समलैंगिकता वनाम संवैधानिकता वनाम नैतिकता

समलैंगिकता वनाम संवैधानिकता वनाम नैतिकता

           ख़बर है कि सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 सम्बन्धी पांच साल पहले दिये गए अपने ही फैसले को पलट दिया । समलैंगिक सम्बन्धों को फिर से कानूनन ज़ायज़ करार दे दिया गया ।

    अपने निर्णय को समयानुसार तोड़ने, मरोड़ने, पलटने का अधिकार तो आम आदमी को भी होता है, फिर सुप्रीमकोर्ट तो अपने आप में सर्वोपरि है , सम्मान्य है । इस पर उंगुली भला मुझ जैसा साधारण आदमी उठाने की हिम्मत कैसे कर सकता है !  ऐसों के लिए ही तुलसीबाबा कह गए हैं- समरथ के नहीं दोष गुसाईं ।

            परन्तु नासमझ मन को कैसे समझाऊँ ? वो ये भी नहीं समझता कि हम उन समरथ वालों में नहीं हैं । मन तो अपनी बात कहने को बेताब है ।

     एक माननीय कहते हैं कि देश में सिर्फ संवैधानिक नैतिकता की जगह है, सामाजिक नैतिकता की नहीं । तो वहीं वैठे एक और माननीय का कथन है कि समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नहीं है । इसे संसद से मान्यता मिली हुयी है । और इतना ही नहीं- पीठ ने यह भी स्पष्ट किया गया कि यौन रुझान बायोलॉजिकल है । इस पर रोक संवैधानिक अधिकारों का हनन है । मजे की बात ये है कि यौन रुझानों के अधिकार को अन्तरराष्ट्रीय कानून के तहत मान्यता भी मिली हुयी है ।

       कुछ और प्रकार के मान्यवरों द्वारा समय-समय पर ये भी कहा जाता रहा है कि बच्चे हैं, बहक गए थोड़े...सड़कों पर बिखरी खूबसूरती देख मन मचल उठा...उन्हें माफ कर देना चाहिए... पत्थरबाज भी हमारे ही बच्चे हैं...ये मॉबलिंचिग वाले भी हमारे ही जैसे लोग हैं...ये काले मुखौटा लगाये लोग भी हमारे ही बीच के हैं....भारत तेरे टुकड़े होंगे- कहने वाले लोग भी हमारे ही बीच के हैं ।
             अरे भाई ! ये सब तो हमारे ही बीच के हैं । हमारे ही जैसे । कोई एलीयन थोड़े जो हैं । फिर ये तरह-तरह के कानून क्यों बना रखे हो...ये ऊँची-ऊँची चारदीवारियों वाला लालघर क्यों सजा रखा है ? छोड़ दो सबको बिगड़ैल साढ़ की तरह, घूमने तो फिरंट होकर- जिसे जो मर्जी आये करने दो । कोई जिस्म लूटता है, कोई दौलत, कोई रिस्वत लेता है, कोई टैक्स चुराता है – क्या दिक्कत है, सब तो अपने ही है न ?

   ये अपनों का दायरा इतना बड़ा कब से होने लगा ?  यौन आकर्षण बायोलॉजिकल है – लगता है सांसदों को या कानूनविदों को ये कोई स्मार्ट मैगज़ीन से खबर लगी है । अव से पहले भला कहां किसी को पता था ये सब ।

        सच पूछें तो मुझ नासमझ को इन सारी बातों में दाल में कुछ काला नजर आ रहा है । अब यहां दाल के कालेपन का विशेष खुलासा मुझसे कराने की आशा मत रखियेगा ।  हो सकता है कि ये मेरे नजरों की गुस़्ताखी हो । किन्तु नजरें भी तो लाचार होती हैं मन की तरह ही । कभी-कभी जगह-कुजगह, वजह-बेवजह झपक जाती हैं और गूंगों को भी बोलने का अवसर दे जाती हैं । ज़ुबान वाले तो हमेशा बोलते ही रहते हैं ।

  सच पूछें तो मेरी समझ से परे है - समलैंगिकता पर नैतिकता की मुहर, वो भी संवैधानिकता की दुहाई देते हुए । क्या हमारा संविधान किसी अनैतिक को नैतिक सिद्ध करने का अधिकार हमें देता है ?

   ऐसे में लगता है नैतिकता की परिभाषा और उसके मूल्य पर पुनर्विचार करना होगा । परिभाषायें बनायी जा सकती हैं, तो बदली भी जा सकती है न अपने मन माफ़िक ?

     मगर यह करेगा कौन ?

         लोकतन्त्र में बहुमत का महत्त्व है । बेचारी नैतिकता का यहां बारम्बार शील-भंग होता है । बाहुबलियों द्वारा बलात्कार होता है उसके साथ और नैतिकता की नयी-नयी परिभाषा गढ़ दी जाती है । अस्तु ।  

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