गुलामी का कैप्सूलाइजेशन

स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर-

गुलामी का कैप्सूलाइजेशन

          आप चाहें तो इसे सुधार कर, कैप्सूलाइज्ड गुलामी भी कह सकते हैं । हो सकता है किसी को अटपटा भी लगे ये शब्द-योजना, किन्तु मुझे उनसे सहानुभूति है थोड़ी । हमदर्दी भी । वो बिलकुल दया के पात्र हैं, जिन्हें यह शीर्षक बेतुका लग रहा है । दरअसल पिछले इकहत्तर वर्षों से हम इसे ही स्वतन्त्रता के नाम से जानते आ रहे हैं ।

          इस सम्बन्ध में कुछ और कहने से पहले, कुछ और ही कह लूं— बेतुकी शब्द-योजना के दोनों पदों को ठीक से समझना जरा जरुरी है । वैद्य लोग जरा भोले किस्म के होते थे । चिरायता का कड़वा काढ़ा भी सीधे-सीधे पीने की सिफारिश करते थे । गिलोय, नीम, करेला सब कुछ सीधे हज़म करो । किन्तु ये डॉक्टर लोग जरा हुशियार होते हैं । होशियारी का ही नाम है – एलोपैथ ।  जिलेटीन कैपसूल में छिपा कर चाहो तो सूअर का मैला भी खिला दो । जीने की चाह लिए लोग खाने में जरा भी आनाकानी नहीं करेंगे । विशुद्ध शाकाहारियों को भी एडीकैप खाने में कोई दिक्कत नहीं क्यों कि वो कैप्सूलाइजडफॉर्म में होता है । ज्यादातर लोगों को तो पता भी नहीं होता कि वे मछली का तेल खा रहे हैं । प्लेसेन्टा का जूस भी बड़े चाव से पीये जा रहे हैं, बिना ना-नुकूर के । यही कमाल है कैप्सूलाइजेशन का ।
         इसी सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए गुलामी को भी कैप्सूलाइज करने का करिश्मा दिखाया गया । सत्ता के छद्म हस्तानान्तरण को ही स्वतन्त्रता मान लिया गया और समझा भी दिया गया देशवासियों को । पिछले इकहत्तर वर्षों से हम इसका जश्न मनाते आ रहे हैं । जलेबियां खाते-खिलाते आ रहे हैं । वोट देते आ रहे हैं, सिर भी पीटते आ रहे हैं । गाड़ी वही है , ड्राइवर बदलते आ रहे हैं ।

सन् 1935 के गवर्मेन्ट ऑफ इण्डिया रुल को ही झाड़-पोंछ कर संविधान के कैपसूल में भर कर करीने से सहेज लिए हैं । हम पूरी तरह वाकिफ़ हैं कि जो भी कानून हमने बना रखे हैं, खुल कर सच कहें तो किसी और के बनाये हुए कानूनी दाव-पेज को ही हम अपनाये बैठे हैं, जिसके बूते शायद ही किसी को न्याय मिल पाया हो । सच्चाई ये है कि बहुत से कानून तो बनाने वालों को भी ठीक से समझ नहीं आया आज तक, फिर उससे खेलने वाले की क्या विसात ! न्याय की देवी तो आंखों पर पट्टी बांधे हुयी हैं हस्तिनापुर की महारानी गांधारी की तरह, जो किसी खास क्षण में क्षणभर के लिए खुली भी तो कृष्ण की कलाबाजी से निरस्त हो गयी ।  एक धृतराष्ट्र ने ही सर्वनाश करा दिया । एक ही उल्लू काफी है बरबाद-ए-गुलिस्तां को, हर शाख पे उल्लू बैठा है , अन्ज़ाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा ? सत्य सिसकारियां ले रहा है- सत्यमेव जयते के स्लोगन में टंग कर । गीता की शपथ लेकर सत्य बोलने की वचनबद्धता , संविधान की शपथ लेकर राष्ट्रसेवा का संकल्प कितना बेमानी है- इससे वाकिफ़ हैं हम सभी । जितना झूठ न्यायालय में बोला जाता है उतना तो शायद वेश्यालय और मदिरालय में भी नहीं बोला जाता होगा । न्याय के हाथ कानून की डोर से बंधे हैं और कानून बनाने वाले कलम कम, अंगूठा ज्यादा इस्तेमाल करने वाले हैं हमारे अज़ूबे लोकतन्त्र में । चपरासी पढ़ा-लिखा होना जरुरी है, कानून तो बिना पढ़े हुए भी बनाया ही जा सकता है । सत्तर वर्षों में न्याय अपना लिवास नहीं बदल पाया, देश क्या खाक बदलेगा !  न्याय चेहरे की बनावट , कुर्सी की ऊँचाई, वेशभूषा और जेब का वजन देख कर मिलता है ।  सुख-सुविधायें, रोजी-रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सबकुछ उसी बैरोमीटर पर आधारित है । जान-माल और इज्ज़त-आबरु  - तब भी दांव पर लगा था और आज भी ।

थोड़ा कुछ जो बदलाव दीख रहा है वो तो ईश्वर की कृपा है और वलिदानियों का आशीष या कहें भ्रष्टाचारियों की मुट्टी से छिटका हुआ किंचित कर्मठों का कर्म-किरण ।  अन्यथा गुलामी की जंजीर बिलकुल टूटी नहीं है, स्वरुप बदला है सिर्फ – कैप्सूलाइज्ड हुआ है सिर्फ ।

हां, कुछ खास सुविधायें मिली हुयी हैं, जिनसे साफ ज़ाहिर होता है कि स्वतन्त्र हो गए हैं –  चाहें तो पद-मर्यादा का लाज-लिहाज छोड़ कर किसी को कभी भी कुछ भी कह सकते हैं—गाली भी दे सकते हैं, गले भी लगा सकते हैं और मन करे तो आँख भी मार सकते हैं । आँखों की सारी गुस्ताखियां माफ हो सकती हैं अनोखे लोकतन्त्र में ।

इतना ही नहीं , ग्रूप बना कर कुछ भी कर सकते हैं । मन हो तो इसे पार्टी नाम दे दें ।  दंगा-फसाद की तैयारी चाहें तो कोतवाली में भी बैठ कर कर सकते हैं और  इच्छा हो तो संसद में भी । सड़क पर तो जन्मसिद्ध अधिकार है ही । यहां भला कौन रोक सकता है । चाहें तो ठेला-खोमचा लगा लें, चाहें तो लाल-हरे झंडे लहरा लें , चाहें तो किसी का पुतला फूंक लें या किसी को जिन्दा ही फूंक दें । 
   पहाड़ या जंगल में छिप कर रहना कोई जरुरी नहीं । मुंह ढक कर या कि अन्धेरे का लाभ लेकर चलने की भी जरुरत नहीं । सही आदमी को सही समय पर सही तरीके से वोट देते रहें - सारा कुछ सही होता रहेगा - खासकर आपके लिए । ये आप पर निर्भर है कि आप आम रहना पसन्द करते हैं कि खास । आप चाहें तो वी.सी. आपके घर आकर मनमानी डिग्री पहुँचा दे सकते हैं । आप चाहें तो न्यायालय 24X7 आपकी सेवा में सिर झुकाये, हाथ जोड़े खड़ा भी रह सकता है, क्यों कि डोरी बांटने वाले का कदर तो करना ही है न अनोखे लोकतन्त्र में ।  इतना ही नहीं आप अपने मनोरथ के लिए शेल्टर होम को बेडरुम में जब चाहें कन्वर्ट कर सकते हैं – सोफा कम बेड की तरह ।

तो आइये स्वतन्त्रता की जश्न एक बार फिर मना लें । जलेबियां आप खा लें जी भर कर । चिन्ता करने की जरुरत नहीं , कीमत किसी और ने चुकायी हैं । रोकने वाला भला कौन है ! आपही का तो लोकतन्त्र है ।

वन्देमातरम् । वन्देमातरम् । वन्देमातरम् । 

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