कृष्ण कलंकित हुए जब


  
         भाद्र शुक्ल चतुर्थी के चन्द्रमा का दर्शन करना वर्जित है । इसे कलंकित चन्द्र कहा जाता है । भूल से यदि ऐसा हो जाये तो उसके निवारण हेतु श्रीकृष्ण के इस कलंक-कथा का पाठ-स्मरण करना चाहिए । प्रस्तुत है ये कथाप्रसंग-

जब कृष्ण कलंकित हुए-

      अपराधी होने और कहलाने में बड़ा फर्क है।कभी-कभी अपराधी होने से भी कहीं अधिक विपदाकारी हो जाता है अपराधी कहलाना । क्यों कि सच में यदि अपराध किया हो,तो कम से कम खुद को तो भान होगा ही कि मैं अपराधी हूँ, किन्तु अपराध किया न होने पर भी यदि किसी कारण से कलंक थोपा जाये तो जीना दुभर हो जाता है ।

     भोलेनाथ शिव अपनी प्रिया उमा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं- 
माघ युगल गुण चैत के,भादो वेद उमंग।    
उमा न देखु मम सिर,ता दिन वसत कलंक।। — 
हे उमा ! वर्ष के इन तीन तिथियों को तुम मेरे सिर को मत देखना।ये तिथियां हैं—माध शुक्लपक्ष द्वितीया, चैत्र शुक्लपक्ष तृतीया और भादो शुक्लपक्ष चतुर्थी । तुम जानती ही हो कि मेरे सिर पर चन्द्रमा का वास है और इन तिथियों के चन्द्रमा शापित हैं । उन्हें कलंकचन्द्र कहा गया है शास्त्रों में। यानी इन तिथियों को किसी व्यक्ति को चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए, अन्यथा अकारण ही कलंकित होना पड़ता है ।

      इसी प्रसंग में आशुतोष शिव लोककल्याणकारी उपाय भी बतलाते हैं- यदि भूल या अज्ञानवश उस दिन चन्द्रमा दीख जाय तो दोष निवारण के लिए दो काम करे- एक तो चन्द्रदर्शनदोषशान्तिमन्त्र- 
सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवताहतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः।।         का जप करे- कम से कम एक सौ आठ बार, और दूसरा काम है- श्रीमद्भागवत के स्यमन्तमणि प्रकरण का पाठ। इस सम्बन्ध में श्री शुकदेव जी कहते हैं- यस्त्वेतद् भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च । आख्यानं पठति श्रृतोत्यनुस्मरेद् वा दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम्।। (भा.पु.दशम्-५७-४२)

     इस कलंक-कथा को संक्षिप्त में यहां प्रस्तुत करते हैं।सम्पूर्ण पाठ हेतु मूल ग्रन्थ का अवलोकन करना चाहिए,जो दो अध्याय मिलाकर(४५+४२) ८७ श्लोकों में है ।

      सामाजिक कलंक की विचित्र घटना घट गयी थी, एक बार श्रीकृष्ण के साथ भी—तत्कालीन समाज दबे जबान उन्हें कलंकित कर रहा था,जिसका निवारण बड़ी बीरता और चतुराई से,काफी समय के बाद वे करने में सफल हुए। यह प्रसंग है श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध के ५६वें और ५७वें अध्याय में ।

      सत्राजित नामक एक पुरुष सुदीर्घ आराधना से सूर्य नारायण को प्रसन्न करने में सफल हुआ । वरदान स्वरुप सूर्य ने उसे स्यमन्तक नामक मणि प्रदान किया,जो सूर्य के समान ही प्रकाशित था । उस मणि का गुण था कि वह नित्य आठ ‘भार’(करीब ८,१९,२००कि.) सोना देता था, और जहां भी रहता था वहां महामारी,दुर्भिक्ष आदि का प्रकोप नहीं होता था । भार का शास्त्रीय प्रमाण है-चतुर्भिर्ब्रीहिभिर्गुंजं,गुञ्जान्पञ्च पणं पणान् । 
अष्टौ धरणमष्टमौ च, कर्ष तांश्चतुरः पलम्,
तुलां पलशतं प्राहुर्भारंस्याद्विंशति तुलाम्।।
( चार व्रीहि का गुंजा,पांच गुंजा का पण, आठ पण का धरण, आठ धरण का कर्ष, चार कर्ष का पल यानी भरी, सौ पल का तुला, और बीस तुला का भार) ।

     एक बार श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा कि ऐसी वस्तु तो महाराज उग्रसेन के पास रहनी चाहिए । अतः तुम इस दिव्य मणि को उन्हें दे दो।लोभी सत्राजित ने कृष्ण की यह बात अस्वीकार कर दी । कुछ दिनों बाद की बात है, सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को गले में धारण करके आश्वारोहण किया, और जंगल में शिकार करने निकल पड़ा। शिकार करते समय स्वयं वह एक सिंह का शिकार बन गया । वहीं पास के गुफा में जाम्बवान् नामक एक ऋक्ष रहता था,जिसने उस सिंह को भी मार डाला, और मणि लेकर अपनी गुफा में चला गया ।

    मणि के साथ अचानक प्रसेनजित के गायब हो जाने की खबर से नगरवासियों में बात फैल गयी कि इस मणि के प्रति तो कृष्ण को लोभ था, हो न हो कृष्ण ने ही मणि-हरण करके, प्रसेनजित को मार डाला हो।सत्राजित ने भी कृष्ण को बहुत ही भला-बुरा कहा, और जैसे भी हो मणि वापस करने की बात कही ।

     इस कलंक से व्यथित कृष्ण, कुछ नगरवासियों को साथ लेकर वन में प्रसेनजित की खोज में निकले। घोर वन में एक गुफा के बाहर प्रसेनजित और उसके घोड़े का शव मिला,साथ ही एक सिंह का भी । किन्तु आसपास मणि का कहीं पता न चला । खोजबीन करने पर जमीन पर ऋक्ष और सिंह के युद्ध के भी निशान मिले,जो अन्ततः उस गुफा की ओर जा रहा था । ऋक्ष-पदचिह्न का अनुसरण करते हुए कृष्ण,नगरवासियों को गुफा के बाहर ही छोड़कर, उस अन्धेरी गुफा में प्रविष्ट हुए।कुछ अन्दर जाने पर उस दिव्य प्रकाशित मणि को एक सुन्दर बालिका के हाथो में देखा उन्होंने । 

   कृष्ण को देखकर बालिका घबराकर शोर मचायी, जिसे सुनकर उसका पालक, रक्षक एक भयानक ऋक्ष आगे आया, और क्रोध में भर कर बिना कुछ जाने-पूछे,कृष्ण पर प्रहार कर दिया । कृष्ण भी उससे भिड़ गये। दिन-दो दिन आशा देखकर, नगरवासी निराश होकर वापस लौट गये, और घटना की जानकारी दिये । कृष्ण-प्रिय प्रजाजन सत्राजित को ही दोषी मानने लगे इस दुर्घटना के लिए।सत्राजित भी बहुत भयभीत हुआ कि बिना ठोस प्रमाण के ही उसने कृष्ण को कलंकित किया है। नगरवासी कृष्ण की सकुशल वापसी हेतु माँदुर्गा की आराधना में लग गये ।

    इधर अठाइस दिनों तक ऋक्ष और कृष्ण के बीच युद्ध होता रहा।जाम्बवान् थक कर चूर हो गये, उनके अंग-अंग शिलिथ होने लगे, तब जाकर उन्हें ध्यान आया कि निश्चित ही ये हमारे आराध्य श्रीराम हैं, जिन्होंने द्वन्द्वयुद्ध की कामनापूर्ति हेतु द्वापर में मिलने का वरदान दिया था । श्रीकृष्ण का परिचय पाकर ऋक्षराज जाम्बवान् अतिशय प्रसन्न हुए, और अपनी कन्या जाम्बवंती के साथ स्यमन्तक मणि का उपहार भेंट कर, विदा किया ।

     सारा वृतान्त बताकर कृष्ण ने मणि सत्राजित को लौटा दी, किन्तु भयभीत और लज्जित सत्राजित उस मणि को रखना उचित न समझा । बल्कि श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने हेतु अपनी कन्या सत्यभामा को भी मणि के साथ अर्पित कर दिया । सत्यभामा को तो स्वीकार लिया कृष्ण ने,किन्तु मणि यथावत वापस कर दी सत्राजित को, यह कह कर कि मणि तो अपने पास ही रखो, पर इससे नित्य प्राप्त होने वाला सुवर्ण राजा उग्रसेन को दे दिया करो ।

   सामान्यतया यह कलंक प्रसंग यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था; किन्तु हुआ नहीं,क्यों कि सत्राजित की पुत्री सत्यभामा से विवाह करने हेतु शतधन्वा नामक एक युवक पहले से लालायित था । श्वफलकनन्दन अक्रूर और कृतवर्मा ने इस प्रसंग में शतधन्वा को उकसाने का काम किया । जैसे ही उसे मालूम हुआ कि उसकी चहेती सत्यभामा कृष्ण को मिल गयी, तो उसने छल से सत्राजित को मारडाला। पिता की मृत्यु से विकल सत्यभामा हस्तिनापुर चली गयी,क्यों कि उस समय श्रीकृष्ण बलराम वहीं थे । सूचना पाकर कृष्ण अर्जुन को साथ लेकर शतधन्वा को युद्ध में मार गिराये, किन्तु स्यमन्तक मणि उसके पास मिली नहीं।परन्तु उनकी इस बात का किसी ने विश्वास नहीं किया, यहां तक कि दाउ बलरामजी को भी संदेह हो गया कि कृष्ण झूठ बोल रहा है । इस पर कृष्ण को चिन्तित होना स्वाभाविक था, क्यों कि दाउ ने भी उनपर अविश्वास किया।नगर में आने पर पता चला कि भय से भागते वक्त शतधन्वा ने मणि तो अक्रूर के पास रख छोड़ा था, और अक्रूर उसे लेकर कहीं और भाग गये हैं। कुछ समय बाद श्रीकृष्ण अक्रूर को खोज-ढूढ़, समझा-बुझाकर वापस लाये, और नगरवासियों को सारा वृतान्त ज्ञात हुआ । तब से यह मणि अक्रूर के पास रहा, और उससे प्राप्त सुवर्ण उग्रसेन को मिलने लगा । अस्तु । 

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