कालसर्पयोगःःकारण और निवारणःःभाग दस

गतांश से आगे....

                       तृतीय अध्याय


 कालसर्पयोग को प्रभावित करने वाले अन्यान्य शुभाशुभ योग- 
कालसर्पयोग के प्रभाव को न्यूनाधिक करने में अन्यान्य शुभ वा अशुभ योगों का प्रभाव भी प्रायः देखा जाता है । यहां वैसे ही कुछ योगों की चर्चा की जा रही है ।
प्रभावकारी शुभयोग—
१.       जन्मकुण्डली में पंचमहापुरुषयोग यदि बनता हो तो कालसर्पयोग भंग हो जाता है । यानी निस्फल हो जाता है । ये योग क्रमशः इस प्रकार बनते हैं—स्वगेहतुंगाश्रयकेन्द्र संस्थैरुच्चोपगैर्वाचनसूनुमुख्यैः । क्रमेण योगा रुचकाख्यभद्रहं- साख्यमालव्यशशाभिधानाः ।। (रुचक, मालव्य, हंस, भद्र और शशक) प्राचीन ज्योतिषीय ग्रन्थों में इन पर विशद चर्चा करते हुए काफी महत्त्व दर्शाया गया है ।
२.       केन्द्र में स्वगृही (वृष-तुला) का शुक्र हो, वा शुक्र उच्चस्थ (मीन) राशि पर हों तो मालव्य नामक शुभयोग बनकर, कालसर्पयोग का शमन होता है ।
३.       केन्द्र में स्वगृही (मेष-वृश्चिक) वा उच्च (मकर) का मंगल विराज रहा हो तो रुचक नामक योग का सृजन होकर कालसर्पयोग का शमन होता है ।
४.       केन्द्र में स्वगृही (मकर-कुम्भ) वा उच्च (तुला) का शनि हो तो शशक नामक योग का सृजन होकर कालसर्पयोग का शमन होता है ।
५.       केन्द्र में स्वगृही (मिथुन-कन्या) वा उच्च (कन्या) का बुध हो तो भद्र योग का सृजन होकर कालसर्पयोग का शमन होता है ।
६.       केन्द्र में स्वगृही (धनु-मीन) वा उच्च (कर्क) का वृहस्पति हो तो हंस योग का सृजन होकर कालसर्पयोग का शमन होता है।
७.       उच्च का बुध (कन्या) और सूर्य (मेष) हो तो बुधादित्य योग बनता है, और इससे कालसर्पयोग भंग होता है । (बुधादित्ययोग का एक और प्रकार है- किसी भी भाव में, किसी भी राशि पर सूर्य-बुध  की युति) किन्तु इससे कालसर्पयोग भंग नहीं होता ।
८.       केन्द्र में उच्च (वृष) के चन्द्रमा के साथ मंगल की युति होने पर चन्द्रमंगलयोग (लक्ष्मीयोग) बनता है । इससे भी कालसर्पयोग भंग होता है ।
९.       केन्द्र में स्वगृही (धनु-मीन) वा उच्च का गुरु हो एवं गुरु, शुक्र, शनि, मंगल, सूर्य, चन्द्र में से किन्हीं चार की युति हो तो कालसर्पयोग भंग होता है।
१०.    ध्यातव्य है कि उक्त चतुर्ग्रहयुति का लाभ ऊपर गिनाये गए सात में से किसी भी ग्रह के स्वगृही वा उच्चस्थ होने पर जातक को मिलता है ।
११.   जन्मांक चक्रानुसार स्थिरकारक ग्रहों में कोई दो ग्रह उच्च का अन्य रीति से बली हो तो जातक कालसर्पयोग की अवहेलना करते हुए, जीवन में हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाने का प्रयास करता है और प्रायः सफल भी होता है ।
१२.   कालसर्पयोग के साथ किसी भी भाव में सूर्य-चन्द्र युति हो तो जातक अथक परिश्रम करने वाला और विविध कठिनाइयों का सामना करते हुए, अन्ततोगत्वा सफलता की मंजिल तय करने में सफल होता है ।
१३.   सूर्य-शनि एवं चन्द्र-बुध की युति के साथ कालसर्पयोग की स्थिति बनती हो तो जातक धनवाल, यशश्वी और धर्मनिष्ठ होता है ।
१४.   दशमभाव में राहु-चन्द्र ग्रहणयोग हो तो एक प्रकार का राजयोग बनता है, जो कालसर्पयोग को शमित करने में सक्षम है ।

प्रभावकारी अशुभयोग—

१.       गुरु और राहु की युति से गुरु-चाण्डाल योग का सृजन होकर कालसर्पयोग के दुष्प्रभाव में और भी वृद्धि होजाती है ।
२.       सूर्य-राहु वा चन्द्र–राहु की युति से ग्रहण योग का सृजन होकर कालसर्पयोग के दुष्प्रभाव में और भी वृद्धि होजाती है ।
३.       शुक्र-राहु की युति से अभोत्वक योग का सृजन होकर कालसर्पयोग के दुष्प्रभाव में और भी वृद्धि होजाती है ।
४.       मंगल-राहु की युति से अंगारक योग का सृजन होकर कालसर्पयोग के दुष्प्रभाव में और भी वृद्धि होजाती है ।
५.       बुध-राहु की युति से जड़त्व योग का सृजन होकर कालसर्पयोग के दुष्प्रभाव में और भी वृद्धि होजाती है ।
६.       शनि-राहु की युति से नन्दी योग का सृजन होकर कालसर्पयोग के दुष्प्रभाव में और भी वृद्धि होजाती है ।
७.       रवि, शनि और मंगल चतुर्थ, सप्तम, दशमभाव में हों, तथा चन्द्र, गुरु, बुध और शुक्र इन स्थानों में न हों तो सर्पयोग बनता है । कालसर्पयोग के साथ इस योग की स्थिति यदि बन जाये तो जातक कुटिल बुद्धि, लम्पट, निर्धन, अतिदुःखी और भिक्षाटन करने वाला या चन्दा उगाही कर हड़प जाने वाला होता है ।
          
       प्रभावकारी मिश्रयोग—
उक्त शुभ एवं अशुभ योगों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी योग होते हैं, जिनके कारण कालसर्पयोग का परिणाम मिश्र यानी किंचित शुभ, किंचित अशुभ हुआ करता है । यथा—
१.       कालसर्पयोग के सहित कुण्डली में केमद्रुम योग ( चन्द्रमा के साथ वा उससे दूसरे वा बारहवें स्थान में अन्य कोई ग्रह नहीं हों तथा केन्द्र में सूर्य को छोड़ कर अन्य कोई ग्रह नहीं हों) और शकटयोग (लग्न व सप्तम में ही सभी ग्रह का होना ) भी हो तो ऐसे जातक प्रायः अल्प पूंजी में कार्यारम्भ करते हैं और सफलता की आश लगाये निरन्तर ऋणबोझ से दबते चले जाते हैं । यदि सौभाग्य से सफलता मिल भी जाये यानी समुचित धनार्जन करने में सफल हो जायें, तो भी वो धन उनके जीवनकाल में ही समाप्त हो जाता है ।
२.       कालसर्पयोग-युक्त कुण्डली में चन्द्रमा से केन्द्रस्थ गुरु व बुध से केन्द्रस्थ शनि हो तो जातक प्रचुर ऐश्वर्यादि भोग करते हुए अति कामातुर और विलासी होता है । सामान्य परिश्रम से प्रचुर धनार्जन भले कर ले, किन्तु आजीवन असन्तुष्ट ही रहता है, भले ही वो धार्मिक प्रवृति वाला क्यों न हो । सुख-चैन विहीन ही जीवन गुजरता है और सदा शत्रुओं से घिरा हुआ रहता है । ऐसे योग वाले जातक को यदि समय पर सुयोग्य गुरु मिल जाये तो साधना में आशातीत सफलता लब्ध हो सकती है ।
३.       कालसर्पदोष-युक्त कुण्डली में यदि शनि-सूर्य, शनि-मंगल, राहु वा केतु के साथ शनि वा मंगल या अन्य किंचत योग यदि बनते हों तो समझ लें कि ऐसे जातक आजीवन कष्ट भोगने वाले ही होंगे । विद्यार्जन, धनार्जन, सन्तति, दाम्पत्य आदि सभी स्थितियों में अति संघर्षशील होने पर भी क्षुब्ध और असन्तुष्ट ही रहना पड़ता है । सदा ऋणबोझ से ग्रस्त रहते हैं । अपनों से सदा छले जाते हैं । जादू, टोने, टोटके का  शिकार भी होते हैं । किन्तु इतने के बावजूद ये शान से जीते हैं और शान से मरते भी हैं ।

     इस प्रकार स्पष्ट है कि कालसर्पयोग सदा समान रुप से प्रभावी होगा ही, ये सही नहीं है । उसके साथ जन्मकुण्डली में बनने वाले अन्यान्य शुभाशुभ योगों का भी विचार गहराई से अवश्य कर लेना चाहिए । अस्तु ।
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क्रमशः...

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