कालसर्पयोगःःकारण और निवारण-- भाग पांच

गतांश से आगे....


() शंखनाद कालसर्पयोग— तृतीय भाव में केतु और नौंवे भाव में राहु की अवस्थिति होने पर शंखनाद नामक कालसर्पयोग का सृजन होता है । यह स्थिति वासुकि नामक काल सर्पयोग के ठीक विपरीत की है । इसे नीचे की कुण्डली में स्पष्ट देखा जा सकता है—


भाग्यहीनता सर्व प्रधान दुर्गुण है ऐसे कालसर्पयोग वाले जातक का । कर्म तो खूब करता है । सही दिशा में भी करता है, किन्तु भाग्य बार-बार उससे छल करते रहता है । कर्मवादी को जोरदार झटका लगता है । और थकहार कर भाग्य को कोसना पड़ता है । पिता का सुख न के बराबर मिलता है । पिता या तो असमय में ही गुजर जाता है, या फिर पिता से उचित स्नेह-सम्बन्ध नहीं रहता । व्यापार, व्यवसाय, नौकरी आदि जो भी आजीविका का क्षेत्र हो प्रायः वाधा या विवाद की स्थिति बनी रहती है । अधिकारियों से तालमेल नहीं बैठती प्रायः । कानूनी या प्रशासनिक कठिनाइयां बारबार झेलनी पड़ सकती है । सामान्य सुख-प्राप्ति हेतु भी ऐसे जातक को काफी संघर्ष करना पड़ता है ।

       (१०) पातक कालसर्पयोग— जन्मकुण्डली के चतुर्थ भाव में केतु , तदनुसार दशम भाव में राहु की स्थिति के कारण बनने वाले कालसर्पयोग को पातक नाम से जाना जाता है।

 इस प्रकार की कुण्डली में ध्यान दें तो पायेंगे कि केतु भूमि, भवन, वाहन, माता आदि के प्रतिनिधित्व करने वाले भाव में है और उधर पिता स्थान में राहु हैं । ये तो निश्चित है कि राहु-केतु का परस्पर दृष्टियोग सदा बना रहता है ।  इस प्रकार दो प्रधान भाव सीधे इनसे प्रभावित हुआ करते हैं ।
इसे आगे दिए गए चित्र से समझा जा सकता है—



   पातककालसर्पदोष-ग्रस्त जातक सन्तान और शिक्षा के मामले में दुर्बल होता है । इनकी प्राप्ति में अड़चनें आती रहती हैं । सन्तान होने के बावजूद उसका निरन्तर बीमार रहना - सदा कष्टकारी होता है । माता-पिता दोनों या फिर दोनों में किसी एक का असामयिक वियोग सहन करना पड़ सकता है । अपने भाग्यवशात् यदि वे जीवित हुए भी तो परस्पर स्नेह का तो आत्यन्तिक अभाव रहता है । आजीविका का क्षेत्र नौकरी हो या कि व्यवसाय- सन्तोषजनक नहीं रहता । नाना-नानी, दादा-दादी के लाढ़-दुलार का सुखभोग भी प्रायः नसीब नहीं होता । या तो वे जातक के जन्मग्रहण के शीघ्र बाद ही पृथ्वी छोड़ चुके होते हैं या फिर अकारण उनसे विलगाव की स्थिति बन जाती है ।


क्रमशः...

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