गतांश से आगे...
दूसरे अध्याय का अन्तिम भाग
दूसरे अध्याय का अन्तिम भाग
कालसर्पयोग-विचार
:: ध्यान देने योग्य बातेः—
कालसर्पयोग पर विचार करते समय सर्वप्रथम इस बात
का ध्यान रखना चाहिए कि -----
१.
राहु-केतु के बीच ग्रहों की अवस्थिति है या कि केतु-राहु के बीच ।
२.कालसर्प
के प्रभाव-क्षेत्र में किस भाव से किस भाव तक आ रहे हैं ।
३.
किस भाव में कौन से ग्रह बैठे हुए हैं और उनकी अपनी स्थिति कैसी है ।
४.
विभिन्न भावगत ग्रहयुति, दृष्टि आदि का भी विचार अवश्य करे ।
५.
राहु वा केतु के साथ यदि किसी ग्रह की युति है, तो राहु-केतु के साथ-साथ उस ग्रह
के अंशों का विचार अवश्य करना चाहिए ।
६.यदि
कोई ग्रह राहु-केतु के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर निकल रहे हैं, वैसी स्थिति में उनका
तुलनात्मक अंश–विचार अत्यावश्यक हो जाता है । बाहर निकले ग्रह का अंश यदि राहु के
अंश से अधिक है तो राहु निस्तेज हो जायेगा और इस प्रकार कालसर्पदोषभंग माना जायेगा
या कहें अपेक्षाकृत कम प्रभावी होगा ।
७. कालसर्पयोग
वस्तुतः पूर्वजन्मार्जित अनुबन्धित ऋण की तरह है। कर्मफल के परिपाक स्वरुप इस दोष
से जातक ग्रसित होता है।
८. यह
एक प्रकार का पितृदोष है, जिसका लगभग समान प्रभाव जातक के परिवार के अन्य सदस्यों
की कुण्डली में भी प्रायः लक्षित होता है ।
९.
प्रायः देखा जाता है कि नक्षत्रानुसार (रोहिणी और मृगशिरा) जिन लोगों की सर्पयोनि
होती है, उनकी जन्मकुण्डली में कालसर्पयोग पाया जाता है ।
१०.पंचम
वा सप्तम स्थान से प्रारम्भ होने वाला कालसर्पदोष अधिक प्रभावी होता है ।
११.कालसर्पयोग
पर विचार सतही स्तर पर वा जल्दवाजी में कदापि न करें ।
कालसर्पयोग-प्रभावित
जातकों के लक्षणः—
कालसर्पयोग
से प्रभावित व्यक्तियों में प्रायः निम्नांकित लक्षण पाये जाते हैः-
१.
स्वप्न में सर्प का दर्शन होता है।
२. सर्प-दर्शन सुखानुभूति वाला न होकर, भयकारी होता है ।
३. जातक
अथक परिश्रम के बावजूद किसी क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर पाता।
४. हमेशा
मानसिक तनाव-ग्रस्त रहने के कारण सही निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पाता है और
प्रायः बेतुके निर्णय लेकर परेशानियों को आमन्त्रित कर लेता है ।
५. अकारण
शत्रुता मोल लेता है । स्वजनों से भी वैर-विवाद की स्थिति प्रायः बनी रहती है ।
६. गुप्तशत्रु
भी काफी सक्रिय रहते हैं, जिनसे प्रायः नुकसान उठाना पड़ता है ।
७. कार्यावरोध
और प्रगतिवाधा- कालसर्पयोग का एक मुख्य लक्षण है, जो प्रायः सभी प्रभावी जातकों
में समान रुप से पाया जाता है ।
८.
पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण हो जाता है
।
९.
विवाह में वाधा आती है । विवाह हो जाने
पर दाम्पत्य जीवन तनावपूर्ण प्रायः रहता है । यहां तक कि विवाह-विच्छेद (तलाक) की
स्थिति भी बन जाती है ।
१०.
जीवन का मध्यकाल (चालीस-पचास) अत्यधिक
कष्टप्रद होता है । संयोग से उस समय यदि राहु-केतु-शनि आदि की विविध दशायें भोगनी
पड़ी तो जीवन और भी कष्टदायक हो जाता है ।
११.
प्रभावित जातक का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक,
पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक यानी कि जीवन के हर क्षेत्र में कठिनाईयों का सामना
करना पड़ता है ।
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क्रमशः...
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