प्रभावती-यात्रा-वृत्तान्त
आपके बहुमूल्य समय का मान रखते हुए, पहले
ही ये स्पष्ट कर दूँ कि ये कोई वी.आई.पी.यात्रा-वृत्तान्त नहीं है । न ए.सी. है न सिगार
के घुएं, रम्म, ज़ाम, गॉबलेट कुछ भी नहीं हैं यहां । न किसी हवाईयात्रा का वर्णन
है , न हिल स्टेशन का । कोई मेट्रोसीटी भी नहीं है इस प्रसंग में । धुंआधार नष्ट
हो रहे जंगल या पहाड़ों की वेदना और विकलता भी नहीं है यहां । आत्महत्या करते
किसान, लुटती हुयी बेटियों, जलती हुयी बहुओं की चर्चा भी नहीं है । स्त्री-विमर्श भी पुराना मैटर हो चला है ।
सर्वहारा पर तो बहुत रोटियां सेंकी जा चुकी । वैसे बात कुछ नयी नहीं कर रहा हूँ ।
बात नयी हो भी क्या सकती है ! पुराने चावल
का माड़ भी बहुत गाढ़ा होता है, भले ही कूकरीसभ्यता में ये रहस्य किसी को पता न हो
।
खैर, चर्चा कर रहा था प्रभावती यात्रा
की । ये यात्रा कुछ पैदल, कुछ रिक्शे से तय हुयी थी- बहुत ही आनन-फानन में । ठीक
से कपड़े पहनने और काकुल मारने का भी होश न था । तड़के ही दो-चार कुल्ला मारके
निकल जाना पड़ा था- स्थिति ही कुछ ऐसी थी । आसपड़ोस के अनुभवियों ने सुझाव दिया कि
साधारण लोगों के लिए प्राइवेट से कहीं अच्छा है प्रभावती । फॉर योर काइन्ड
इन्फॉर्मेशन ये ज़ाहिर कर दूं कि ‘प्रभावती’
अन्तर्राष्ट्रीय नगरी गया का बहुचर्चित जनानी अस्पताल है, जो पूरे तौर पर सरकार के
नियन्त्रण में है और सरकारी दस्तावेज़ ये बताते भी हैं कि वहां सबकुछ व्यवस्था
है...सारी आधुनिक सुविधाएं 24x7 की नयी
व्यवस्थानुकूल है ; किन्तु वहां पहुँचने और सर्च करने पर पता
चला कि जिस समय वहां पहुंचा था वो 24x7 के दायरे में नहीं
आता । हताश होकर एक शिलापट्ट पर थब्ब से
बैठ गया- 24x7 का हिसाब समझने के लिए, किन्तु चुंकि गणित
मेरा बहुत ही कमजोर है, इसलिए कुछ जोड़-बाकी न कर पाया ।
अभी ठीक से सुस्ता भी न पाया था कि एक
सज्जन तत्काल वहां उपस्थित हुए और पट्टिका की ओर इशारा करते हुए बोले - ये बैठने
की जगह नहीं है । देखते नहीं क्या लिखा है ।
उनके कहने पर चश्मे को थोड़ा ऊपर-नीचे
करके अपने मारक्रोस्कोप का पावर एडजस्ट किया, तब देखा— बा-मुश्किल एक फीट की ऊँचाई
पर संगमरमर पर कुछ हुरुफे अपनी वेवसी पर कुंढ़ रहे थे । ज़ाहिर था कि इस अस्पताल
को सन्1884 में तत्कालीन गवर्नर की पत्नी के नाम से स्थापित किया गया था, जिसे कालान्तर
में नया नाम भले दे दिया गया- प्रभावती;
किन्तु विडम्बना ये कि अभी तक गुलामी के उस दस्तावेज को हम उसी सम्मान से ढोये आ
रहे हैं और सच्चाई ये कि अस्पताल की विल्डिंग ही नहीं अन्य व्यवस्थायें भी उसी
दस्तावेज़ के मुताबिक हैं । अब भला उस जमाने में कोई सोनोग्राफी और अल्ड्रासाउण्ड
जैसे अज़ूबे शब्द से क्यों कर वाकिफ़ हो सकता था ! हां,
स्वच्छ भारत अभियान के जमाने में, पैथो-सेक्शन में जाने पर सोचना पड़ेगा कि मिचली आने पर थूकने का जी करे
तो नाक और मुंह में किसे पहले खोल कर काम चलाया जाये, वरना....।
स्वतन्त्रता प्राप्ति
के बाद आपातकाल यानी ‘इमर्जेंसी’
शब्द का चुंकि लोग गलत इस्तेमाल करने लगे हैं, इसलिए अनुशंसा की गयी है कि इसे व्यवहार
से ही नहीं कोश से भी निकाल बाहर किया जाय । शायद उसी का नतीजा है कि इमर्जेंसी
केश है - कहने पर एक बाबूनुमा व्यक्ति से झिड़की खानी पड़ी – ‘अभी
यहां कुछ नहीं होगा...बाहर जाइये...दो रुपये का टिकट कटाना पड़ता है...नौ बजे मैडम
आयेंगी...।’
टाइमपास वाला एनरॉयडधारी
न होने के कारण, इन्तजार में इधर-उधर भटकते हुए , एक सूचना पट्ट पर निगाहें चली
गयीं, जो उपलब्ध दवाइयों के लिए बनायी गयी थी, किन्तु उस पर सिर्फ और सिर्फ नाम भर
ही थे । आगे वाले कॉलमों का प्रयोग सिर्फ वोर्ड लिखने वाले ने ही किया था या हो
सकता है किसी मन्त्री-संतरी के इन्सपेक्शन पीरियड में उसका उपयोग किया गया हो कभी ।
सब के सब खाने गरीबों की झोली की तरह ही खाली पड़े थे, जिनका सारा का सारा माल
ऊपर-ऊपर ही उडंछू हो जाता है । बहुत मगज़पच्ची करने के बाद समझ आया कि गरीबी का ये
रॉ-मेटेरियल कितना जरुरी है देश के लिए । इन्हीं पर तो बहुत सी योजनायें टिकी हैं
। ये गरीब न होते, पिछली योजनाओं के बूते ये समृद्ध हो चुके होते, तो आज इस अस्पताल की क्या जरुरत होती ! और ये अस्पताल न होता , तो फिर इससे जुड़ी सैंकड़ों योजनाओं का क्या होता !
सवानौ वज गये थे । टिकटबाबू ने दर्शन
दिया । दो रुपये का टिकट लेकर अन्दर मेमसा’ब
के केबिन के बाहर खड़ा हो गया अपनी रुग्णा को आगे करके । चुंकि पहला नम्बर था, इसलिए
जरा भी देर न लगी- अन्दर जाने में और उधर से बाहर निकलने में भी । बा-मुश्किल
दो-ढ़ाई मिनट...। हाथ में पुर्जा लिये दूसरी खिड़की की तलाश होने लगी । दस मिनट के
बाद खिड़की तो मिली पर वहां के बाबू के दर्शन के लिए थोड़ा और इन्तज़ार करना पड़ा
। औपचारिकता का एक और नम्बर पुर्जे पर डाल कर , पीछे बने पैथोलैब में जाने का
सुझाव मिला ।
पैथोलैब और गोशाला में फर्क समझने में फिर
थोड़ा मगज़पच्ची करना पड़ा । दस बजे दिन में भी कमरे में अनुकूल रौशनी के अभाव में
बल्ब जलाने की जुगत करते वहां एक बाबू नजर, जो स्विचवोर्ड के प्लग प्वॉयन्ट में
नंगी तार घुसेड़ने का प्रयास कर रहे थे और मुंयी तार बार-बार नीचे गिरे जा रही थी ।
काफी मस्सकत के बाद तार खुंश पाया और कमरा रौशन हुआ । तब बेचारे पी.टी.स्टिक को
पुर्जे से जोड़ने के लिए सेलोटेप में उलझ गए । कोई पांच मिनट के बाद पता चला कि वो
तो केवल ढांचा भर बचा है, टेप तो कब का खतम हो चुका है । लाचार होकर स्टिक को
पुर्जे से स्टेपल करना पड़ा । खैरियत था कि स्टेप्लर में पीन मौजूद था । मुझे तो लग
रहा था कि कहीं सूई-धागा का जुगाड़ न करना पड़े । यूरिनरिपोर्ट लेकर, पुनः मैडम के
पास आना पड़ा । अगली मीटिंग में अल्ट्रासाउण्ड प्रेस्क्राइब हुआ, इस सुझाव के साथ
कि कहीं बाहर से कराना पड़ेगा या फिर मेडिकल कॉलेज जा सकते हैं । आग्रह के बावजूद आपातस्थिति
की भी कोई दवा सजेस्ट इसलिए नहीं की गयी
कि बिना फाइनल रिपोर्ट के कैसे हो सकता है ।
मुझे लगा कि क्या बेवकूफ हुआ करते थे
पहले के वैद्य, जो नब्ज़ टटोले और घास-पत्ते की पुड़िया थमा दिये । दूसरी बात, ये सोचने
को मजबूर हुआ कि आधुनिक चिकित्सा मशीनों पर निर्भर होकर जटिल हुयी है या आसान !
एक अस्पताल में बारह बजा चुका था, अब
दूसरे के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाया । साधारण लोग भाग्य और भगवान पर शायद अधिक
भरोसा रखते हैं और अपने सनातन धरोहर पर भी ।
वापस डेरा लौट आया । अपने तज़ुर्बे की
चूरन-चटनी के बूते उपचार शुरु किया । पहले ही खुराख से काफी राहत महसूस किया
रुग्णा ने और अगले तीन-चार दिनों में
बिलकुल सामान्य ।
तामझामी उपकरणीय चिकित्सा-पद्धति को
बढ़ावा देने के लिए क्या बिलकुल सुनियोजित ढंग से हमारे धरोहरों को नष्ट नहीं किया
गया है ?
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