाव में केतु और अष्टम भाव में राहु का होना कर्कोटक कालसर्पयोग का सृजन करता है । यह ठीक विपरीत स्थिति है- कुलिककालसर्पयोग की । यानी अष्टम में सिर है और द्वितीय में पूंछ । इसे नीचे की कुण्डली में देखा जा सकता है—




   ऐसे जातक का भाग्य सदा सोया ही रहता है । सोना छूने पर भी मिट्टी होने जैसी स्थिति जीवन में कई बार बनती है । जिसके कारण निराशाओं का सामना करना पड़ता है । नौकरी पेशा में यदि हो तो अकारण कई बार पदोन्नति के वजाय पदावन्नति की स्थिति आ जाती है, जिसे सम्भालना मुश्किल होता है । नौकरी बिलकुल छूट भी जा सकती है । आरोपों का सामना करना पड़ता है । आरोप भी प्रायः अकारण हुआ करते हैं, जिसे प्रमाणित करना कठिन होता है । पैतृक सम्पदा या तो होती ही नहीं, या होती भी है, तो उचित भोग-लाभ नहीं हो पाता । भाइयों में विवाद वश सम्पत्ति का भारी क्षय होता है । संयोग से यदि पैतृक सम्पदा हाथ लग भी जाए तो आगे चल कर ऐसी स्थिति बनती है कि वह अपने ही हाथों उसे नष्ट कर देता है, या ऐसी स्थिति बनती है कि सम्पत्ति से हाथ धोना पड़े । ऐसी स्थिति काफी कष्टकर होती है । अपनी कमाई न के बराबर हो सकती है, जिसके कारण सामान्य जीवनयापन भी कठिन हो जाता है । किसी तरह अन्य ग्रह-प्रभावों से कुछ कमा-खा भी लिया तो संचय का खाता तो शून्य ही बना रहता है । बहुत प्रयास करके यदि कुछ जोड़-बटोर लेता है यदि तो भाग्य झिट्टी मार कर छीन लेता है, यानी विवश होकर जमापूंजी को खर्च कर देना पड़ता है ।

   ऐसे जातकों को चाहिए कि बिलकुल नगद या चल सम्पदा के रुप में संचय कदापि न करें । चतुर्थ भाव (भूमि भाव) यदि किंचित अनुकूल हो तो अचल सम्पत्ति बनाने का प्रयास करें और वो भी जीवनसाथी या सन्तान के नाम पर रखे ताकि किंचित स्थायित्व आ सके ।
क्रमशः...

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