अविरल प्रवाह
खबर
है कि सरकार ने गंगा के अविरल प्रवाह की अधिसूचना जारी कर दी है और साथ ही ये भी
खबर है कि सूचना सुनने के अगले ही दिन
पर्यावरणविद प्रो.जी.डी.अग्रवाल , जो पिछले 111 दिनों से गंगा मैया के उद्धार के
लिए अनशन पर थे, गंगामैया की गोद में सो गए ।
अधिसूचना पर प्रसन्न हुआ जाये या कि
एक गंगापुत्र के निधन पर शोक प्रकट किया जाये ?
और जब कुछ निर्णय की
स्थिति न बनती हो तो लेखनी बेचैन होने लगती है ।
गंगा की सफाई का कार्य
ही नहीं अभियान चल रहा है विगत कई दशकों से । अब तक कितने करोड़ हज़म हुए इस अभियान
में इस डाटाइन्ट्री में मुझे कोई खास दिलचश्पी नहीं है , क्यों कि हम सभी जानते
हैं कि सरकार के ज्यादा तर काम योजना, परियोजना, अभियान और डाटाइन्ट्री के सहारे
ही चलते हैं । उद्धाटन का शिलापट्ट लगा दिया जाता है, फोटो खिंच जाते हैं, अखबार
रंग जाते हैं- बात पूरी हो जाती है ।
सम्भवतः ज्यादातर योजनायें एक खास योजना के तहत ही बनायी
जाती हैं, यानी मुख्य योजना बनाने के पहले एक योजना बनायी जाती है कि इस बार
किस-किस को बेनीफीट देना है...इस बार किस-किस का पत्ता काटना है...।
न खाऊँगा औ न खाने दूंगा कहने भर से
तो काम चलने को नहीं है । सोचने वाली बात है कि लम्बे समय से खाने-पीने की जो लत
लगी हुयी है उसे अचानक बन्द करने के लिए भी तो एक योजना बनानी होगी ? साधारण सी बात है कि तम्बाकू खाने या कि सिगरेट पीने की आदत छुड़ानी मुश्किल
है, फिर सीमेन्ट, सरिया, कोलतार, कोयला, कॉन्करीट, खाद, भूसा या कि नोट-वोट जैसी
चीजें खाने-पचाने की आदत भला कैसे इतनी आसानी से छुड़ायी जा सकती है ? इतने मजबूत हाज़में वाली भट्टी को कुछ न कुछ ईंधन तो हमेशा चाहिए ही न ।
काफी पहले ही हमारे एक पूर्व प्रधान
मन्त्री ने बड़े ईमानदारी पूर्वक खेद व्यक्त किया था कि सरकारी योजनाओं के लिए जो
रकम मुहैया की जाती है, वो जमीन पर पहुँचते-पहुँचते मात्र 15% ही बच पाती है, यानी कि हमारे देश के नेता से लेकर अफसर तक इतने वफादार, ईमानदार
और कर्मठ हैं कि सिर्फ 85% से ही अपना काम चला लेते हैं बेचारे
। सोचने वाली बात है कि जहां 180 रुपये में आईकोनिक काजल की एक अच्छी सी डिबिया
आती है, ऐसी भीषण मंहगाई के जमाने में तो कोरे वेतन से सिर्फ बीबी को
खुश रखना भी मुश्किल है, फिर बाकी चीजों का क्या होगा ? मगर देशभक्त जनता इस गम्भीर विषय पर सोचती कहां है । वो तो वस अखबार और
टीवी में खबरें देखती हैं और उबल जाती है बिलकुल दूध की तरह ही, जो 100 डिग्री का
भी इन्तजार नहीं करता । अरे भाई ! अभी पन्द्रह प्रतिशत छोड़ दिया गया है तुम्हारे लिए । जरा रहम करो इन पर
भी । कितना मिहनत करके, कितनी गालियां सुन
कर, कितने अपमान सह कर क्या-क्या करम-कुकरम करके नेता और अब तो अफसर ही नहीं टीचर
या कि सरकारी चपरासी भी बनने के लिए वैसा ही कुछ-कुछ करना पड़ता है । अब किसी
यूनिवर्सीटी का या कि टीईटी का जाली सर्टिफिकेट न बनवाया जाये तो क्या बीबी-बच्चों
को भूखा मारा जाये ? मगर नासमझ जनता इतनी भी बात समझ नहीं
पाती । कितनी बार इशारा किया गया किन्तु समझ नहीं है बिलकुल, और समझ ही नहीं है जब
तकनीकी बारीकी की तो फिर बेकार की चिन्ता में क्यों ? तुम
अपना काम करते रहो- हर पांच साल पर सिर्फ
एक दिन । और ये लोग अपना काम करते रहेंगे 365 x 5 दिन ।
लूट-पाट का ये अविरल प्रवाह गंगा की
अविरल धारा की तरह वैसे ही चलता रहेगा, जैसे हत्यायें और बलात्कार का दिनों-दिन
विकास हो रहा है ।
अरे भाई ! कुछ तो विकास कर ही रहा है न । वादा तो विकास का ही किया गया था, फैक्ट्रियां
नहीं बनी, बेरोजगारी दूर नहीं हो पायी, तो क्या हो गया, अगली बार कोशिश की जायेगी
न । घबराते क्यों हो । क्या इतना भी कॉमनसेन्स नहीं है कि बड़ा काम करने के लिए
बड़ा समय भी चाहिए होता होता है !
ऐसी स्थिति में मुझे तो एक बात और
समझ आ रही है, सोचता हूँ योजना आयोग को लगे हाथ सुझाव दे ही डालूं – जिस तरह से
बिना पढ़े-लिखे डिग्रियाँ घर पहुँचा जाते हैं वी सी साहव के मुफ़स्सिर , जिस तरह
तीन रुपये किलो चावल-गेहूं पहुँच जाता है जरुरतमन्दों के घर, जिस तरह 35% वाले भी चुन लिए जाते हैं 95% को दरकिनार करके, उसी
तरह चुनाव आयोग को भी कुछ ऐसी ही करतब
दिखाना चाहिए , ताकि ईवीएम पर भी लांछना न लगे और न फिर से ‘वैलेटयुग’
में वापसी करनी पड़े ।
एक ऐसा ही सुझाव माननीय
सुप्रीमकोर्ट के लिए भी है मेरे पास कि जैसे धारा 370 की चिन्ता छोड़कर, धारा 497
और 377 आदि पर गम्भीरता पूर्वक विचार हुआ उसी तरह कोई ऐसी व्यवस्था दी जाये कि
बलात्कार और भ्रष्टाचार का स्वरुप ही बदल जाये । आंखिर दकियानूसी सोच वाला सोलवीं
शताब्दी में जीने वाला भारतीय बलात्कार को बलात्कार कहता ही क्यों है और
भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार ना कह कर सदाचार मान लेने में क्या आपत्ति है ?
एक बात और मुझे समझ नहीं आयी कि
गंगाप्रेमी अग्रवालजी की तुष्टि के लिए अविरल प्रवाह की अधिसूचना जो जारी कर दी
गयी, क्या वो गंगा आकाशगंगा होगी या कि यही वाली ? और यदि यही
गंगोत्री वाली ही होगी तो फिर उन बड़े-बड़े बांधों वाली योजनाओं का क्या होगा
? कानपूर की फैक्ट्रियों का क्या होगा ? और यदि ये सब नहीं होगा, तो फिर ये अविरल प्रवाह
का नाटक ही क्यों नहीं बन्ध कर दिया जाता ये सफाई अभियानों को क्यों नहीं बन्द कर
दिया जाता ?
पोलीथीन की फैक्ट्रियों पर अंकुश
नहीं लगना है । पोलीथीन यूज़र पर अंकुश लगने की बात हो रही है । लाइसेन्स देते समय का नियम-कानून कुछ और था अब
क्या कुछ और हो गया है ?
स्वच्छ भारत का अभियान चल रहा है
अभी । फोटो खिंचवाने का जबरदस्त दौर है । भावी चुनाव के पहले चेहरे दिखाने का फोकटिया
अवसर है । धो लो हाथ बहती गंगा के अविरल प्रवाह में ।
अरे बाबूमोसाय ! दिमाग में जो कचरा भरा है, बेईमानी भरी है, भ्रष्टाचार भरा है.. उसे पहले
क्यों नहीं साफ करते ?
पहले वही छोटा वाला ‘ ड्रेन
’ साफ कर लो , सड़कें और गलियां खुद-ब-खुद साफ हो
जायेंगी- बिलकुल तुम्हारे पायजामें-कुरते की तरह एकदम बगुला मार्का ।
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