गतांश से आगे....
पंचम अध्याय
कालसर्पयोग :: लग्नानुसार फलविचार
पूर्व
प्रसंग (द्वितीय अध्याय) में कालसर्पयोग के प्रकारों के पश्चात परिणामों की विशेष
चर्चा की गयी है, किन्तु ध्यान देने की बात है कि वहां मुख्य बारह प्रकारों की
चर्चा हुयी है और तदनुसार उन बारहों के परिणाम (फल-विचार) कहे गए हैं।
यहां
पुनः फल-विचार की चर्चा हो रही है, किन्तु विचार-प्रक्रिया मेषादि लग्नानुसार चली
है । उसमें भी राशि-क्रम से चर्चा न करके राशिशों को ध्यान में रखते हुए क्रमबद्ध
किया गया है । क्यों कि तन्वादि द्वादश भावों में क्रमशः राहु-केतु के संचरण से
बनने वाले अनन्तादि बारह प्रकार के कालसर्पयोगों के परिणाम एक दूसरे से बिलकुल भिन्न
होते हुए भी अलग-अलग मेषादि द्वादश राशियों का और विशेष कर राशिशों के अनुसार
प्रभावों में काफी भेद झलकता है । यही कारण है कि यहां हम न तो तन्वादि द्वादश भावों
का क्रम दे रहे हैं और न मेषादि द्वादश राशियों का ही, प्रत्युत क्रम दे रहे हैं
राशिशों के अनुसार।
कालसर्पयोग
का फलविचार करते समय पूर्व वर्णित अन्यान्य विशेष बातों और योगायोगों का ध्यान
रखते हुए, तन्वादि द्वादश भाव और मेषादि द्वादश राशियों का भी ध्यान रखना
अत्यावश्यक है, साथ ही उनमें विराजमान सूर्यादि शेष ग्रहों का भी । क्यों कि यदि
ये सभी गहन विचार अत्यावश्यक न होते तो फिर क्या प्रयोजन था कि कालसर्पयोग को
सिर्फ बारह प्रकारों में ही न रख कर दो सौ अठासी प्रकारों की चर्चा विद्वान
ज्योतिर्विद करने को विवश हुए !
जातक का जन्मलग्न क्या है- इसे
देखते हुए इस फलाध्याय का अवलोकन करना चाहिए, साथ ही जन्मराशि क्या है और कालसर्पयोग
किस भाव से किस भाव तक यानी किस प्रकार का बन रहा है, तथा दोष को प्रभावित करने
वाले अन्यान्य शुभाशुभ वा मिश्र योगों का भी योगदान है अथवा नहीं— इन सभी बातों का
सम्यक् विचार करने के पश्चात ही अन्तिम निर्णय पर पहुँचना चाहिए ।
यानी
फलकथन की सभी गुत्थियों को समझते हुए फलाफल का विचार किया जाना चाहिए । फलित
ज्योतिष वैसे भी अपने आप में काफी जटिल और अनुभव-सिद्ध विषय है । यहां गणित वाला
दो और दो का संयोग नहीं है, जिसका उत्तर सदा एक समान ही होगा । वस्तुतः फलकथन बहुत
ही अनुभव, धैर्य और सूझ-बूझ का विषय है । जरा सी चूक से ज्योतिष विद्या की अवमानना
होगी और समाज में गलत संदेश जाने का खतरा भी होगा, जैसा कि आजकल प्रायः
देखने-सुनने में आ रहा है । अस्तु ।
१.
मेष और वृश्चिक लग्न—
ध्यातव्य है कि इन दोनों लग्नों के अधिपति मंगल हैं । ये पापग्रह की श्रेणी में
आते हैं । मेष चरराशि है और वृश्चिक स्थिरराशि । अतः इनके
गुणों का किंचित भिन्न प्रभाव लक्षित हो सकता है । फिर भी मूल बातों में समानता
रहेगी प्रायः । मेषस्थ राहु जातक को पराक्रमहीन, आलसी और अविवेकी बनाता है । तथा
वृश्चिकारुढ़ राहु जातक को धूर्त, निर्धन और रोगी बनाता है । इससे विपरीत यदि मेष
का केतु हो तो जातक चंचल और बहुभाषी होता है । वृश्चिक का केतु हो तो बहुभाषिता-गुण
वाचालता-दोष में परिवर्तित हो जाता है, साथ ही जातक क्रोधी, कुष्टरोगी, धूर्त, दुर्व्यसनी
और निर्धन होता है । मेष वा वृश्चिक लग्न हो और कालसर्पयोग का सृजन हो रहा हो तो
जातक अपने कार्य से सदा असन्तुष्ट और दुःखी रहता है । किसी भी कार्य व्यापार में
समुचित सफलता नहीं मिलती । जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आता है । उत्तरोत्तर संघर्षरत
रहने को विवश होने के कारण धीरे-धीरे आत्मविश्वास टूटने लगता है । असन्तोष और
व्यग्रता बढ़ाने वाले कारण प्रायः स्पष्ट भी नहीं होते, ताकि उनका सुधार किया जा
सके ।
२.
वृष और तुला लग्न—
ध्यातव्य है कि इन दोनों लग्नों के अधिपति शुक्र हैं । ये शुभग्रहों की श्रेणी में
आते हैं । वृष स्थिर राशि है और तुला चरराशि । अतः इनके गुणों का किंचित भिन्न
प्रभाव लक्षित होते हुए भी, मूल बातों में समानता रहेगी प्रायः । वृष लग्न में ही
राहु हो तो किंचित सुखी बनाता है, परन्तु स्वभाव से अति चंचल और शरीर से कुरुप
होता है । तुला लग्न में राहु की स्थिति कार्यकुशल तो बनाता है, पर अल्पायुयोग की
भी आशंका रहती है । क्रमशः इन्हीं लग्नों में केतु हो तो दुःखी, निरुद्यमी, आलसी,
वाचाल तथा कामी, क्रोधी, दुःखी और कुष्टरोगी होने की आशंका रहती है । इन लग्नों के
जातकों की कुण्डली में कालसर्पयोग होने पर रोजगार को लेकर सर्वाधिक चिन्ता की
स्थिति बनी रहती है । उन्हें इस बात का भय सदा बना रहता है कि उनके हाथ से रोजगार
छिन न जाये । वास्तविक वाधा आये न आये, किन्तु वाधा आने की आशंका से वे सदा दुःखी
और चिन्तित रहते हैं । जातक में आत्मविश्वास की भारी कमी रहती है । फलतः वह किसी
कार्य में, वा किसी एक स्थान में लम्बे समय तक टिक नहीं पाता । जमा-जमाया पैर भी
खुद ही उखाड़ लेता है । यहां तक कि अपने विचारों से ही घबराकर कभी-कभी वह आत्मघात
करने की योजना तक बनाने लगता है ।
३.
मिथुन और कन्या लग्न—
ध्यातव्य है कि इन दोनों लग्नों के अधिपति बुध हैं । इन्हें सौम्य ग्रह की श्रेणी
में रखा गया है । मिथुन और कन्या दोनों
द्विस्वभाव राशि के अन्तर्गत आते हैं । यानी चर और स्थिर दोनों के मिश्रित गुण
वाले । मिथुन राशि पर ही राहु की अवस्थिति हो तो योगाभ्यासी, बलवान, गायक आदि
गुणों से ओतप्रोत होता है । कन्याराशि पर राहु के होने पर लोकप्रिय, मधुरभाषी, कवि,
लेखक, गायक आदि गुणों को प्रदान करता है । मिथुन राशि पर केतु के होने पर वातरोगी,
सदा असन्तुष्ट, क्रोधी और अल्पायु होता है । तथा कन्याराशि पर केतु के होने पर सदा
रोगी, मूर्ख, मन्दाग्निपीड़ि और वकवादी होता है । इन लग्नों के जातकों में
कालसर्पयोग की स्थिति बनने पर नौकरी वा व्यवसाय की स्थिति डगमगाती रहती है । किसी
भी क्षेत्र में उच्चाकांक्षी तो जरुर होते हैं, परन्तु समुचित कामयाबी हासिल नहीं
कर पाते । लौहकार्यों से उन्हें सदा परहेज करना चाहिए । सट्टे, लॉटरी, शेयरबाजार
के कार्य, जमीन-मकान की खरीद-विक्री का कार्य ये बड़े मनोयोग से प्रारम्भ तो करते
हैं, किन्तु प्रायः असफलता ही हाथ लगती है । कई बार के प्रयासों से थोड़ा कुछ जो
लब्ध कर पाते हैं, उसे भी एक ही झटके में गंवा बैठते हैं । पूज्य और प्रियजनों को
इनके व्यवहार से प्रायः दुःख उठाना पड़ता है । ध्यान देने की बात ये है कि ऐसे
जातक कपड़ा, कागज, किराना, अनाज, होटल, गृहोपयोगी अन्यान्य सामग्रियों के व्यवसाय
से जुड़ें तो किंचित सफलता अवश्य मिलेगी ।
४.
कर्क लग्न –
ध्यातव्य है कि कर्क का आधिपत्य चन्द्रमा को मिला है । सभी ग्रहों के बीच राशि
विभाजन के पश्चात चन्द्रमा के पूर्ण स्वामित्व में सिर्फ एक ही राशि शेष रही । उधर
यही स्थिति सूर्य की भी रही । कर्क चर राशियों में गिना जाता है । और इसके स्वामी
चन्द्रमा अपनी कलानुसार पाप वा पुण्य की श्रेणी प्राप्त करते हैं । किसी भी पक्ष
में जब उनकी कला अधिक होती है तो शुभग्रह माने जाते हैं, तथा इसके विपरीत स्थिति
में पापग्रह कहे जाते हैं । अमावस्या को ये विलकुल कलाहीन होते हैं, अतः उस दिन
सर्वाधिक पापकारी कहे गए हैं । कर्क में राहु की अवस्थिति होने पर उदार चित्त होने
पर भी, कपटपूर्ण व्यवहार के लिए ख्यात होता है जातक । धनहीनता और रोग से सदा विकल
रहता है । केतु की यहां स्थिति होने पर वातविकार के साथ-साथ भूत-प्रेत बाधायें
सताती रहती हैं । कालसर्पयोग-ग्रस्त कर्कलग्न-जातक न तो स्थिरता से नौकरी में ही
टिक पाते हैं और न किसी व्यापार में ही, फलतः आर्थिक कठिनाइयों से जूझते रहते हैं
सदा । एक साथ कई काम में हाथ डाल देते हैं और सभी जगह से असफलता मिलती है, जिसके
कारण मानसिक क्लेश बना रहता है । अन्यान्य ग्रह-स्थितियों के अनुसार डॉक्टर, वकील,
कलाकार, ज्योतिषी, शिक्षक आदि किसी भी स्वतन्त्र पेशे में आगे बढ़ने की क्षमता
रहते हुए भी असन्तुष्ट और असफल रहते हैं । शारीरिक स्वास्थ्य भी प्रायः बिगड़ा हुआ
ही रहता है । ऐसे जातक चतुराई, कुटिलता और मौकापरस्ती के कारण रंग बदलने में भी
कुशल होते हैं । समयानुकूल समुचित प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं । धनसंचय इनके
लिए सर्वाधिक कठिन कार्य होता है, किन्तु ऐसे जातक यदि दान-पुण्य में विश्वास रखें
और करें तो धनागम भी प्रचुर होगा ।
५.
सिंह लग्न— ग्रहाधीश
- सूर्य का आधिपत्य है इस राशि पर । सिंहराशि स्थिर राशि है, किन्तु कालसर्पयोग
ग्रसित होजाने पर ऐसे जातक सर्वाधिक अस्थिर हो जाते हैं। पारिवारिक अशान्ति और
आर्थिक तंगी से सदा जूझते रहते हैं । यदि ये व्यापार से जुड़े लोग हों तो
व्यावसायिक लाभ समयानुसार भरपूर मिलता है, किन्तु दूसरी ओर अकारण कुछ ऐसी स्थिति
बनती है कि सब लीपपोत कर बराबर हो जाता है। व्यवसाय में लगायी गयी पूंजी का तेजी
से विकास होता है और अगले ही झटके में सब छिन्नभिन्न हो जाता है । ऐसे जातक
दृढ़प्रतिज्ञ, कठोर और थोड़े जिद्दी स्वभाव के भी होते हैं । इस राशि पर राहु की
अवस्थिति जातक को चतुर और नीतिकुशल बनाता है, किन्तु केतु की अवस्थिति कायर और
असहिष्णु बना देता है । केतु के कारण सर्पदंश का खतरा भी इन्हें बना रहता है ।
प्रायः इन्हें सांपों से सामना हो जाया करता है ।
६.
धनु और मीन लग्न— धनु
और मीन लग्न देवगुरु वृहस्पति की दो राशियां हैं यानी इनके अधिपति गुरु हैं
। गुरु शुभग्रहों की श्रेणी में हैं । इनके स्वामित्व में से मीन में केतु की भी
भागीदारी है यानी केतु की राशि मीन कही जाती है । और केतु धनुराशि पर उच्च का माना
जाता है । ये दोनों द्विस्वभाव राशियां हैं । धनु राशि पर राहु की अवस्थिति से
जातक जीवन के पूर्वार्द्ध में तो सुख पाता है, किन्तु उत्तरार्द्ध किंचित कष्टकर
होता है । अपने मूल कुल से विलग होकर, अन्यकुल में (दत्तक) जाने की आशंका भी रहती
है । अपने समीपवर्तियों से प्रायः बैरभाव बना रहता है । मित्रों का अभाव होता है ।
धनु राशि पर केतु की अवस्थिति मिथ्याचारी, चंचल और धूर्त बनाता है । उधर मीन राशि
पर राहु की स्थिति से कुलीनता, आस्तिकता, नैतिकता, कलाप्रेम आदि के गुण मिलते हैं ।
यहां केतु की अवस्थिति कर्णरोगों की उत्पत्ति करती है । सदा प्रवासमय जीवन जीना
पड़ता है । या कहें अपने मूल स्थान से बहुत दूर रहना पड़ता है । ऐसे जातक की
कुण्डली में कालसर्पयोग का सृजन यदि हो तो पराधीनता से मुक्त करके, स्वाधीन कार्य करने
की क्षमता और दक्षता प्राप्त होती है । किसी प्रकार की नौकरी या पराधीनता इन्हें
कदापि स्वीकार्य नहीं होता । एक खास बात ये होती है कि किसी बाहरी स्त्री के सहयोग
से ये स्वतन्त्र कार्य करके, काफी आगे बढ़ने में सफल होते हैं, किन्तु दूसरी ओर घर
की स्त्री के ही षड़यन्त्र के शिकार होकर अर्थहानि, मानहानि भी झेलने को विवश होते
हैं । दलाली के कार्य, परामर्शदाता का कार्य, राजनीति आदि में ऐसे जातक यश और
प्रतिष्ठा लब्ध करते हैं । संकोची स्वभाव के कारण धनाभाव भी झेलना पड़ता है ।
पारिवारिक जीवन बहुत ही संघर्षपूर्ण हुआ करता है । अपने आप में दुःखी किन्तु दूसरे
को सुख देने में सदा तत्पर रहते हैं । या कहें परोपकार प्रिय होते हैं ।
७.
मकर और कुम्भ लग्न—
मकर और कुम्भ लग्नों का स्वामित्व सूर्यपुत्र शनि महाराज को है । भले ही भ्रमवश
लोग इन्हें क्रूर और निर्दयी माने वैठे हैं और ज्योतिषियों ने भी इन्हें पापग्रह
की सूची में रख छोड़ा है, किन्तु सच पूछा जाये तो शनि के समान कोई न्यायप्रिय और
महा सुधारक नहीं है । इनकी न्याय-प्रियता और धो-मांज, ठोक-पीट कर सुधारने की आदत
से ही लोग इन्हें कठोर और अन्यायी मान लेते हैं । सत्य और न्याय के मामले में ये
अपने पिता से भी कहीं आगे हैं । राशिचक्र पर भृत्यकोटि में रखते हुए सूर्य और
चन्द्रमा दोनों की ओर से क्रमशः मकर और कुम्भ राशियां भेंट की गयी, यही कारण है कि
अन्य ग्रहों की दो राशियों में दूरी है, पर इनकी दोनों राशियां समीप हैं । मकर
राशि चर है और कुम्भ स्थिर । मकर राशि पर जब राहु आरुढ़ होते हैं तो जातक को
मितव्ययी बनाते हैं, किन्तु उसके कुटुम्बों का भी हनन करते हैं, यानी कौटुम्बिक
पीड़ा देता हैं राहु । और कुम्भ में स्थित होने पर विद्वान, लेखक, मितभाषी बनाते
हैं । परन्तु मकर राशि में केतु के आने (रहने) पर भ्रमणशीलता, प्रवास, तेज, पराक्रम
आदि गुणों का विकास होता है और कुम्भ राशि
में आने (रहने) पर सामान्य धनार्जन के साथ व्ययाधिक्य झेलना पड़ता है । कान के
विशेष रोगों के कारण काफी परेशानी होती है । इन दोनों राशियों के जातक की कुण्डली
में यदि कालसर्पयोग का सृजन हो जाये तो प्रायः शुभकारी होता है । विदेश में वसने
का अवसर मिलता है । वहीं कामयाबी हासिल होती है । किन्तु पत्नी और बच्चों की ओर से
असन्तुष्टि रहती है । पैत्रिक सम्पदा का समुचित लाभ ऐसे जातकों को नहीं मिल पाता ।
सम्पत्ति स्वार्जन तो होता है, पर पारिवारिक सुख समुचित नहीं मिल पाता । ऐसे जातक
यदि खनिज द्रव्यों का रोजगार करें तो समुचित सफलता मिलती है । ऐसे ही विभाग की
नौकरी भी उन्हें सुख दे पाती है । शेयर-सट्टा आदि से सदा सावधान रहना चाहिए, क्यों
कि मोटी कमाई होकर, एक झटके में सबकुछ बरबाद हो जाता है ।
इस प्रकार राशीश विभाजन क्रम में मेषादि द्वादश राशियों
को रखकर ऊपर के प्रसंग में कालसर्पयोग का किंचित फल विचार किया गया । गहन विचार
पूर्वक षडवर्गीय बलादि का ध्यान रखते हुए और भी विशेष विचार किए जा सकते हैं ।
ध्यातव्य है कि कालसर्पयोग नाम से ही भयभीत नहीं
होना चाहिए । सही समय पर, सही ढंग से सही उपचार कर-करा देने से प्रायः देखा जाता
है कि दोषों का शमन हो जाता है । किन्तु दूसरी ओर ऐसा भी देखा जाता है कि एक बार
सामान्य ढंग से किये गये उपचार का विशेष फल नहीं होता । अतः ग्रह-स्थिति के अनुसार
न्यूनाधिक उपचार एकाधिक बार करना चाहिए । अस्तु ।
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क्रमशः...
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