रावण-दहन-दर्शन-लीला


                      रावण-दहन-दर्शन-लीला

  हम उत्सव-प्रिय लोग हैं । मजे की बात ये है कि खुशी का तो उत्सव करते ही हैं, गम और दुःख का भी करते हैं । दुनिया में किसी के आने का स्वागतोत्सव मनाते हैं- हैपी वर्थ डे कह कर, तो जाने का भी जश्न मनाते हैं- रामनाम सत्य है बोल कर । कमाल की बात तो ये है कि जीवन भर राम का नाम याद नहीं रहा जिसे, उसकी भी शवयात्रा रामनाम सत्य है के उदघोष के साथ ही निकलती है । राम को ज्यादातर दो ही समय याद किया जाता है— किसी की महायात्रा में या फिर चुनाव के पहले राम-मन्दिर बनाने की चोंचलेबाजी में । वैसे राम का नाम और कई बार भी लेते हैं— भगवा पताका फहराते हुए, तलवार-वर्छे भांजते हुए...यहां तक कि किसी बदबूदार और घृणास्पद चीज को देखने के बाद भी- राम-राम छीःछीः कहने में जरा भी देरी नहीं करते । किसी की भर्त्सना करने के लिए भी राम का प्रयोग कर ही लिया जाता है , किन्तु कहने की जरुरत नहीं कि ये सबके सब शब्द सिर्फ होठों के कसरत भर हैं ।

काश , जीवन में सच्चे मन से कभी एक बार भी राम का नाम लिया गया होता !

हालाकि रामनाम के अध्यात्मिक-दार्शनिक पहलुओं पर टिप्पणी करने से कोई खास फायदा नहीं, क्योंकि हमारे धर्म-धुरन्धरों ने , कथा-वाचकों ने और कुछ रामभक्तों ने इतना कुछ कह डाला है कि अब सुनने को जी नहीं चाहता । वैसे भी सुन कर क्या होना है- न मुक्ति मिलनी है और न मन्दिर ही बनना है , क्यों कि इन दोनों कामों के लिए जो कुछ भी चाहिए वो हमारे पास बिलकुल नहीं है । एक ओर राम को बहुतों ने कमाई का साधन बना लिया है, तो दूसरी ओर वोटवैंक भी । इन दोनों स्थिति-परिस्थिति से अनेक बार हम सबका वास्ता पड़ चुका है, अतः इस बावत कुछ कहना फिज़ूल है ।

और जब राम के बारे में कुछ कहने का मन न हो तो रावण के बारे में ही कहने में क्या हर्ज है 
!
राम ने रावण को मारा था— एक दुराचारी, अत्याचारी, बलात्कारी रावण को । और फिर उसकी याद में हम हर बार रावण का दहन करते हैं- पुतला जलाकर । पुतला तो आये दिन नेताओं का भी जलाते हैं किसी न किसी चौक-चौराहे पर । फोटो खिंचवाते हैं । अखबारों का हेडलाइन बनवाते हैं । कभी-कभी उससे कुछ हासिल भी हो जाता है । और कुछ नहीं भी हुआ तो अखबार में नाम और फोटो तो छप ही जाता है- इतना क्या कम है !

राम ने सिर्फ एक रावण को मारा था- विशश्रवा के पुत्र रावण को , लंकापति रावण को, क्यों कि उनके जमाने में सिर्फ वही एक था । किन्तु जहां रावण ही रावण हों—दशानन, शतानन, सहस्रानन..., जिन्हें न बोलने की तमीज़ हो और न चलने की, तो फिर कितनों का दहन किया जाए ! और करेगा कौन ! राम भी तो चाहिए ।

वैसे ये लोग ज्यादातर अपनी खोली में ही आराम फरमाते रहते हैं, बीच-बीच में बाहर झांकते-ताकते हैं- खासकर चुनाव के समय या कुछ घटना-दुर्घटना के समय भी, क्यों कि कुछ बोलने की पूरी आजादी होती है उस समय और फोटो छपने या टीवी इन्टर्व्यू की भी पक्की गुंजायश रहती है । बाकी समय उनके सहयोगी यानी कम आननों वाले उनके बदले काम निपटाते रहते हैं—लूट-पाट का काम, बलात्कार और हत्या का काम । इनमें अधिकांश का ऑथेन्टिक और ऑथोराइज वर्क होता है- ठेकेदारी । सड़क हो, बिल्डिंग हो, बालू-मिट्टी हो, पहाड़-जंगल हो या बोतल-सोतल । सरकारी-गैरसरकारी ज्यादातर निविदायें इन्हीं का स्वागत करती हैं , क्यों कि इन्हें कर्णपिचशाचिनी सिद्धि होती है- कि इस बार कितने का निविदा भरना है । ये सिद्धि वाली सुविधा चुंकि और लोगों को नहीं होती, इसलिए उन्हें सिर्फ भीड़ लगाने का अवसर मिलता है ।  

रावण को जलाते समय भी ऐसी ही भीड़ लगती है । भीड़ बढ़ने का इन्तज़ार भी किया जाता है । भीड़ बढ़ाने का उपाय भी किया जाता है । और फिर भीड़ तो महज भीड़ होती है । उसके पास देह के अलावे और कुछ नहीं होता । देह में दो हाथ होते हैं, जिन्हें जरुरत पड़ने पर एक दूसरे पर पटक-पटक कर तालियां बजायी जाती हैं । और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सिर भी पटकना पड़ता है । भीड़ में खुदा न खास्ते कुछ होनी-अनहोनी हो जाये, तो इसकी न तो खास परवाह की जाती है और न कोई जिम्मेवारी ही होती है – न मेहमान की औ न मेज़बान की । न आयोजक की और न प्रशासक की ।  और अपनी जिम्मेवारी तो हमसब प्रायः बहुत पहले ही लेना छोड़ दिये हैं, क्यों कि हमें पता हो चुका है कि हम अब गुलाम नहीं रहे यानी स्वतन्त्र हो गए हैं । अब हम पूरी तरह से स्वतन्त्र हैं कुछ भी करने को, कुछ भी बोलने को, कहीं आने-जाने को । मन करे तो एन.एच. पर टेंड लगाकर भोज-पार्टी देदें या डिस्को करें । मन हो तो रेलवे टैक पर टट्टी करें या उस पर बैठ कर रावण दहन देखें । सेल्फी मोड में तो हम हमेशा रहते ही हैं—मौका देखा, चट सेल्फी लिए और खट पोस्ट कर डाले । अरे भाई ट्रेनों का आना-जाना होगा तो खुद समझेगा- वो तो रेलवे का काम है । आंखिर इतनी कीमती वोट देकर हमने रेलमन्त्री बनाया किस बात के लिए है ! और ये भी तय है कि कुछ होने-जाने पर जरा से हो-हंगामें में मुआवज़ा तो मिल ही जाना है । आखिर अपनी सरकार है, फिर हम अपनी जिम्मेवारी क्यों उठाने की ज़हमत पालें ! अपना बेसकीमती दिमाग क्यों इस्तेमाल करें ! अपने भीतर के रावण को ढूढ़ने की क्यों कोशिश करें !

बाहर रावण घूम ही रहा है ।  बाहर रावण जल ही रहा है । उसका ही दहन क्यों न देखा जाए ?
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