गतांश से आगे...
छठे अध्याय का चौथा और अन्तिम भाग
क्रमशः...
छठे अध्याय का चौथा और अन्तिम भाग
द्वादशभावानुसार
उपचार—
अब यहां कुछ ऐसे सरल उपचारों की
चर्चा करते हैं, जो कुण्डली के तन्वादि द्वादश भावों को ध्यान में रखते हुए, उनमें
बनने वाले कालसर्पदोषों का निवारण करते हैं । यथा—
१. तनभाव—
प्रथम
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को सदा अपने गले में चांदी का
वर्गाकार टुकड़ा धारण करना चाहिए । धारण का ये कार्य पूर्णिमा या किसी सोमवार को (चन्द्रबल
विचार करके) करना चाहिए । धारण से पूर्व यन्त्र-स्थापन विधि से उस रजतपत्र की
प्राणप्रतिष्ठा-पूजनादि अवश्य सम्पन्न कर ले ।
२. धनभाव— द्वितीय
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को अपने निवासस्थान के पश्चिमोत्तरकोण
(वायुकोण) के सफाई पर विशेष ध्यान रखना चाहिए । नित्य यहां झाड़ू-पोंछा करके, मिट्टी
के पात्र में जल रख देना चाहिए, और अगले दिन इसे बाहर जाकर, चौराहे पर फेंक देना
चाहिए । ये कार्य कुछ लम्बे समय तक नित्यप्रति करना चाहिए । लागातार यदि न हो सके
तो बीच-बीच में कुछ दिनों का अन्तराल देकर भी लागातार इक्कीस दिनों तक करना चाहिए ।
३. सहजभाव—
तृतीय
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को अपने जन्मतिथि (पंचांग के
अनुसार, न कि कैलेण्डर की तारीख) पर गुड़, गेहूं और तांबे का टुकड़ा या कोई पात्र
योग्य ब्राह्मण को सदक्षिणा दान करना चाहिए । ये कार्य लागातार कम से कम चार वर्ष
तक अवश्य करे । और जीवन में तीन बार (वाल्यकाल, युवाकाल और फिर पचास के बाद का कोई
वर्ष) करे । प्रयोग काल में (कुण्डली विचार करके) राहु-केतु की उभय दशाओं का
भोगकाल मिले तो अति उत्तम ।
४. सुहृदभाव—
चतुर्थ
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को प्रतिदिन प्रवाहित जल में (धारा
की ओर मुंह करके खड़े होकर) थोड़ा दूध प्रवाहित करना चाहिए । प्रवाहित करने से
पूर्व अपने शरीर का ही मन ही मन ध्यान करते हुए, ये भाव करे कि उसके शरीर से कुछ दोष
निकल कर जल में प्रवाहित होते जा रहे हैं । ये कार्य सुविधानुसार लागातार ग्यारह
सोमवार को करे । कुछ वर्षों के अन्तराल के पश्चात क्रिया फिर दोहरावे ।
५. सुतभाव—
पंचम
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को अपने आवास के ईशान यानी
पूर्वोत्तर कोण में मिट्टी, चीनीमिट्टी या संगमर्मर की बनी हाथी की छोटी मूर्ति
स्थापित करनी चाहिए ।
६. रिपुभाव—
षष्ठम भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को प्रत्येक मास की शुक्ल पंचमी को एक जलदार नारियल अपने सिर पर
दक्षिणावर्त तीन बार घुमा कर, जलप्रवाह के विपरीत दिशा में मुंह करके (यानी जिधर
से पानी बहकर आ रहा हो) जल में छोड़ दे ।
७. जायाभाव—
सप्तम भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को सायं काल में (गोधूलि
बेला उत्तम) किसी निर्जन स्थान में जाकर मिट्टी के सकोरे में थोड़ा दूध भर कर रख
देना चाहिए । ये काम पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी वा अमावस्या को किया जाये तो अति
उत्तम ।
८. आयुभाव—
अष्टम
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को यथासम्भव नित्यप्रति गाय को
गुड़, रोटी, तिल वा उड़द के बने सामान खिलाना चाहिए । गाय काले रंग की हो तो अति
उत्तम ।
९. धर्मभाव—
नवम भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को शिवरात्रि के दिन
(सूर्योदय से सूर्यास्त के अन्दर) अठारह नारियल आसपास के अठारह शिवस्थान में दान
करना चाहिए । अठारह मन्दिरों की संख्या पूरी होने में कठिनाई हो तो आवृत्ति की जा
सकती है । जैसे एक से नौ तक, पुनः एक से नौ तक । ऐसा नहीं कि एक में एक ही बार
दो ।
१०. कर्मभाव—
दशम भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को किसी महत्त्वपूर्ण
कार्य हेतु घर से प्रस्थान करते समय खड़ा उड़द (कालाउड़द) एक मुट्ठी लेकर बाहर
निकले और सिर पर सात बार दक्षिणावर्त घुमा कर विखेर दे । कालसर्पदोष के कारण उसके
कार्यों में आने वाले व्यवधान शमित होंगे और शुभत्व की प्राप्ति होगी ।
११. आयभाव—
एकादश
भाव से यदि कालसर्पदोष सृजित हो रहा हो तो ऐसे जातक को प्रत्येक बुधवार को
पूरे घर की ठीक से सफाई करके, कचरा बाहर दूर जाकर फेंके तथा उस दिन प्रयास हो कि
फटा-पुराना वस्त्र ही धारण किया जाये । कम से कम घर में रहते भर में तो इस बात का
पालन किया ही जा सकता है ।
१२. व्ययभाव—
यथासम्भव प्रत्येक अमावस्या को काले कपड़े में बांध कर मुट्ठीभर काला तिल, दूध से
प्रक्षालित जौ के दाने, थोड़ा सा काठ कोयला और एक नारियल लेकर प्रवाहित जल में, प्रवाह
के विपरीत दिशा में (जिधर से पानी आरहा हो) मुंह करके खड़े होकर, सिर पर सात बार
दक्षिणावर्त घुमा कर प्रवाहित कर दे । फिर उसे लांघते हुए दो-चार उसी दिशा में आगे
बढ़कर, सिर पर जल का छिड़काव करते हुए, भगवन्नामोच्चारण करते हुए घर वापस आ जाये।
ये कार्य यथासम्भव कई बार करे । अस्तु ।
राहुग्रह
शान्तिःएक विशिष्ट उपचारः जयन्ति प्रयोग —
कालसर्पयोग
जनित पीड़ा के लिए राहु विशेष रुप से जिम्मेवार हैं । अतः इनकी शान्ति और
प्रसन्नता हेतु एक विशेष उपाय की यहां चर्चा करता हूँ । जन्मांकचक्रानुसार राहु की
महादशा, अन्तर्दशा या अन्य स्थितियों में भी राहु-पीड़ा-शान्ति के लिए इस उपचार का
प्रयोग किया जा सकता है । ये प्रयोग शतानुभूत है ।
दो किलो
जौ, एक मीटर लाल एकरंगा, एक लीटर गोमूत्र (अभाव में गोदुग्ध) का प्रबन्ध करलें ।
किसी शनिवार को दिन के अन्तिम प्रहर में , जमीन में एकरंगा विछा करके, प्रभावित
व्यक्ति को नैर्ऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम कोण) की ओर मुंह करके, बैठा दें । सामने
किसी वरतन में जौ को रख लें । व्यक्ति की दोनों हाथ की अंजुली में थोड़ा-थोड़ा
गोमूत्र (या गोदुग्ध) डालें और उसे कहें कि वरतन में रखे हुए जौ पर छिड़कता जाए ।
इस क्रिया को पांच-सात बार करें, ताकि सारा गोमूत्र जौ पर छिड़का जाए । इस बीच
ब्राह्मण या स्वयं (प्रभावित व्यक्ति) ऊँ राँ राहवे नमः मन्त्र का मानसिक
उच्चारण करते रहें । अब व्यक्ति को कहें कि तीन मुट्ठी जौ निकाल कर अलग कर दे ।
इसे किसी दूसरे लाल कपड़े में पोटली बांध दे, और बाद में प्रभावित व्यक्ति तकिए
में डाल दे । फिलहाल प्रभावित व्यक्ति उसी
तरह कपड़े पर बैठा रहेगा और ब्राह्मण एक-एक मुट्टी गोमूत्र मिश्रित जौ को
राहुमन्त्रोच्चारण करते हुए, उसके सिर पर फेंकते जाए । (ये काम प्रभावित व्यक्ति
की माता-पिता भी स्वयं कर सकते हैं) थोड़ी
देर में जब पूरा जौ समाप्त हो जाए, तो उठ खड़ा हो । शरीर पर और आसपास विखरे जौ को बटोर कर उसी
कपड़े में बांध दे जिस पर स्वयं पहले बैठा था । अब पास के किसी नदी या अन्य बहते
जलस्रोत में जाकर, जिधर से पानी आ रहा हो उधर ही मुंह रखते हुए, कपड़े की गठरी खोल
कर प्रवाहित कर दे और फिर कपड़ा भी फेंक दे । सम्भव हो तो वहीं या नहीं तो घर आकर
स्नान अवश्य कर ले । इस क्रिया को सात शनिवार लागातार किया जाए तो बहुत ही अच्छा । ध्यातव्य है कि अगली बार के प्रयोग
के समय पहले वाला तकिए में रखा पोटली भी साथ ले जाकर प्रवाहित कर देना है । सबसे
अन्तिम बार के प्रयोग में रखा जाने वाला पोटली जब बिलकुल सड़ने लगे, तभी निकाल कर
प्रवाहित करे, अन्यथा तब तक सुरक्षित तकिए में डाले रहे । अस्तु ।
---)(---क्रमशः...
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