गतांश से आगे.....
चतुर्थ
अध्याय
कालसर्पयोग
के कारकः राहु-केतु के सम्बन्ध में विशेष बातें-
अब
इस अध्याय में कालसर्पयोग के मूलाधार— राहु-केतु के सम्बन्ध में कुछ अन्य ज्योतिषीय मत द्रष्टव्य हैं, जिनकी संक्षिप्त
चर्चा यहां आवश्यक प्रतीत हो रही है । इन पर सतर्कता और सावधानी पूर्वक ध्यान रखते
हुए कुण्डली का फलादेश करना चाहिए । यथा—
१.
वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्यादि
ग्रहों की तरह राहु-केतु का अन्तरिक्ष में कोई दृश्य (ठोस) अस्तित्त्व नहीं हैं ।
बल्कि ये दोनों ही ग्रह-कक्षाओं का आपसी कटान विन्दु है, जिसे वैज्ञानिक शैली में
सम्पात विन्दु कहते हैं ।
२.
प्राचीन ज्योतिषीय परम्परा भी इसे
छायाग्रह मानती रही है, किन्तु सुदीर्घ अध्ययन और अनुभव के आधार पर इनके जातकीय
प्रभाव को देखते हुए बाद के ज्योतिर्विदों ने सूर्यादि सप्तग्रह के वजाय राह्वादि
नवग्रह के रुप में मान्यता दे दी इन्हें ।
३.
राहु-केतु की गति राशिचक्र पर सदा
वक्र (विपरीत) होती है, यानी मेष से मीन की ओर यात्रा करेंगे, न कि अन्यान्य
ग्रहों की तरह मेष-वृषादि क्रम से ।
४.
राहु-केतु १८ वर्ष ७ महीने १८ दिन और १५ घंटे में मेषादि द्वादश राशि-पथ पर परिभ्रमण कर
लेते हैं, यानी किसी एक राशि से गुजरने में १ वर्ष ६ महीने १९ दिन २ घंटे १५ मिनट
लगते हैं ।
५.
पौराणिक मत से एक ही दैत्य— सिंहिका
पुत्र का राहु सिरोभाग है एवं केतु कबन्ध भाग ।
६.
विचारों का उठना (बनना) सिरोभाग में
हुआ करता है और क्रियान्वयन के लिए शरीर के शेष अंग जिम्मेवार हैं ।
७.
सिर होने के चलते राहु विचार तो कर
सकता है, किन्तु क्रियान्वयन हेतु पराधीन है, या कहें किसी पर अपना आधिपत्य दिखा
कर (किसी को किसी प्रकार अपने अधिकार में लेकर) ही विचारों को कार्यरुप देने में
सक्षम है, अन्यथा नहीं (निस्तेज की स्थिति) । और ठीक इसके विपरीत स्थिति केतु की
है, जिसके पास कार्यान्वयन हेतु अंग तो हैं, किन्तु विचार-शक्ति का नितान्त अभाव
है । परिणातः वह स्थान और अवस्थिति, दृष्टिप्रभाव, बलाबलादि के प्रभाव में आकर कोई
कार्य (शुभाशुभ) सम्पन्न कर पाता है ।
८.
राहु जिस भाव में होता है, उसके
भावेश, भावगत ग्रह, जहां दृष्टि डालता है उस भाव की राशि-ग्रहादि को अपने
विचार-शक्ति से प्रभावित करता है, और अपने मनमुताबिक कार्य करा लेता है, करने को
प्रेरित करता है, या कहें कराने में सक्षम होता है । ठीक इसके विपरीत केतु की
स्थिति है । केतु जिस भाव में बैठता है उस राशि, उस भाव, भावेश तथा स्वयं पर पड़ने
वाली ग्रह-दृष्टि के प्रभाव में आ जाता है और तदनुसार ही कार्य कर पाता है, या
कहें करने को विवश होता है ।
९.
राहु का स्वभाव शनिवत् एवं केतु का
स्वभाव कुजवत् (मंगल की तरह) है । विध्वंसक सा प्रतीत होने वाले शनि मूलतः अति न्यायप्रिय
और सत्यनिष्ठ हैं। सत्य और न्याय के प्रति निष्ठावान होने के कारण ही प्रायः लोग
इन्हें कठोर समझ लेते हैं । राहु की भी स्थिति शनि से काफी मिलती-जुलती है - फर्क
है तो सिर्फ मात्रा का । जबकि केतु कुजवत होने के कारण हिंसा, विध्वंस, रक्तपात,
उग्रता आदि प्रिय हैं ।
१०.
कुछ विद्वान केतु का स्वभाव गुरु
तुल्य कहते हैं, किन्तु व्यवहार और अनुभव में ऐसा नहीं मिलता । हां राशि-विभाजन
क्रम में केतु को गुरु की राशि (मीन) और राहु को बुध की राशि (कन्या) में स्वस्थान
मिला है । मिथुन राहु की परमोच्च राशि है । इसी भांति केतु को धनु पर परमोच्च माना
गया है । ध्यातव्य है कि गेह और तुंग दोनों क्रमशः उन्हीं ग्रहों से सम्बन्धित हैं
।
११.
राहु-केतु दोनों ही पृष्ठोदय ग्रह
हैं । दोनों की प्रकृति वात है और रस तिक्त । दोनों पापग्रह की श्रेणी में हैं । दोनों
ही सांध्यबली हैं ।
१२.
कालातिल, कालाउड़द, सरसो का तेल, सीसा,
तलवार, नीलावस्त्र, कम्बल, वांस का सूप, गोमेदरत्न, अभ्रक, नारियल, सप्तधान्यादि
इनके प्रिय पदार्थ हैं। इन वस्तुओं का दान राहु को शान्त और प्रसन्न करने में
सक्षम है ।
१३.
अन्यान्य ग्रहों की तुलना में
राहु-केतु-शनि का दान अधिक नुकसान देय होता है- दान ग्रहीता के लिए ।
१४.
एक खास बात ये है कि राहु जिस किसी ग्रह
पर अपना प्रभाव डालना चाहता हो तो शर्त ये है कि उसकी अंशात्मक स्थिति राहु से
न्यून होनी चाहिए, तभी वह पूर्ण रुप से हावी हो पाता है, अन्यथा नहीं । विपरीत
स्थिति में परिणाम भी विपरीत हो जाते हैं ।
१५.
जन्मांक चक्र में शून्य से बीस अंश
तक रहने पर राहु अच्छा फल देता है और उससे आगे रहने पर मिश्रफल प्रदान करता है ।
१६.
राजनीतिक उथल-पुथल में राहु का
विशेष योगदान हुआ करता है ।
१७.
जिसकी जन्म कुण्डली में राहु की
प्रधानता और शुभत्व दीखे वह प्रायः मायावी होता है । लगनशील होकर किसी काम को पूरा
करता है और अन्त-अन्त तक कार्य को गुप्त रखने का प्रयास करता है । स्वाभिमान, सम्मान,
बुद्धिमत्ता, वाकपटुता, तेजस्विता, स्वतन्त्रताप्रिय, किसी का हस्तक्षेप सहन न
करने वाला, अन्याय का डटकर मुकाबला करने वाला, दक्ष और चतुर हुआ करता है ।
१८.
गांजा, भांग, अफीम, तम्बाकू, कोयला,
ह्डडी, चमड़ा आदि के व्यवसायी प्रायः राहु के प्रभावक्षेत्र में आते हैं । गोबर, मिट्टी,
श्मशान भूमि के कार्यकर्ता, खून-पेशाब आदि जांच करने वाले भी राहु के आधिपत्य में
ही आते हैं ।
१९.
गुप्त व्याधियां, धातुक्षय, उदर
रोग, ज्ञानतन्तुओं की दुर्बलता, यहां तक कि कैंसर जैसी बीमारी के लिए भी राहु
जिम्मेवार है ।
२०.
जन्मकुण्डली में राहु किसी
पुरुषराशि (मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुम्भ) में अवस्थित होकर प्रथम, तृतीय, पंचम,
नवम वा एकादश भाव में हो तो तामसी फल देता है, जबकि इन्हीं भावों में स्त्रीराशि
(वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन) पर हो तो सात्विक फलदायी होता है ।
२१.
मेष, वृष, कर्क, कन्या और वृश्चिक
राशियों पर एवं दशमभाव में राहु बलवान होते हैं, तथा मीन, वृष और धनु राशि पर केतु
बलवान होते हैं ।
२२.
राहु जन्मकुण्डली में पितामह (दादा)
और केतु मातामह (नाना) का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
२३.
जन्मकुण्डली में प्रथम, तृतीय, नवम
एवं एकादश भाव में राहु होतो कलत्रादि का सुख-लाभ देता है, किन्तु यदि वो द्वितीय,
चतुर्थ, पंचम, षष्ठम, सप्तम एवं द्वादश भावस्थ हो तो सभी प्रकार के दुःखों का सृजन
करता है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पंचमस्थ राहु विलम्ब से ही सही, किन्तु अल्प
सन्तति सुख दे जाता है । नवम स्थान में होने पर अतिशय श्रीमान भी कालान्तर में
श्रीहीन (दरिद्र) होकर दुःख पाता है । दशमस्थ राहु हो तो प्रशासक होकर भी आर्थिक
तंगी में जीवन गुजारने को विवश होता है ।
२४.
कालसर्पयोग यदि वृष, मिथुन, कन्या
और तुला लग्न के जातकों में मिले तो तय है कि उन्हें अन्य लग्न-जातकों की तुलना
में अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा । इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मेष, कर्क, सिंह,
वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन लग्न के जातकों में कालसर्पदोष अपेक्षाकृत कम
कष्टदायी होता है ।
२५.
राहु प्रधान जातकों का भाग्योदय (प्रायः
और अचानक) जीवन के बयालीसवें वर्ष में और केतु प्रधान जातकों का भाग्योदय (प्रायः और अचानक) जीवन के अड़तालीसवें
वर्ष में होता है ।
२६.
राहु-केतु के साथ किसी भी ग्रह की
युति या प्रतियोग की स्थिति का मिलना किसी न किसी रुप में शापित कुण्डली का संकेत
है । ग्रहयुति यदि सात अंश से अधिक की दूरी बना रही हो तो समझें कि दोष में
पर्याप्त कमी आयेगी । ऐसे कुण्डलियों का ठीक से विचार और उपचार करना चाहिए ।
२७.
दुर्गुण-प्रधान होते हुए भी राहु को
भाग्यकारक और केतु को मोक्षकारक कहा गया है ।
२८.
राहु-केतु जनित शान्तिक्रिया
राहुकाल में ही करे तो अच्छा है । ध्यातव्य है कि राहुकाल में अन्यान्य शुभ क्रियायें
सम्पन्न नहीं करनी चाहिए । राहु-केतु का जप प्रारम्भ करना होतो शनिवार सायंकाल का
समय सर्वोत्म है ।
२९.
राहुकालःएक दृष्टिः—
दिन
|
राहुकाल
|
रविवार
|
सायं
४.३० से ६ बजे तक
|
सोमवार
|
प्रातः
७.३० से ९ बजे तक
|
मंगलवार
|
दोपहर
३ से ४.३० बजे तक
|
बुधवार
|
दोपहर
१२ से तक १.३० तक
|
गुरुवार
|
दोपहर
१.३० से ३ बजे तक
|
शुक्रवार
|
प्रातः
१०.३० से १२ बजे तक
|
शनिवार
|
रात्रि
९ बजे से १०.३० बजे तक
|
राहु-केतु की युति, दृष्टि, अवस्थिति
आदि के कारण कुछ और भी योग बनते हैं । प्रसंगवश यहां उन पर भी थोड़ी चर्चा समीचीन
प्रतीत हो रही है । ध्यातव्य है कि गोचर संचरण में भी इन योगों का विचार रखना
चाहिए । ऐसा नहीं कि सिर्फ जन्मांक की स्थायी स्थिति ही विचारणीय है । दूसरी बात
ये कि इनमें ज्यादातर कुयोग ही हैं, किन्तु कुछ सुयोग भी बन जाते हैं । अतः दावे
के साथ ये नहीं कह सकते कि राहु बिलकुल
बुरे ग्रह ही हैं । यथा—
1.
अष्टलक्ष्मीयोग—
जन्मांकचक्र में राहु छठे स्थान में हों और गुरु केन्द्र में हों तो अष्टलक्ष्मीयोग
बनता है । इसके परिणामस्वरुप जातक शान्तिपूर्ण यशस्वी जीवन व्यतीत करने में सफल होता है । कुछ ऐसा ही
परिणाम राहु के छठे और गुरु के दशमभाव में होने पर भी मिलता है ।
2.
लग्नकारकयोग—
जन्मांकचक्र का लग्न मेष, वृष वा कर्क हो और द्वितीय, नवम वा दशम भाव को छोड़ कर
किसी अन्य स्थान में राहु हो तो लग्नकारकयोग का सृजन होता है । इस योग के
परिणामस्वरुप विभिन्न प्रकार के अरिष्टों का स्वयमेव शमन होता जाता है, यानी अन्य
ग्रह स्थितियां या परिस्थितियां बिलकुल स्पष्ट दीखती तो हैं, किन्तु जातक उनको झेल
कर सुरक्षित बाहर निकल जाता है । ऐसा लगता है मानों बिपत्ति आते-आते टल गयी ।
3.
अरिष्टभंगयोग—
उक्त लग्नकारकयोग से किंचित भिन्न स्थिति है ये । मेष, वृष या कर्क में से कोई भी
लग्न हो और राहु नवम, दशम, एकादश में से किसी भाव में हो तो विभिन्न अरिष्टों का
शमन करता है ।
4.
परिभाषायोग—
लग्न, तृतीय, षष्ठम, वा एकादशभाव में राहु हो तो और राहु पर किसी पापग्रह की
दृष्टि न हो तो परिभाषायोग बनता है, जो विशेष शुभद योग है । कहा भी जाता है -
त्रिषडएकादशे राहु...त्रिषड एकादशे शनि...।
5.
सर्पशापयोग— मेष वा वृश्चिक राशि का राहु पंचम भाव में हो, पंचम
भाव या लग्न में मंगल के साथ गुरु हों, वा पंचम भाव पर राहु, केतु, बुध, मंगल की
दृष्टि हो या पंचम भाव में मंगल की युति हो राहु से तो सर्पशापयोग की स्थिति बनती
है । इसके दुष्प्रभाव से पंचमभाव का सभी सुफल बाधित होता है । खासकर विद्या और
सन्तान तो अवश्य । सौभाग्य से ये दोनों सही रहे तो किसी विशेष दुर्घटना का शिकार
तो अवश्य बनायेंगे ही ।
6.
सर्पदंशयोग —
जन्मकुण्डली में अष्टम भाव में राहु यदि पापग्रह-युक्त हो तो सर्पदंश से मृत्यु हो
सकती है ।
7.
फांसीयोग—
जन्मकुण्डली में दशमभाव का नवांशपति राहु या केतु से युति करता हो (किसी भाव में) तो
फांसीलगने की आशंका प्रबल होती है ।
8.
अग्निदाहयोग—
जन्मकुण्डली में दशमभाव का नवांशपति मंगल-राहु वा मंगल-शनि से युत होतो अग्निदग्ध
होकर मृत्यु हो सकती है । किंचित शुभग्रहों की कृपा यदि हुयी तो भी भयंकर अग्निदाह
हो झेलना ही पड़ेगा ।
9.
कपटयोग— जन्मकुण्डली
में चतुर्थ भाव में शनि और द्वादशभाव में राहु हो तो कपटयोग बनता है । ऐसे जातक
सदा कथनी के विपरीत करनी करते हैं। और कदापि विश्वासपात्र नहीं बन सकते ।
10.
क्रोधयोग— जन्मकुण्डली में राहु या केतु सूर्य, बुध या
शुक्र से युति करते हुए लग्नस्थ हों तो क्रोधयोग बनता है । लड़ाई-झगड़े, वाद-विवाद
के कारण जातक को हमेशा हानि उठानी पड़ती है ।
11.
पिशाचयोग—
जन्मकुण्डली के लग्न में राहु-चन्द्र युति होने पर पिशाचयोग होता है । ऐसे जातक को
प्रेतबाधा सता सकती है । जातक निराशावादी और यहां तक कि आत्मघाती भी हो सकता है ।
लग्न में राहु-चन्द्र एवं पंचम, नवम वा द्वादश में मंगल-शनि हो तो ये योग और भी
घनीभूत हो जाता है । इन स्थिति के साथ ही यदि केन्द्रस्थ गुरु हो तो रोगी बनाता है, किन्तु ऐसा जातक शत्रुहंता भी होता है । बड़े से बड़े शत्रु को परास्त
करने में सफल होता है ।
12.
चाण्डालयोग— जन्मकुण्डली
में किसी भी स्थान में राहु-गुरु की युति हो तो चाण्डालयोग बनता है । इस योग के कारण
जातक पाखंडी, नास्तिक, दरिद्र और सदा मानसिक तनाव ग्रस्त रहता है, किन्तु केतु और
गुरु का संयोग हो तो जातक उपासक वा साधक बन जाता है, भले ही उसे किसी पर भरोसा न
हो, और सदा सशंकित रहे ।
13.
अन्यान्य योगायोग—
v केतु
और शनि की युति प्रायः शुभकारी होती है ।
v राहु
और चन्द्रमा की युति मेष, तुला, कर्क व मकर में हो तो शुभकारी होता है ।
v राहु
और चन्द्रमा की युति पंचम वा नवम में हो तथा पंचमेश वा नवमेश चन्द्रमा हो तो
शुभकारी होता है ।
v त्रिकोण
में राहु-सूर्य की युति हो, किन्तु लग्न वृष, सिंह, वृश्चिक वा कुम्भ हो तो शुभ फलदायी
होता है ।
v राहु
या केतु पंचम वा नवम हो, किन्तु सप्तमभाव से किंचित सम्बन्ध (दृष्टि आदि) तो राहु या केतु की दशाकाल में मृत्युयोग बनता है ।
v राहु
या केतु षष्ठम, अष्टम, द्वादश में से कहीं हो या इन भावों में किसी से कोई सम्बन्ध
बनता हो तो प्रायः अशुभ फलदायी होता है ।
v राहु-केतु
किसी शुभभाव में शुभ स्थिति में चन्द्रयुति कर रहा हो तो शुभ फलदायी होता है ।
v राहु
या केतु की युति द्वितीयेश, तृतीयेश, अष्टमेश वा द्वादशेश के साथ हो और वो
द्वितीय, अष्टम वा द्वादशभाव में हो तो मृत्युयोग बनता है ।
v राहु-शनि
की युति यदि लग्न में हो तो जातक सदा अस्वस्थ रहता है । चतुर्थ में हो तो माता को
कष्ट, पंचम में हो तो सन्तान-कष्ट, सप्तम में हो पति-पत्नी के लिए कष्टकर यानी
दाम्पत्य-सुख बाधित रहता है । नवम में हो तो पिता को कष्ट देता है किन्तु दशम में
होतो इसका प्रभाव व्यवसाय पर प्रतिकूल पड़ता है । किन्तु हां, गुरु की दृष्टि इन
दोष ग्रस्त भावों पर हो जाये तो कष्ट का स्वयमेव निवारण हो जाता है ।
v किसी
स्त्री की जन्मकुण्डली में अष्टमभाव में मंगल के साथ केतु की युति हो तो प्रबल
वैधव्ययोग पैदा करता है ।
v राहु-सूर्य
की युति से जातक चिड़चिड़ा एवं आक्रामक स्वभाव का हो जाता है ।
v अष्टमस्थ
राहु पापग्रहों से दृष्ट होने पर वैवाहिक वा दाम्पत्यसुख में बाधा पहुँचाता है ।
पहले तो विवाह होने में ही बाधायें आती है, बाद में हो भी जाये किसी सुग्रह-कृपा
से तो भी दोनों में किसी एक की मृत्यु हो सकती है ।
v राहु
द्वितीय भाव में और मंगल सप्तम भाव में हो तो पति या पत्नी किसी एक की मृत्यु
सम्भाव्य है । वैसे भी मंगल सप्तमस्थ होकर मांगलिकदोष (वैधव्य वा विधुर दोष) पैदा
करता है ।
v राहु-मंगल
की युति जातक को मन्त्रशास्त्र का ज्ञाता वा प्रयोगकर्ता बनाती है । यदि ये युति चतुर्थ
भाव में हो तो जातक के आवास में वास्तुदोष का संकेत मिलता है ।
v राहु-सूर्य
और मंगल-शनि की युति जन्मकुण्डली के अन्यान्य योगों को निष्फल बना देती है । यानी
शुभ भी अशुभ परिणाम देने लगते हैं ।
v त्रिषडएकादशे
राहु...सिद्धान्त
के अनुसार ये योग (स्थिति) यदि कुण्डली में बनती हो तो शुभ कहा गया है ।
v जन्मकुण्डली
में राहु-गुरु (गुरुचांडालयोग) लग्न, चतुर्थ वा षष्ठम में कहीं हो, और सूर्य
सप्तमस्थ हो तथा मंगल दशमस्थ हो तो युवावस्था में ही जातक को माता-पिता का वियोग सहन करना पड़ता है ।
v हालाकि
राहु का तृतीयस्थ होना अच्छा कहा गया है, किन्तु इसके साथ ही गुरु लग्नस्थ और शनि
द्वितीयस्थ होजाये तो माता का निधन असमय में ही करा देता है ।
v राहु
वा केतु की युति चन्द्रमा वा मंगल के साथ चतुर्थभाव में हो तो जातक को अड़तीसवें
वर्ष में माता-पिता का वियोग झेलना पड़ता है ।
v सप्तमेश
शनि की युति राहु से हो जाये तो जातक के तीन विवाह होते हैं ।
-------)(------
क्रमशः...
Comments
Post a Comment