कालसर्पयोगःःकारण और निवारणःःतेइसवां भाग

गतांश से आगे...
(सातवें अध्याय का सातवां और अन्तिम भाग )

पूजनोपरान्त होमादिकर्म—
ब्रह्मावरणः- अब, द्रव्यअक्षतपुष्पादि लेकर, सुविधानुसार, पूर्व पूजित ब्राह्मणों में से किसी को ब्रह्मा नियुक्त करे—यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः । तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम ! एवं उक्त ब्रह्माकलश के समीप आसन देकर, गायत्र्यादि जप हेतु निवेदन करे ।  
हवनवेदीसंस्कारः- अब, कुशा लेकर वेदी का झाड़न संस्कार करे, थोड़ा सा कपूर जलाकर, हवनवेदी पर अंगार भ्रमण की क्रिया भी करे । तत्पश्चात् गोमय मिश्रित जल का वेदी पर प्रोक्षण करे । अब, दाहिने हाथ में एक कुशा लेकर, बायें हाथ की हथेली को फैलाकर, वेदी पर दक्षिणोत्तर क्रम से तीन बार रखते हुए, पश्चिम से पूर्व की ओर तीन रेखायें खींचे, तथा तीनों रेखाओं पर से (अंगूठा और अनामिका के सहारे) चुटकी भर वालु/मिट्टी उठा कर वेदी के उत्तर दिशा में फेंक दे, तथा शुद्ध जल का छिड़काव कर दे । तत्पश्चात् वेदी के उत्तर दिशा में, क्रमशः दो कुश खण्डों पर दो पात्र प्रोक्षणी और प्रणीता के निमित्त स्थापित करें । इन दोनों में जल भर कर, अलग-अलग कुशा से ढक दे । अध्याय के प्रारम्भ में ही चित्रांक आठ में अग्नि-वेदी-व्यवस्था को स्पष्ट किया गया है ।
         अब, वेदी के पूरब में उत्तराभिमुख, दक्षिण में पूर्वाभिमुख, पश्चिम में उत्तराभिमुख, एवं उत्तर में पूर्वाभिमुख एक-एक कुशा रखे, तथा अग्निवेदी से प्रणीता तक, एवं वेदी से ब्रह्मा तक भी एक-एक कुशा रखदें । तत्पश्चात् नवीन कांसे (फूल) की थाली में किसी बालिका से अग्नि मंगवाकर, अग्निवेदी के मध्य में स्थापित करे । ध्यातव्य है कि अग्निस्थाली को सम्मुख रखते हुए, ऊँ अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे देवाँ आ सादयादिह - मन्त्रोच्चारण पूर्वक वेदी पर अंगार उझल दे , तथा वायीं ओर रिक्त अग्निस्थाली को रख कर, उसमें पुष्पाक्षत सहित कुछ द्रव्य भी छोड़ दे । इस थाली सहित द्रव्य का अधिकारी विप्रवालिकायें ही हुआ करती हैं ।
           अब, आम्र के डंठल में आम्रपत्र को मौली के सहारे बांध कर होमार्थ स्रुवा बनावे और उसे वेदी पर स्थापित अग्नि में किंचित तपावे ।
अग्निस्थापनः- ॐ मुखं यः सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक तथा । पितृणां च नमस्तुभ्यं विष्णवे पावकात्मने ।। रक्तमाल्याम्बरधरं रक्तपद्मासनस्थितम् । रौद्रवागीश्वरीरुपं वह्निमावाहयायहम् ।। ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम् । सुवर्ण वर्णममलमनन्तं विश्वतो मुखम् ।। सर्वतः पाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । विश्वरुपो महानग्निः प्रणीतः सर्वकर्मसु ।। ॐ अग्ने शाण्डिल्यगोत्राय मेषध्वज मम सम्मुखो भव । प्रसन्नो भव । वरदा भव । ॐ पावकाग्नये नमः ।।

          अब, ॐ पावकाग्नये नमः मन्त्रोच्चारण पूर्वक आवाहित अग्नि का पंचोपचार पूजन करे । तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक सिर्फ घी से पांच आहुतियां प्रदान करें । प्रत्येक आहुति के बाद स्रुवा में शेष घी को उत्तर की ओर रखे पात्रों में झाड़ता जाये— ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम । ॐ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम ।  ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे, न मम । ॐ वं स्वाहा, इदं सुपर्णाय न मम । ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम । 
     तथाच, एक और घृताहुति इस मन्त्र से प्रदान करें— यथावाणप्रहाराणां कवचं भवति वारकम् । तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिणा ।       ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम ।।    तत्पश्चात् पुनः आचार्य महोदय इसी मन्त्र का उच्चारण करते हुए यजमान पर जल छिड़क दें ।

(नोट- 1. तरल पदार्थ घृतादि की आहुति स्रुवा से तथा ठोस पदार्थों की आहुति बिना स्रुवा के प्रदान करे ।   यथा-    द्रवद्रव्यं स्रुवेणैव पाणिना कठिनं हविः । स्रुवहोमे सदा त्याज्यः प्रोक्षणीपात्र मध्यतः ।।
2. आहुति की मात्रा न बिलकुल कम हो और न बहुत अधिक – तर्जनी और कनिष्ठा को हटाकर,  यानी मध्यमा, अनामिका और अंगुष्ठ के सहारे जितनी मात्रा उठायी जा सके - यही उचित मात्रा है, एवं आहुति प्रदान करने की विहित मुद्रा भी । मुद्रा के सम्बन्ध में शास्त्र निर्देश है- होमे मुद्राः स्मृतास्तिस्रो मृगी हंसी च सूकरी । मुद्रां बिना कृतो होमः सर्वो भवति निष्फलः ।। शान्तिके तु मृगी ज्ञेया हंसी पौष्टिक कर्मणि । सूकरी त्वभिचारेषु कार्या मन्त्रविदुत्तमैः ।। सूकरी करसंकोची हंसी मुक्तकनिष्ठिका । कनिष्ठा तर्जनी मुक्ता मृगीमुद्रा प्रकीर्तिता ।।
3. आचार्य मन्त्रोच्चारण करें, यजमान आहुति डाले, साथ ही स्वयं भी स्वाहा बोलते रहे । आहुति के प्रत्येक खंड के पश्चात् वेदी पर— प्रज्वलित अग्नि से बाहर— जल गिरा दिया करे।)
अब क्रमशः अन्यान्य देवों के निमित्त आहुति प्रदान करे—
गौरीगणेशार्थ होमः- ॐ गणपतये नमः स्वाहा । ॐ गौर्यै नमः स्वाहा । (घृत वा शाकल से)
समस्तमात्रिकादि होमः- (घृत वा शाकल से सत्रह आहुति गणेशसहित षोडशमात्रिकाओं के लिए, तथा सात आहुति श्रियादिसप्तघृतमात्रिकाओं के लिए एवं ६४ आहुति चौंसठ योगिनियों के निमित्त प्रदान करें)
 ॐ गौर्यादिषोडशमात्रिकेभ्यो नमः स्वाहा । - (१६ आहुति) ।
 ॐ श्रियादिसप्तघृतमात्रिकेभ्यो नमः स्वाहा । - (७ आहुति) ।
 ॐ दिव्ययोगादिचतुषष्टियोगिनीमात्रिकेभ्यो नमः स्वाहा ।- (६४ आहुति) ।

नवग्रहहोमः-अब, नवग्रहों की समिधा (घृतयुक्त) से बारी-बारी से मन्त्र बोलते हुए क्रमशः नौ आहुतियाँ प्रदान करें- ॐ सूर्याय  नमः स्वाहा । ॐ  चन्द्राय नमः स्वाहा । ॐ भौमाय नमः स्वाहा ।   ॐ बुधाय नमः स्वाहा । ॐ बृहस्पतये नमः स्वाहा । ॐ शुक्राय नमः स्वाहा । ॐ शनैश्चराय  नमः स्वाहा । ॐ राहवे नमः स्वाहा । ॐ केतवे नमः स्वाहा ।
(नोटः-अकवन, पलाश, खैर, चिड़चिड़ी, पीपल, गूलर, शमी, दूर्वा और कुश ये नवग्रहों की क्रमशः समिधायें हैं- अर्कःपलाशः खदिरोऽह्यपामार्गोऽथ पिप्पलः । उदुम्बरः शमी दूर्वाः कुशाश्च समिधः क्रमात् ।।)

  अब, वेदी पर, अग्नि से बाहर थोड़ा जल गिरा दें; और आगे की आहुतियाँ तिलादि मिश्रित शाकल से प्रारम्भ करें ।

अधिदेवताप्रत्यधिदेवताहोमः- (ईश्वरादि अधिदेवों के लिए नौ आहुतियाँ और अग्यादिप्रत्यधिदेवों के भी क्रमशः नौ-नौ आहुतियां प्रदान करें)-   ॐ ईश्वरादिऽधिदेवताभ्यो नमः स्वाहा ।     ॐ अग्यादिप्रत्यधिभ्यो  नमः स्वाहा ।

पंचलोकपालहोमः-(पांच आहुति पंचलोकपालों के लिए दें)—  ॐ  गणपत्यादि पंचलोकपालेभ्यो नमः स्वाहा ।

दशदिक्कपालहोमः- (दस आहुति दिक्कपालों के लिए दें) - ॐ  इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः स्वाहा ।

एकादशरुद्रहोमः- ॐ  रुद्राय नमः स्वाहा । (ग्यारह आहुति रुद्र के लिए दें )
क्षेत्रपालहोमः- ॐ अजरादिसहितपञ्चाशत्क्षेत्रपाल देवेभ्यो नमः स्वाहा । (५० आहुति दें)

मण्डलदेवता होम—( क्रमशः सभी मन्त्रों से एक-एक आहुति दें ) ऊँ कौमार्यै नमः, ऊँ ऐन्द्रै नमः, ऊँ ब्राह्भ्यै नमः, ऊँ वाराह्यै नमः, ऊँ चामुण्डायै नमः, ऊँ वैष्णव्यै नमः, ऊँ माहेश्वर्यै नमः , ऊँ भारद्वाजाय नमः, ऊँ विश्वामित्राय नमः, ऊँ कश्पाय नमः, ऊँ जमदग्न्ये नमः, ऊँ वशिष्ठाय नमः, ऊँ अत्रये नमः , ऊँ अरुन्धत्यै नमः, ऊँ गौतमाय नमः, ऊँ त्रिशूलाय नमः, ऊँ वज्राय नमः, ऊँ शक्त्यै नमः, ऊँ दण्डाय नमः, ऊँ खड्गाय नमः, ऊँ पाशाय नमः, ऊँ अँकुशाय नमः, ऊँ गदाय नमः, ऊँ ईशानाय नमः, ऊँ द्वादशादित्याय नमः, ऊँ अश्विन्यै नमः, ऊँ सप्तयज्ञाय नमः, ऊँ भूतनाथाय नमः, ऊँ गन्धर्वाय नमः, ऊँ अप्सरायै नमः, ऊँ शूलमहाकालाय नमः, ऊँ नन्द्यै नमः, ऊँन्दीश्वराय नमः ।

अनन्तादि नवनाग होम—( क्रमशः इन मन्त्रों से पांच-पांच आहुति दें)  ऊँ अनन्ताय नमः, ऊँ वासुकये नमः, ऊँ कर्कोटाय नमः, ऊँ तक्षकाय नमः, ऊँ शंखपालाय नमः, ऊँ महापद्माय नमः, ऊँ नीलाय नमः, ऊँ कम्बलाय नमः, ऊँ शेषाय नमः ।

मनसादेवी— (एक सौआठ आहुति दें) - ऊँ मनसादेव्यै नमः ।।
राहु, काल, सर्पादि होम—(इन तीनों मन्त्रों से क्रमशः एकसौआठ आहुतियां दें)  ऊँ राँ राहवे नमः, ऊँ कालाय नमः, ऊँ सर्पाय नमः ।

पूर्णाहुति— उक्त सभी मन्त्रों से होम कार्य समाप्त करने के बाद नारियल, पान, सुपारी, दही, गुड़ और हुतशेष साकल्यादि सहित संकल्प पूर्वक पूर्णाहुति होम करे ।

तर्पण-मार्जनादि— पूर्णाहुति के पश्चात् किसी बड़े से पात्र में जल लेकर शिवपंचाक्षर मन्त्र का उच्चारण करते हुए एकसौआठ बार तर्पण करे एवं कम से कम ग्यारह बार उसी मन्त्र से मार्जन करे ।
          अब स्वर्ण/रजत नाग को सादर उठाकर सिर से लगावे और नामगोत्र उच्चारण करते हुए, यथेष्ठ दक्षिणा सहित आचार्य को दान कर दे । ब्रह्मकलश भी यथेष्ठ दक्षिणा सहित नियुक्त ब्रह्मा को प्रदान करे । शेष लौह / ताम्र निर्मित नागों को भी उठाकर किसी पात्र में संग्रहित करले । इसे क्रिया समाप्ति के पश्चात जल में प्रवाहित कर देना चाहिए ।  प्रवाहित जल (नदी) की सुविधा न हो तो शिवमन्दिर में आदर पूर्वक छोड़ देना चाहिए । 
              पूर्णाहुति और दान-दक्षिणा के पश्चात आचार्य का कर्तब्य है कि पूर्व में स्थापित अमृतकलश से थोड़ा जल लेकर, यजमान को दे । यजमान उसका प्राशन करे । तत्पश्चात् पूर्व स्थापित अभिषेक कलश के जल से यजमान का अभिषेक उपस्थित सभी ब्राह्मणों द्वारा एक साथ किया जाये ।
              क्रिया समाप्ति के पश्चात् यथासम्भव पांच ब्राह्मण और पांच भिक्षु का भोजन अवश्य होना चाहिए । भोजन कराने की सुविधा न हो तो तन्निमित्त द्रव्य भी प्रदान किया जा सकता है । किन्तु ध्यान रहे- अन्न-मिष्ठान्नादि भोजन का विशेष महत्त्व है । अस्तु ।
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क्रमशः...


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