कालसर्पयोगःःकारण और निवारणःःतेरहवां भाग

गतांश से आगे...


                         षष्ठम अध्याय
          कालसर्प दोष :: कुछ सरल उपाय
                       (पहला भाग) 
       सच पूछें तो  जटिल कालसर्पदोष की समुचित शान्ति के लिए विशेष अनुष्ठान (कर्मकाण्ड) ही आवश्यक है । वो भी सिर्फ एक बार नहीं, बल्कि स्थिति के अनुसार एकाधिक बार- कुल चार बार । किन्तु सिर्फ बड़े-बड़े जप-अनुष्ठान आदि ही कारगर होते हैं— ऐसी बात नहीं है । बहुत बार ऐसा देखा जाता कि कुछ छोटे-मोटे उपाय भी बड़ा काम कर जाते हैं । किन्तु हां, एक बात अनुभव के आधार पर ये कहना चाहूंगा कि टोने-टोटके जो देखने और करने में बहुत ही आसान लगते हैं, कभी-कभी जरा सी असावधानी से बिलकुल विपरीत परिणाम भी दे जाते हैं, या कभी ऐसा भी होता है कि परिणाम तो सही मिलता है, किन्तु उसका प्रभाव थोड़े समय के बाद समाप्त हो जाता है । ध्यातव्य है कि ये बातें सिर्फ कालसर्पयोग के टोटके ही नहीं, बल्कि सभी प्रकार के टोटकों के सम्बन्ध में कही जा रही है ।
         वस्तुतः ऊपर कही गयी दोनों बातें बिलकुल सही हैं । प्रायः टोटके अल्पकालिक प्रभाववाले ही होते हैं और जरा सी चूक या असावधानी प्रयोग कर्ता ही नहीं प्रयोग बतलाने वाले को भी भारी संकट में डाल देते हैं । हालाकि प्रयोग बतलाने वाले शायद ही इस बात पर विचार करते हों या निर्देश के इस सिद्धान्त में विश्वास हो उन्हें, किन्तु यह बिलकुल सत्य है कि सिर्फ कर्ता ही नहीं निर्देशक को भी क्रिया का शुभाशुभ परिणाम अवश्यमेव मिलता ही है ।  अतः बाजारु किताबों में पढ़कर या किसी से केवल सुन कर कोई भी प्रयोग करने की मूर्खता न करें । ये टोटके प्राकृतिक विष की तरह हैं । इनका शोधन-मारन करके औषधी की तरह प्रयोग कोई सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं । और सबसे बड़ी बात ये स्पष्ट कर दूं कि सिद्ध पुरुष अमोघ टोटकों को सड़कों पर ठीकरे के मोल विखेरते नहीं फिरते । श्रद्धावनत होकर ही इनसे कुछ लाभ लिया जा सकता है । वैसे आजकल तथाकथित सिद्ध पुरुषों की भरमार है चारों ओर । ठग और नकलचियों के बीच असली की पहचान बड़ी मुश्किल हो गयी है । समाज में निरापद और आदरणीय समझकर, जालसाजों ने सन्तों का बाना अख्तियार कर लिया है । असली पुस्तकें दिनों-दिन बाजारवाद से गायब होती जा रही हैं और उनके स्थान पर कचरे भर रहे हैं । एक और बात ध्यान रखने योग्य है कि असली पुस्तकों में तन्त्र की गुत्थियां गुप्त शब्दावलियों में पिरोकर प्रायः रखी रहती हैं, जिनका सही ज्ञान कुछ खास पुरुषों को ही होता है । सामान्य बोलचाल की भाषा वाले शब्दों का असली अर्थ कुछ का कुछ होता है । आधुनिक शैली में इसे कह सकते हैं कि डिकोडिंग का ज्ञान होना जरुरी है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ होगा और प्रयोग व्यर्थ होगा । सौभाग्य से कभी किसी सिद्ध पुरुष से मिलना हो जाये तो नतमस्तक होकर उनसे ज्ञानार्जन करे । सिर्फ और सिर्फ जनकल्याण में ही उस ज्ञान का प्रयोग करे ।
       यहां यत्किंचित  निरापद और आसान उपायों तथा टोटकों की चर्चा करता हूँ, क्यों कि जटिल तो जटिल ही हुआ करता है । वो केवल गुरु-गम्य है । किसी किताब का विषय कदापि नहीं हो सकता । अस्तु ।

उपचार . –  कालसर्पदोष निवारण यन्त्र—
तांबे के पत्तरों पर सुन्दर और आकर्षक ढंग से बना हुआ ये यन्त्र धड़ल्ले से बाजार में बिक रहा है । किन्तु ध्यान रहे—
 1.इनमें ज्यादातर यन्त्र सिर्फ आडम्बर हैं, यानी किसी काम के नहीं हैं । एक साथ कई यन्त्रों को मिलाकर एक ही प्लेट पर ढाल दिया गया है । प्रायः यन्त्रों में आप देखेंगे कि चौकोर कोष्टक में कुण्डलीमारे एक बड़े आकार के सर्प के शरीर पर एक या चार स्थानों पर पंचदशीयन्त्र उत्कीर्ण है और बीच में देवदत्त...धनंजय आदि कुछ बेतुके शब्द भी लिखे हुए हैं । जहां-तहां ऊँ लिख कर भी सजाया गया है इन यन्त्रों को । अन्य कार्यों के लिए बाजार में मिलने वाले यन्त्र भी प्रायः आडम्बर पूर्ण ही होते हैं । किसी आनाड़ी ने इन यन्त्रों का बाजारीकरण कर दिया है, जिससे अब त्राण पाना मुश्किल हो रहा है । आडम्बर के जाल में सत्य प्रायः उलझकर रह गया है ।

2.संयोग से कुछ यन्त्र बिलकुल सही नियम से बने हुए भी मिल जाते हैं । किन्तु सत्य की परख तो होनी चाहिए, तभी तो पहचान पायेंगे ।

3.कालसर्पयन्त्र के साथ पंचदशी का बेतुका मेल और बीच के बेतुके शब्द—कुल मिलाकर यन्त्र की गरिमा और महिमा को ध्वस्त करते हैं । वास्तव में यन्त्र शास्त्र में इन शब्दों से कुछ खास संकेत दिये गए है साधकों और प्रयोगकर्ताओं के लिए, जिसे अनाड़ी यन्त्र-निर्माता या प्रयोग-कर्ता समझ नहीं पाये और न किसी सही जिज्ञासु ने इन पर विचार ही किया । और फिर गलत यन्त्र-निर्माण की परम्परा सी चल पड़ी ।

4.गोल्डेन प्लेटेड विशेष आकर्षक दीखने वाला यन्त्र कदापि न खरीदें, क्यों कि वो शुद्ध तांबा होता ही नहीं है, बल्कि साधारण टीन पर सुनहरा परत चढ़ाकर आकर्षक रुप दिया हुआ रहता है ।

5.यन्त्र में तांबें का अपना विशिष्ट महत्त्व है, अतः इसे ही लें । यहां तक कि सोने और चांदी की तुलना में भी तांबें का अधिक महत्व कहा गया है ज्यादातर यन्त्रों के लिए ।

6. बड़े आकार का भोजपत्र (लालवाला) यदि मिल जाये तो उस पर स्वयं भी अनार की लेखनी वा मोरपंख की लेखनी के सहारे, विष्णु-अष्टगन्ध चन्दन से विधिवत लेखन करके प्राण-प्रतिष्ठा, पूजनादि सम्पन्न करके, नित्य पूजा हेतु रख सकते हैं ।
7.यन्त्र का आकार नौ ईंच X नौ ईंच का हो तो अति उत्तम । इससे छोटे आकार (तीन, पांच, सात) का भी प्रयोग किया जा सकता है ।

8.यन्त्र की विधिवत स्थापना और उसके बाद उसे सिद्ध (जागृत-चैतन्य) करने के लिए किए गये विशेष जप-पूजन का काफी महत्त्व है । इसके अभाव में यन्त्र किसी काम का नहीं, बल्कि सिर्फ दिखावे की वस्तु बन कर रह जाता है । अतः यन्त्र की साधना में जरा भी कोताही नहीं होनी चाहिए ।

9.बाजार में बिकने वाला यन्त्र सिद्ध किया हुआ कदापि नहीं रहता । सही यन्त्र यदि संयोग से मिल जाये, तो इसे खरीद कर योग्य साधक से सिद्ध कराना पड़ता है, तभी कारगर होता है ।

10.ध्यातव्य है कि साधक को यन्त्र-साधना का सम्यक अभ्यास और अनुभव होना चाहिए । यन्त्र शास्त्र के रहस्यों को सम्यक रुप से समझते हुए, जीवन में एकाधिक यन्त्रों की विधिवत साधना करने के पश्चात ही यन्त्र–रचना का अधिकार मिलता है किसी व्याक्ति को । ऐसा नहीं कि किताब में पढ़े और बैठ गए यन्त्र लेखन करने । वैसे असिद्ध लोगों द्वारा निर्मित यन्त्र किसी काम का नहीं, बल्कि धन और समय की बरबादी है ।

11.यन्त्र-साधक के लिए सात्विक, विचारवान, क्रियावान होना अति आवश्यक है, साथ ही किसी भी यन्त्र का प्रयोग लोककल्याण की भावना से ही करना चाहिए । इस नियम को पालन नहीं करने वाले सही साधक की भी शक्ति बहुत तेजी से क्षरित होने लगती है और एक दिन शून्य हो जाती है । नियमों की अवहेलना करने का ही परिणाम होता है कि तन्त्र-मन्त्र–यन्त्र के साधक प्रायः अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में घोर शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक क्लेशों का शिकार होते देखे गए हैं । आजीवन साधना-रत रहते हुए तन्त्र–मन्त्र की मर्यादाओं की रक्षा और पालन करने वाले ही सही साधक कहे जा सकते हैं । जो कि आज के समय में बड़ा ही दुर्लभ सा होता जा रहा है । अस्तु ।

प्रसंगवश यहां संक्षेप में यन्त्र-निर्माण-विधि का उल्लेख कर रहा हूँ । विशेष जानकारी तो गुरुगम्य है ।

    यन्त्र की साधना हेतु कोई भी ग्रहण का अवसर सर्वोत्तम काल कहा गया है । दीपावली वा होलिकादहन वाली रात्रि भी श्रेष्ठ है । मुख्य दोनों नवरात्रियों में अष्टमी और नवमी की संधिवाली रात्रि भी काफी महत्त्वपूर्ण कही गयी है । एक बार यन्त्र साधना कर लेने के पश्चात् नवरात्रि के किसी भी दिन , दीपावली या अन्य सिद्धयोगों में भोजपत्र पर यन्त्र-लेखन का काम किया जा सकता है ।

एक विकल्प ये भी है कि तांबें की पत्तर पर यन्त्र की खुदाई किसी योग्य कारीगर से सही ढंग से करावाकर पहले से सुरक्षित रखा जा सकता है और पूर्वोक्त शुभ दिनों में उसकी प्राणप्रतिष्ठा-पूजनादि सम्पन्न करके किसी व्यक्ति के कल्याण हेतु समर्पित किया जा सकता है ।

मुख्य श्रम यन्त्र की पहली साधना में है, जो करीब पांच-छः घंटों का कार्य है । बाद के लेखन-पूजनादि कार्य तो सामान्य हैं— मात्र घंटे भर की क्रिया ।

श्रावणमास की शुक्ल पंचमी को नागपंचमी कहते हैं और इसी भांति अगहन शुक्ल पंचमी को द्वितीय प्रकार की नागपंचमी की श्रेणी में रखा गया है । इन दो मुख्य अवसरों पर किसी दोष-ग्रस्त व्यक्ति के द्वारा सिद्ध किये हुए कालसर्पयन्त्र की प्रथम पूजा विधिवत करवा कर, आगे उसे नित्य पूजा के लिए आदेश देना चाहिए । घोर संकट की स्थिति (आपात स्थिति)  में किसी भी महीने (खरमास, क्षयमास, मलमास छोड़कर) की शुक्ल पंचमी को या फिर फाल्गुन महीने की महाशिवरात्रि वा किसी महीने की शिवरात्रि के दिन भी यन्त्र की प्रथम पूजा प्रारम्भ की जा सकती है । कुछ विद्वान पूरे श्रावण महीने को शिवमास का पावन अवसर मानते हुए पूरे महीने को ग्रहण करते हैं, किन्तु इस महीने में भी शिवरात्रि वा शेष सोमवारों को वरीयता देनी चाहिए । किन्तु इसका ये अर्थ न लिया जाय कि श्रावणी नागपंचमी की गरिमा कम हो रही है । वो तो उत्तमोत्तम है ही ।

आवश्यक सामग्री— फूल की थाली- कोई वित्तेभर घेरे वाली, अनार की पुष्ट तुन्तु से बनी लेखनी- यन्त्र-लेखन हेतु या मोरपंख, शुद्ध मलयगिरिचन्दन, लालचन्दन, केसर, कपूर, अगर, तगर, हल्दी और दारुहल्दी, मौलीधागा, लाल भोजपत्र, रोली, अक्षत, सिन्दूर, देवदार धूप, घी, रुईबत्ती, माचिस, लाल और पीला फूल, दूर्वा, शमीपत्र, बेलपत्र, आम्रपत्र, दही, गुड़, पंचमेवा, आचमनी, कटोरी, तस्तरी, जलपात्रादि  तथा किसी भी धातु का एक कठौत या टोपिया ।

मुख्य विधि— स्नानादि वाह्यशौच के पश्चात, अन्तःशौचाचर क्रम में आचमन, प्राणायाम के साथ-साथ संक्षिप्त भूतशुद्धि भी अवश्य कर लें।

( नोट - 1.इससे यन्त्र-जागृति में पर्याप्त बल मिलता है । भूतशुद्धि की विधि योग्य गुरु से अवश्य सीख लेनी चाहिए,क्योंकि साधना का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है ये । )
2.ध्यातव्य है कि यहां सिर्फ मुख्य विधि की ही चर्चा कर रहा हूँ । इसका अर्थ ये न समझा जाये कि पवित्रिकरण, आचमन, आसनशुद्धि, विनियोग, संकल्पादि कार्य यहां करने ही नहीं है । इसी तरह आगे भी कई स्थानों पर सिर्फ मुख्य कर्म का ही संकेत दिया गया है । संकल्प, विनियोगादि आंगिक कर्म तो कर्मकांड के प्रधान अंग है ही । अगले अध्याय में नवीन जिज्ञासुओं की सुविधा के लिए सभी मन्त्र और आंगिक विधियां विस्तार से समझायी गयी है । अतः जिन्हें ज्ञात वा स्मरण न हो अगले अध्याय का सहयोग लें )
तत्पश्चात चन्दनद्वयादि सहित निर्दिष्ट आठ द्रव्यों को शुद्ध जल में मिश्रित कर मधु से किंचित पतला, गाढ़ा घोल तैयार करें । यन्त्र इसी से लिखना है ।  ये मात्रा करीब सौ ग्राम अवश्य हो, ताकि यन्त्र-लेखन की पर्याप्त आवृत्ति हेतु कम न पड़े । अष्टगन्धचन्दन घिसते समय मानसिक रुप से शिवपंचाक्षर मन्त्र चलता रहे ।
          तत्पश्चात अनार की लेखनी को किसी अन्य पात्र में स्थापित करके ऊँ दाडिमलेखिन्यै नमः का उच्चारण करते हुए सामान्य रीति से पंचोपचार पूजन करे । अब फूल की थाली को सामने रख कर, पूर्व में तैयार किये गये अष्टगन्ध सामग्री से थाली के घेरे (वृत्त) के अन्दर यथोचित आकार का वर्ग बनावें । उस वर्ग में जन्मांकचक्र की तरह द्वादशभावों को स्पष्ट करे । राश्यंक लिखना आवश्यक नहीं है, किन्तु लग्नस्थान में राहु और सप्तम स्थान में केतु लिख दे । अब यथासम्भव कलात्मक रुप से एक सर्पाकृति ऐसा बनावे जिसका फन भाग लग्न में हो और क्रमशः द्वादश, एकादश, दशम, नवम, अष्टम होते हुए सप्तम भाव में आकर पूंछ समाप्त हो जाये । अब पुनः एक अन्य सर्पाकृति ठीक इसके विपरीत भावों को लेकर बनावे, जिसका मुख भाग सप्तम में और आगे क्रमशः षष्टम, पंचम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय होते हुए लग्न में आकर पूंछ समाप्त हो जाये । ये आपका प्रथम यन्त्र लेखन कार्य हो गया ।  
           अब यन्त्र की प्राणप्रतिष्ठा हेतु विनियोगादि कर्म करे । यथा—

विनियोगः ॐ अस्य श्री प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः, ऋग्यजुः सामानिच्छन्दांसि, क्रियामयवपुः, प्राणाख्या देवता आँ बीजं,  हीँ शक्तिः, क्रौँ कीलकं देव प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः ।। -  हथेली में जल लेकर,मन्त्रोच्चार के वाद सामने छोड़ दे ।
    
 न्यास— अब अपने अंगों में न्यास करें- ॐ ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि । ऋग्यजुःसामच्छन्दोभ्यो नमो मुखे । प्राणाख्यादेवतायैः नमः हृदि । आं बीजाय नमो गुह्ये । ह्रीँ शक्तये नमः पादयोः । क्रौं कीलकाय नमः सर्वाङ्गे । (इनका क्रमशः उच्चारण करते हुए शिर, मुख, हृदय, गुदा स्थान, पैर और सर्वांग का स्पर्श करें)

प्राणप्रतिष्ठा —अब, इस प्रकार विस्तृत विधान करने के पश्चात् दोनों हाथों से यन्त्र को ढके और प्राणप्रतिष्ठा मन्त्रों का वाचन करें—
ॐ आँ हीँ क्रौँ यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहमस्य कालसर्पदोषनिवारणयन्त्रस्य प्राणा इह प्राणाः ।  ॐ आँ हीँ क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहमस्य कालसर्पदोषनिवारणयन्त्रस्य जीव इह स्थितः । ॐ आँ हीँ क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहमस्य कालसर्पदोषनिवारणयन्त्रस्य  वाङ्गमनस्त्वक्चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वापाणिपादपायूषस्थानि इहागत्य स्वस्तये सुखेन चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ।
अब, यन्त्र के मध्य भाग पर दाहिने हाथ का अंगूठा रखकर, मन्त्रोच्चारण करें—  ॐ अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च । अस्यै देवत्वमर्चायै मामेहति च कश्चन ।।
अब इस यन्त्र की विधिवत पंचोपचार पूजन करें-
          ऊँ कालसर्पदोषनिवारणयन्त्राय नमः – यही आपका मूल मन्त्र है । इसी से सांगोपांग पूजन सम्पन्न करना है ।
पूजन के पश्चात ऊँ यन्त्रराजाय विद्महे तन्नो यन्त्रम प्रचोदयात्—इस मन्त्र का अष्टोत्तरशत जप रुद्राक्ष मालिका पर सम्पन्न करे ।
अब मूल मन्त्र से यन्त्र की प्रार्थना करे— ऊँ कालसर्पदोषनिवारणयन्त्राय नमः प्रसन्नो भव वरदा भव । तत्पश्चात निम्नाकिंत मन्त्रोच्चारण पूर्वक विसर्जनार्थ अक्षत छोड़े- भक्तानाम हितार्थाय पुनरागमनाय च । गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्व स्थाने परमेश्वर । ।
          अब थाली में थोड़ा जल डाल कर यन्त्र को अच्छी तरह धो डाले ताकि थाली पूरी तरह साफ हो जाये और पास रखे दूसरे पात्र में उस यन्त्र प्रक्षालित जल को रख दे ।
            इस प्रकार ये कुल क्रिया एक बार सम्पन्न हुयी । इसी क्रिया को यानी यन्त्र लेखन, प्राणप्रतिष्ठा, पूजन, मन्त्र जपादि पर्यन्त—पूरी क्रिया को इसी भांति एकसौआठ बार सम्पन्न करना है । हर बार थाली के धोवन को उसी पात्र में इकट्ठा करते जाना है । यन्त्र-लेखन-पूजनादि क्रिया की एकसौआठवीं आवृत्ति समापन के पश्चात एकत्रित धोवन को अपने सिर पर थोड़ा छिड़क ले और शरीर के अन्य अंगों पर भी मार्जन कर ले । तत्पश्चात धोवन को किसी पीपल वृक्ष में आदर पूर्वक डाल दे । सुविधा हो तो नदी-तालाब में भी विसर्जित किया जा सकता है ।
            गौरतलब है कि ये पूरी प्रक्रिया थोड़ी उबाऊ है, किन्तु धैर्य और विश्वास पूर्वक सम्पन्न तो करना ही है । ग्रहणकाल कम हो तो चौवन-चौवन करके दो ग्रहणों में पूरा करने की छूट या सुविधा है, किन्तु ये कार्य एक सम्वत्सर के अन्दर ही होना चाहिए, न कि कभी भी ।
            इस पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद यन्त्र-साधना पूरी हो गयी । अब आगे प्रयोग हेतु शुभ मुहूर्तों में उक्त विधि से भोजपत्र पर एक यन्त्र लिख कर उसी प्रकार पूरी क्रिया सम्पन्न करे, तत्पश्चात दोष-ग्रस्त व्यक्ति के द्वारा भी पूजन करावे और आगे संक्षिप्त रीति से इस स्थापित कालसर्पदोष निवारणयन्त्र की पूजा का आदेश करे । आगे प्रयोगकर्ता द्वारा नित्य पूजा में प्राणप्रतिष्ठा वाली क्रिया नहीं करनी है । शेष क्रियायें—पंचोपचार पूजन, कम से कम एक-एक माला दोनों मन्त्रों का जप तो करना ही चाहिए । साथ ही शिवपंचाक्षर मन्त्र का भी यथा संख्या जप हो सके तो सोने में सुगन्ध । अस्तु ।

क्रमशः..(दूसरा उपचार)...

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