कालसर्पयोगःःकारण और निवारणःःभाग सात

गतांश से आगे...


कालसर्पयोग के अन्य प्रकार— ()
 अब तक के प्रसंग में मुख्य बारह प्रकार के कालसर्पयोगों की चर्चा की गयी । हालाकि इस अध्याय के प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि १२ x १२ = १४४ और फिर उसके विपरीत क्रम विचार से पुनः १२ x १२ = १४४ यानी कुल २८८ प्रकार के कालसर्पयोग हुआ करते हैं । कुछ विद्वानों के मत से किंचित अन्यान्य स्थितियां भी बन सकती हैं और इस प्रकार कुल संख्या इससे भी अधिक कही जा सकती हैं, किन्तु इनमें मूल उक्त बारह ही रहता है । वस्तुतः इस दोषपूर्ण योग के बनने के पीछे मुख्य रुप से राहु-केतु का ही योगदान है और राहु केतु की इतनी ही स्थितियां हो सकती है ।

परन्तु यहां आगे किंचित गम्भीरता पूर्वक विचार करते हुए कुछ खास ग्रह-स्थितियों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिनके प्रभाव स्वरुप कालसर्पयोग की भयावहता वा सौम्यता निर्भर करती है । सच पूछा जाये तो कालसर्पयोग का ये कोई अतिरिक्त प्रकार नहीं है, प्रत्युत द्वादश भावगत ग्रह-स्थितियों को दर्शित कर रहा है सिर्फ, जिन्हें ध्यान में रखते हुए ही योग की सिद्धि-असिद्धि का निर्णय किया जाना चाहिए ।  

विभिन्न विद्वानों ने ग्रह-स्थितियों के योगायोग से  प्रभावित जातकों के जीवन का अध्ययन और जन्मकुण्डली-विश्लेषण करते हुए पाया कि ये सत्य है कि राहु-केतु के चुम्बकीय प्रभाव-क्षेत्र में सूर्यादि शेष सात ग्रहों का आ जाना ही कालसर्पयोग का कारण बनता है, फिर भी उनकी मुख्य दो स्थितियां विशेष द्रष्टव्य हैं—
१.ग्रहों की अधीनस्थता राहु से केतु के बीच है अथवा
२. केतु से राहु के बीच ।

सामान्यतया इस गम्भीरता की ओर लोगों का ध्यान नहीं जाता और इसका परिणाम होता है कि फलकथन (कालसर्पदोष का परिणाम कथन) में भारी चूक हो जाती है । और फलकथन में हुयी त्रुटि का कलंक ज्योतिषशास्त्र पर लगता है । आधुनिक समाज में ज्योतिष की निन्दा होने लगती है । तरह-तरह के तर्क दिये जाने लगते हैं । कुछलोग तो यहां तक कहते हैं कि कालसर्पयोग एक शुभकारी योग है क्यों कि विश्व में बहुत से ऐसे महान लोग हुए हैं, जिनकी जन्मकुण्डली में ये योग रहा है....इत्यादि । उन बन्धुओं की बातों का पूर्णरुपेण समर्थन करते हुए मैं पुनः कहना चाहूंगा कि योग में बनने वाली ग्रह-स्थितियों का गहन विचार करें, फिर निर्णय लें कि परिणाम सुखद होगा वा दुःखद । क्यों कि उक्त दोनों स्थितियां व्यवहार में देखी-सुनी गयी हैं । विश्व की अनेकानेक  विभूतियां इस योग से ग्रसित पायी गयी हैं और दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो इसयोग के परिणामस्वरुप नारकीय जीवन गुजारने को विवश हुए हैं । अतः सामान्य तौर पर एक सी दीखने वाली ग्रह-स्थिति में ऐसा क्या रहस्य छिपा है जो परिणाम में इतना अन्तर ला देता है ।

इसे ठीक से हृदयंगम करने हेतु पहले आप नीचे दिए जा रहे दो जन्मांकों का अवलोकन करें । इन दोनों के बीच के अन्तर को समझें ।



गौरतलब है कि ऊपर दिये गए दोनों जन्मांकों में काफी समानता है । सामान्य ज्योतिषी धड़ल्ले से इन दोनों को भयावह कालसर्पदोष-ग्रसित घोषित कर देगा । किन्तु जरा गहराई से विचारें तो दोनों में भारी अन्तर है— दोनों कुण्डियों में लग्न कन्या ही है, और सूर्यादि सभी ग्रह समान रुप से तत्तत भावों में विराज रहे हैं, परन्तु मौलिक अन्तर है राहु और केतु की विलकुल विपरीत अवस्थिति । हम देख रहे हैं कि प्रथम कुण्डली में लग्न में केतु बैठे हैं, जब कि दूसरी कुण्डली में राहु लग्नस्थ हैं । इस प्रकार कालसर्पयोग के नामकरण में भी पर्याप्त भेद है । किन्तु सामान्य ज्योतिषी यही कहेंगे कि ये दोनों तो स्पष्ट रुप से कालसर्पदोषयुक्त है ही । प्रथम में तक्षक नामधारी कालसर्पयोग है और द्वितीय में अनन्त नामधारी । ऐसी स्थिति में दोष तो हावी रहेगा ही दोनों में—किंचित परिमाण और परिणाम-भिन्नता सहित ।

अब यहां इन दोनों के सम्बन्ध में कुछ गहन बातों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिन पर सामान्य जन ध्यान ही नहीं देते और किसी भी प्रकार का (नाम का) कालसर्पदोष क्यों न हो घिसे-पिटे उपचारों को निपटा डालते हैं । ऐसी स्थिति में उपचार-कर्ता की मोटी कमाई तो हो जाती है, परन्तु जातक की परेशानी ज्यों के त्यों बनी रहती है या  व्यर्थ का अतिरिक्त व्यय-भार वहन करने को विवश होता है ।

ऊपर दिये गए दोनों जन्मांक चक्रों में आप स्पष्ट देख रहे हैं कि ग्रहों के साथ-साथ तीर के भी निशान हैं । ये तीर एक खास दिशा में ईंगित हैं, जो राहु-केतु के चुम्बकीय प्रभाव-क्षेत्र को दर्शाते हैं । इसे स्पष्ट करने हेतु राहु-केतु के सम्बन्ध में कुछ विशेष बातों की जानकारी आवश्यक है ।

ज्ञातव्य है कि सूर्यादि नवग्रहों में राहु-केतु  सदा वक्रगति करते हैं, यानी मीन से अगली राशि मेष में न जाकर विपरीत राशि कुम्भ में गतिशील होंगे । और फिर इसी तरह पीछे और पीछे क्रमशः मकर-धनु-वृश्चिक-तुलादि राशि पर संक्रमित होते हुए भचक्र पूरा करेंगे । ठीक इसके विपरीत सूर्य और चन्द्रमा ये दो ऐसे ग्रह हैं जो कभी भी (कदापि) वक्रगति नहीं करते । उक्त इन चार को छोड़कर शेष यानी मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र और शनि ये पांच ग्रह समयानुसार कभी वक्री, तो कभी मार्गी हुआ करते हैं ।

            पूर्व प्रसंग में ही राहु-केतु की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक कथा की चर्चा की जा चुकी है । आपको ज्ञात है कि राहु-केतु एक ही मूल कायसौष्ठव के दो टुकड़े हैं । श्रीहरि के चक्र से खंडित होकर सिरोभाग राहु कहलाया और कबन्ध (धड़) केतु कहलाया । इनकी स्थिति अन्तरिक्ष में सदा १८०डिग्री  पर बनी रहती है । यही कारण है कि जन्मांक चक्र में एक और सात की दूरी बनाये हुए विचरण करते हैं । इस प्रकार सदा आमने-सामने रहते हैं ।

दूसरी बात राहु-केतु के सम्बन्ध में जानने योग्य ये है कि इनमें चुम्बकीय प्रभाव राहु से केतु की ओर प्रवाहित होता है, न कि केतु से राहु की ओर । ऊपर के दोनों चक्रों में तीर के निशान से इस बात को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।
हम देख रहे हैं कि पहली कुण्डली में सप्तमस्थ राहु से लग्नस्थ केतु की ओर चुम्बकीय प्रवाह गतिशील है । दूसरी कुण्डली में लग्नस्थ राहु से सप्तमस्थ केतु की ओर चुम्बकीय प्रवाह गतिशील है । प्रवाह तो सदा राहु से केतु की ओर ही होगी - ये सुनिश्चित है, किन्तु प्रवाह-क्षेत्र में ग्रह आ रहे हैं या नहीं - ये बात समझने और ध्यान देने जैसी है । यही मौलिक अन्तर है । शेष ग्रह राहु-केतु के चुम्बकीय प्रवाह में हैं यदि तभी दोष विशेष रुप से हावी होगा, अन्यथा नहीं या कहें बिलकुल न के बराबर । 

विद्वानों ने पहली स्थिति को उदितगोलार्द्ध और दूसरी स्थिति को अनुदितगोलार्द्ध संज्ञित किया है । बहुत से विद्वान तो दूसरी स्थिति को कालसर्पदोष कदापि स्वीकारने को ही राजी नहीं हैं । उनका स्पष्ट कथन है कि राहु के चुम्बकीय प्रवाह में शेष ग्रह हैं ही नहीं, फिर दोष कैसा ? इस सम्बन्ध में एक और तर्क द्रष्टव्य है कि राहु के दक्षिण पार्श्व में काल और वामपार्श्व में सर्प हैं (पूर्व अध्याय में दिए गए अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता-चक्र और श्लोक द्रष्टव्य) । इस प्रकार भी राहु की ही प्रधानता हुयी इस नामकरण में ।

इन दोनों मतों का समादर करते हुए मेरा मन्तव्य है कि प्रथम प्रकार (उदित) में कालसर्पदोष की दशाकालिक प्रबलता होगी, जबकि द्वितीय प्रकार (अनुदित) में गोचर स्थिति में प्रबलता होगी । दूसरी विशेषता या अन्तर  ये होगा कि उदित स्थिति में दोष का प्रभाव प्रायः जन्म से ही लक्षित होने लगेगा और गोचर संचरण से जैसे-जैसे क्रमिक रुप से सभी ग्रह ग्रसित होते जायेंगे, परिणाम कष्टकर होता चला जायेगा । और आगे गोचर संचरण में जब राहु बाहर निकल जायेगा, तब कहीं जाकर जातक को राहत मिलेगी ।  दूसरी स्थिति में राहु का चुम्बकीय प्रभाव चुंकि विपरीत दिशा में पड़ रहा है, इस कारण जन्म के प्रारम्भ से ही कठिनाई न होकर उम्र के साथ-साथ क्रमिक रुप से लक्षित होगी । यथा—शिक्षा-विघ्न, विवाह-विघ्न, रोजगार-विघ्न, धन-विघ्न, रोग-विघ्न, यश-विघ्न इत्यादि झेलते हुए जातक का जीवन प्रायः संघर्ष पूर्ण ही व्यतीत हो जाता है । फलादेश में इन बारीकियों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए । सीधी सी बात है कि राहु के आधिपत्य वाला दोष अपेक्षाकृत अधिक कष्टकारक हुआ करता है, जबकि केतु के आधिपत्य वाला दोष अपेक्षाकृत काफी न्यून कष्टदायी होता है । ध्यातव्य है कि राहु को सर्प का सिर और केतु को पूंछ माना गया है । इस प्रकार ये भी कह सकते हैं कि सिर से पूंछ की ओर ग्रसन-स्थिति अधिक कष्टप्रद एवं चुंकि पूंछ से सिर की ओर ग्रसन-संचरण सम्भव नहीं, अतः इसका दुष्प्रभाव भी आपेक्षिक न्यून हुआ करता है ।

क्रमशः...

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