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(छठे अध्याय का तीसरा भाग- उपचार क्रम में सत्रहवां उपचार)
(छठे अध्याय का तीसरा भाग- उपचार क्रम में सत्रहवां उपचार)
उपचार
१७.
नागबलिःदोषशान्ति
हेतु एक विशेष प्रयोग— विविध शान्ति-कर्मों में नागबलि का विशिष्ठ स्थान है । जाने-अनजाने, इस
जन्म में या पूर्व किसी जन्म में सर्पों के प्रति जो अपराध हुआ है, उसके परिणाम
स्वरुप उत्पन्न सर्पदोष में इस क्रिया का अद्भुत प्रभाव है । अतः इस क्रिया का प्रयोग
सिर्फ कालसर्पदोष निवारण हेतु ही नहीं, प्रत्युत अन्यान्य सर्पवाधाओं (दोषों, शापों,
सन्तानहीनता आदि) में भी किया जाता है । अन्तर इतना ही है कि सन्तानहीनतादि दोषों
के निवारण में क्रिया सपत्निक करनी होती है, शेष दोषों में सिर्फ
प्रभावित व्यक्ति ही क्रिया में भाग लेता है ।
नागबलि
की क्रिया किसी महीने की अमावस्या तिथि को करना सर्वोत्तम है । इसके अतिरिक्त
पंचमी वा पूर्णिमा, तथा आष्लेषा नक्षत्रयुक्त नवमी तिथि में भी किया जा सकता है । पूरा
विधान तीन दिवसीय है । आगे क्रियाओं में प्रयुक्त दाह और सूतक शब्द से भ्रमित नहीं
होना चाहिए । क्यों कि ये सारा कर्म सव्य उपवीति और पूर्वाभिमुख ही होता है, यानि
कोई अशुभकर्म नहीं है ।
प्राचीन ग्रन्थों में नागबलिकर्म से
पूर्व अन्यान्य प्रायश्चित कर्म (कृच्छ्रादि) करने का भी आदेश है, किन्तु युगादि
भेद – काल-प्रभाववश मनुष्य जटिल कर्मकाण्डों के प्रति अधैर्यवान हो गया है । पहले
की तरह आज लोग कठिन कर्म - यज्ञादि करने से कतराते हैं । श्रद्धा-विश्वास होते हुए
भी, शारीरीक श्रम और आर्थिक बोझ वहन करने में समर्थ होते हुए भी असमर्थता जताते
हैं । फल तो बहुत बड़ा चाहते हैं, किन्तु उसके लिए यथोचित श्रम और धैर्य का
नितान्त अभाव दीखता है आजकल । उपाय तो आशुकारी चाहिए, किन्तु श्रम और धन
न्यूनातिन्यून लगाना पड़े – ऐसी ही सोच है आधुनिक जनमानस में ।
सच पूछें तो नागबलिकर्म कोई बहुत
जटिल कर्मकाण्ड नहीं है । कृच्छ्रादि प्रायश्चित कर्म यदि न भी कर सकें, तो कम से
कम मुख्य क्रिया के एक दिन पूर्व कायशुद्धि निमित्त ब्रह्मचर्य पालन करते हुए
फलाहार वा विशुद्ध सात्विक आहार पर रहे । यथासम्भव पूरे दिन, जितना बन सके, बिना
आसन और माला (गणना) के ही, शिवपंचाक्षर मन्त्र का अनवरत मानसिक जप करे । अगले
दिन स्नानादि नित्यकृत्य से निवृत्त होकर, नवीन वस्त्र, यज्ञोपवीतादि धारण करे । आचार्य
को आमन्त्रित करके सर्वप्रथम दक्षिणा सहित लौहदण्ड दान करे । इसके लिए संकल्प
वाक्य— ऊँ अद्येत्यादि.....के साथ इस वाक्यखंड को भी जोड़ ले— सर्पवधदोषपरिहार्थं
इमं लौहदण्डं सदक्षिणं तुभ्यमहं सम्प्रददे । तत्पश्चात आचार्य की आज्ञा लेकर चावल,
गेहूं या तिल चूर्ण ( सुविधानुसार किसी एक) से एक सर्प की मूर्ति बनावे । और आम की
लकड़ी से बनी पीठिका पर पीला वस्त्र विछा कर स्थापित कर दे ।
हाथों में अक्षत-पुष्प लेकर
प्रार्थना करे— एहि पूर्वमृतः सर्प अस्मिन्पिष्टे
समाविश । संस्कारार्थं अहं भक्त्या प्रार्थयामि समाहितः ।। इस प्रकार आवाहन
प्रार्थना करने के पश्चात प्राणप्रतिष्ठा विधि से (इसी अध्याय में यन्त्र-स्थापन
क्रम में निर्दिष्ट ) प्राणप्रतिष्ठा
करके, नागराज की षोडशोपचार वा पंचोपचार पूजन करे । पूजन के पश्चात पुनः प्रार्थना
करे— एहि पूर्वमृतः सर्प अस्मिन्पिष्टे समाविश । संस्कारार्थं अहं भक्त्या
प्रार्थयामि समाहितः ।।
अब दही-चावल, वा धान का लावा और दूध
एक पत्रावलि में लेकर, जलाक्षत-पुष्पादि सहित बोले— भो सर्प इमं बलिं गृहाण तथा
च मम अभ्युदयं कुरु । आम्रकाष्ठ पीठिकासीन सर्पमूर्ति के समक्ष ये बलि सामग्री
रख दे । और अपने शरीर पर तीन बार जल छिड़के । थोडा जल अपने पैरों पर भी छिड़क ले।
अब पुनः जला-अक्षत-पुष्पादि हाथों
में लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्येत्यादि.....मम इह जन्मनि जन्मान्तरे वा
ज्ञाताज्ञात जात सर्पवधोत्थदोष परिहार्थं सर्पसंस्कार कर्म करिष्ये । (पूरे
संकल्प के लिए अगले अध्याय का अवलोकन करें)
अब काष्ठपीठिका के दक्षिण पार्श्व
में छोटी सी बालुकावेदी बनावें और उस पर विधिवत पंचभूसंस्कार सहित अग्निस्थापन, पूजन
करें । पूजन के पश्चात अग्नि में दो संविधाएं (आम्रकाष्ठ) डालें, इस मन्त्रोच्चारण
के साथ— अस्मि सर्प संस्कार होम कर्मणि देवता परिग्रहार्थं अन्वाधानं करिष्ये
चक्षुषी आज्येन इत्यन्ते अग्नौ अग्निं वायुं सूर्यं आज्येन सर्पमुखे प्रजापति
आज्येन आज्यशेषेण सर्प सर्पो यक्षे ।
अब वालुकावेदी की आग्नेय दिशा में एक
छोटी सी चिता भूमि की संकल्पना करे (अग्निवेदी पर ही) । उस भाग में जल का सिंचन
करे । तथा अग्नि और चिताखंड को एक कुशा से जोड़ने का भाव करे । अग्निमुखी (कुशाग्र)
से परिसारण क रे। अंजुली में जल लेकर दाहिने कान का स्पर्श करे एवं स्रुवा (आहुति
डालने हेतु काष्ठ उपकरण) वा आम्रपल्लव से क्रमशः तीनों व्याहृतियों से तीन बार
घृताहुति अग्नि के डाले । यथा—ऊँ भूः स्वाहा इदमग्नये न मम, ऊँ भुवः स्वाहा इदं
वायवे न मम, ऊँ स्वः स्वाहा इदं सूर्याय न मम । तत्पश्चात पूर्व निर्मित
सर्पमूर्ति को कल्पित चिताभूमि पर स्थापित करे और सप्तव्याहृहितयों से सर्पमुख में
पूर्व की भांति ही चौथी घृताहुति प्रदान करे । यथा— ऊँ भूः भुवः स्वः महः जनः
तपः सत्यम् स्वाहा । अथवा बारी-बारी से सातों व्याहृतियों को स्वाहायुक्त करके
सात आहुतियां भी डाल सकते हैं । तत्पश्चात व्याहृति मन्त्रोच्चारण पूर्वक सर्पमुख
में जल प्रदान करे और विनियोग करे — अग्नेरक्षाणो वसिष्ठौग्निर्गायत्री
सर्पायाग्निदाने विनियोगः ।
अब पुष्पाक्षत लेकर प्रार्थना करे— नमोस्तु
सर्पेभ्यो ये के च पृथिवी मतु । ये अन्तरिक्षे ये देवी तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः । ये दोरोयने
दिवो ये वा सूर्यस्य राशिभिः येषामण्सु सदस्कृतं तेभ्यः । या इषवो यातु धातुनां ये
वा वनस्पति रनु देवा वटेषु शरते तेभ्यः । त्राहि त्राहि महाभोगिन सर्पोद्रव दुःखतः
सन्तानं देहि मे पुण्यां निर्दुष्टां दीर्घ जीवीतम् । प्रपन्न पाहिमां भक्त्या कृपालो
दीनवत्सलः । ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कृतः सर्पवधो मया । जन्मान्तरे तर्थतस्मिन
तत्पूर्रेस्थवा विभो । तत्पापं नाशयं क्षिप्रं अपराधं क्षमस्व मे ।
उक्त
नागेन्द्र प्रार्थना के पश्चात स्नान करे । स्नानोपरान्त घृत, दुग्ध और जल के
मिश्रण से अग्नि पर छिड़काव करे । इस बीच सर्पमूर्ति दग्ध हो चुकी होगी । अतः उसपर
पुनः जल प्रोक्षण करे । इस प्रकार प्रथम दिवसीय कर्म समाप्त हुआ । आगे तीन रात्रि
पर्यन्त सर्पदाह का सूतक माने । सात्विक आहार करे और कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करे ।
चौथे दिन पुनः स्नानादि से निवृत्त हो नौ
ब्राह्मणों को आमन्त्रित करे । आचमन, पाद-प्रक्षालन, यथोचित वस्त्र एवं आसन प्रदान
करके, क्रमशः उन्हें नवनागों के भाव से विधिवत
पूजित करे । यथा— सर्प स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं
स्नानीयं जलं, इदं वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं
पुष्पं, इदं पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
इस भांति क्रमशः सभी ब्राह्मणों का पूजन करे ।
यथा —
१.अनन्त
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि... ।
२.तक्षक
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
३. वासुकि
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
४.शेष
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं
अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं
कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
५. कम्बल
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि... ।
६. कर्कोटक
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
७. कालिक
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्,इदं अर्घ्यं,इदं स्नानीयं जलं,इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं,इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
८.शंखपाल
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं
च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
९.भूधर
स्वरुपिणे ब्राह्मणाय इदं पाद्यम्, इदं अर्घ्यं, इदं स्नानीयं जलं, इदं
वस्त्रं-उपवस्त्रं-यज्ञोपवीतं च । इदं गन्धं, इदं कुमकुमं, इदं पुष्पं, इदं
पुष्पमाल्यां इत्यादि...।
पूजन के
पश्चात सुस्वादु भोजन करावे । सबके सामने अगल-अलग पत्रावलियों में भोजन परोसने के
बाद, सभी पात्रों पर बारी-बारी से जल का घेरा लगाकर, हाथ में जल-पुष्पाक्षत लेकर
बोले—सर्पाय इदं अन्नं परिविष्ठ परिवेक्ष्यमाणं च दत्तं दास्यमानं च अतृप्ते अमृतरुपेण स्वाहा
सर्पद्यतां न मम् । ब्रह्मण-भोजन के
बाद भो सर्पं अयं ते बलिः कहते हुए
क्रमशः पूर्वोक्त नाममन्त्रों से वस्त्रअलंकारादि यथाशक्ति भेंट करे । तत्पश्चात मुखशुध्यर्थ
पान का बीड़ा, एलालवंगादि भेंट करे । तत्पश्चात भोजनान्त दक्षिणा भी यथाशक्ति
अवश्य प्रदान करे । तभी भोजन कराने का पूर्ण फल प्राप्त होता है ।
अब
कलश-स्थापन-पूजन विधि से पुनः सर्वकर्म सम्पन्न करे और उस पर यथा शक्ति सुवर्ण
निर्मित नाग की स्थापना करके, पुनः षोडशोपचार पूजन करे । पूजन के अन्त में
अग्निस्तवन मन्त्रों का पाठ करे । यथा—
ब्रह्मलोके
च ये सर्पाः शेषनाग पुरोगमाः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
विष्णुलोके
च ये सर्पाः वासुकि प्रमुखाश्चये ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
रुद्रलोके
च ये सर्पाः तक्षक प्रमुखास्थता ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
खांडवस्य
तथा दाहे स्वर्ग ये च समाधितः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
सर्पसत्रे
च ये सर्पाः आस्तिकेन च रक्षिताः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
प्रलये
च ये सर्पाः कर्कोट प्रमुखाश्च ये ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
धर्मलोके
च ये सर्पाः वैतरण्यां समाश्रिताः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
ये
सर्पाः पार्वतीयेषुदरीसंधिषु संस्थिताः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
ग्रामे
वा यदि वारण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति हि ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
पृथिव्यां
चैव ये सर्पाः ये सर्पाः बिलसंस्थिताः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
रसातले
च ये सर्पाः अनन्ताद्या महाबलाः ।
नमोऽस्तु
तेभ्यः सुप्रीताः प्रसन्नाः सन्तु मे सदा ।।
इस
प्रकार स्तवन करके, पुनः अंजुलि में जलपुष्पाक्षतादि ग्रहण करे और ऊँ
अद्येत्यादि....संकल्प वाक्य के अन्त में बोले— कृतसंस्कारकर्मणः
सांगतार्थं इमं हेमनागं सकलशं सवस्त्रं सदक्षिणं तुभ्यमहं संप्रददे न मम । अनेन
स्वर्णनागदानेन अनन्तादयो नागदेवता प्रीयताम् – और कलश सहित उठाकर आचार्य को
प्रदान करे । पुनः गोदान निमित्त अतिरिक्त द्रव्यादि भी प्रदान करे । पुनः
अक्षत-पुष्पादि लेकर – यस्यस्मृत्या च मयाकृतं सर्पसंस्काराख्य कर्म तद्भक्तां
विप्राणां वचनात्परमेश्वरप्रसादात्सर्वं परिपूर्णमस्तु –उच्चारण करते हुए कर्म
की समाप्ति करे । आचार्य तथास्तु बोलते हुए यजमान के सिर पर हाथ रखकर आशीष
प्रदान करें । कर्म समाप्ति के पश्चात पुनः यथासम्भव ब्राह्मण-भोजन करावे ।
नोटः- इस विशेष
नागबलिविधान की सांगोंपांग सम्पन्नता से विविध पापों का क्षय होकर, आरोग्य, पुत्र,धन,
यशादि की प्राप्ति होती है ।
अस्तु ।
क्रमशः...छठे अध्याय का चौथा और अन्तिम भाग
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