सूर्यपुत्र
की समस्या
इधर अचानक कुछ दिनों से छोटे वाले
सूर्यपुत्र कुछ चिन्तित से हैं । हालाकि बड़े वाले पहले की तरह ही बमबम हैं, और
कभी-कभी मुस्कुरा भी लेते हैं अपने छोटे भाई की चिन्ता पर । कर्तव्य की भाषा में
कहूं तो चाहिए ये था कि तत्काल यमलोक जाते और अनुज की समस्या जानने का प्रयास करते
और यथासम्भव उससे निज़ात दिलाने की कोशिश भी करते । किन्तु ऐसा कुछ उन्होंने किया
नहीं और न करना जरुरी ही समझा । ढाई वर्षों में राशि परिवर्तन करते, मुस्कुराते
हुए अपनी मन्द गति से चलते रहे राशिपथ पर । इनकी तरह उस बेचारे को तो कुण्डली में
कोई खास जगह मिली नहीं है, भले ही आधुनिक ज्योतिषी अरुण, बरुण,यम सबको लपेट लिए
हैं पुराने वाले बारहघरवा में ही ।
प्रिय भगिनी यमुना पर प्रसन्न होकर,
यम ने उसे वचन तो दे दिया था कि तुममें स्नान करने वाले को यमदूतों का भय नहीं
सतायेगा- इसीलिए खास कर यमद्वितीया के दिन तो यमुना और मथुरा दोनों का महत्त्व और
भी बढ़ जाता है, किन्तु अपने को आधुनिक ही नहीं अत्याधुनिक और काबिल समझने वाला
आदमी भला इन बातों को समझे-जाने-बूझे तब न । थोड़े से, मिथकवादी विचारधारी भले
मानस यदि हिम्मत जुटा कर यमुना में स्नान का मन भी बनावें तो कहां जायें डुबकी
लगाने ? आधुनिक
हस्तिनापुर वाले तो यमुना की उत्ताल तरंगों की कल्पना भी नहीं कर पाते । पुरानी
वाली गहराई क्या खाक जानेंगे ! सुरसरिता कही जाने वाली गंगा की ही जब ये
दुर्गति है कि कई करोड़ हज़म कर जाने के बावजूद सफाई अभियान का कोई खास नतीज़ा
नहीं नज़र आया, तो फिर भला यमुना को कौन पूछे ?
निरीह-दुर्बल
सा दो हाथ वाला आदमी अपनी भरपायी और सफाई तो ठीक से कर नहीं पाता, अब भला इन
नदियों का कितना खयाल रखे ! ये
मुआ पेट भी ऐसा ज़ालिम है कि कभी भरता ही नहीं । ब्रह्मा को क्या इतना भी नहीं
मालूम कि कलिकाल में कुछ छोटे आकार के पेट वाला इन्सान गढ़ना चाहिए !
और
साथ ही देवताओं से उधार लेकर दो-चार हाथ और बढ़ा दे , ताकि दौलत बटोरने में सुविधा
हो । दौलत और शोहरत ही न कमाया, जवानी का लुफ़्त ही न उठाया, तो भला मानव-जीवन
अकारथ हुआ कि नहीं ! ‘मिनी’
के जमाने में सबकुछ तो छोटा होता जा रहा है, एक से एक चमत्कारी छोटे डिवाइसों का
इज़ाद हो रहा है, ऐसे में नदियों का कलेवर भी मिनी कर दिया भू-माफिआओं ने तो कौन
सा पहाड़ टूट पड़ा !
पर्यावरणविदों को और कुछ काम-वाम तो रह नहीं गया है, कुछ का कुछ ब्रॉडकास्ट करते
रहते हैं । और नहीं तो रिटायरमेन्ट के बाद सधुआ जाते हैं, और गंगा-सफाई के नाम पर
आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं । उन भले मानस को ये भी नहीं पता होता कि सरकारें कान
में गुलरोगन का तेल डालकर, इत्मिनान से अपने आवंटित ए.सी. में डनलप लगाकर सोयी
होती हैं । उनके कान पर जूं भी नहीं रेंगते । मच्छरों को तो कालाहिट से मार ही
डाला है । राम तेरी गंगा मैली- सिर्फ फिल्म हो सकती है, जिसे देखकर मनोरंजन और
धनार्जन किया जा सकता है । ऐसी बातें अमल-पहल के लिए बिलकुल नहीं होती । अब कोई
गौ-गंगा-गोविन्द के नाम पर असलीवाला अनशन करे और मर जाये तो भला सरकारों का क्या
दोष ? वे
तो केवल माने बैठे होती हैं कि अनशन को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की परम्परा
सी चल पड़ी है । ठेठ मगहिया अंदाज में कहना चाहूं तो कहना पड़ेगा—रोज-रोज ऊखिये
में राह गलयेबs ! अब
कोई बार-बार एक ही हथियार का प्रयोग करेगा- तो उस पर भला कितना ध्यान दिया जाये !
हालाकि
निठल्लों के लिए रामलीला मैदान और जन्तर-मन्तर जैसी जगह तो मुहैया कर ही दी गयी
है- जी भर कर अनशन-धरना-प्रदर्शन करते रहो वहां जाकर । ये कौन नहीं जानता कि
बहुतों की रोजी-रोटी इसी पर चलती है ।
खैर, बात-बात में मैं जरा बहक गया
था । बात थी सूर्यपुत्र की निजी समस्या की । इस पर तो मेरी राय है कि वचन देते समय
ही उन्हें सोच लेना चाहिए था ठीक से । प्यारी बहना पर खुश होकर, जल्दबाजी में वचन
क्यों दे दिये- जैसा कि नेतालोग जल्दबाजी में कुछ का कुछ बयानबाजी कर देते हैं ?
हालाकि नेतालोग कौवे से भी ज्यादा
चतुर होते हैं । हर बात सोच-समझ कर, झाड़-पोंछ कर बोलते हैं । उलजलूल सा लगने वाला
बयान तो वो इसलिए देते हैं, ताकि अखबार की सुर्खियां बटोरी जा सके । हालाकि
कभी-कभी चूक जाते हैं । उन्हें ये पता होना चाहिए कि बयानबाजी या कि ज़ुमलेबाजी से
जनता बोट नहीं देती । न बार-बार सूट बदलने से वोट मिलने को है, और न टीका लगाकर,
जनेऊ पहनने से । टीक-टोपी पर वोट बटोरने का जमाना लद गया । जनता तो जमीन देखती है,
वो जमीन जिस पर कुछ उतरा होता है- पिछले पांच सालों में । वो आसमान देखती है, जिस
पर कुछ चमकता होता है पिछले पांच सालों में । वैसे किटआउट और हुटआउट का अर्थ तो
मालूम ही होना चाहिए ।
अरे !
मैं भी कहां फंस गया नेताओं की बखिया-विचार में !
बात
ये है कि कनिष्ठ सूर्यपुत्र के वचन तो भीष्म की प्रतिज्ञा सी ‘ अजागलस्तन ’ सा नासूर बन गया । एक बार दशरथ
ने भी ऐसी ही जल्दबाजी में वचन दे दिया था कैकेयी को जिसका खामियाज़ा पूरे
अयोध्यावासी को भुगतना पड़ा था । अयोध्या-नरेश की बात तो आज भी विवादास्पद ही है ।
मुझे तो लगता है कि अयोध्या की कुण्डली पर ही विचार करने की जरुरत है कि शनि की
साढ़ेसाती अभी पूरी हुयी या नहीं ?
शनि की महादशा भी तो उन्नीस वर्षों की ही होती है । कहीं ऐसा तो नहीं कि शनि अपना
लोक छोड़कर राम जन्मभूमि में ही आ बसे हों !
किन्तु
नहीं, ज्योतिष कहता है कि शनि का वास शुभ होता है, दोष केवल दृष्टि में होता है ।
वैसे
पता नहीं इन दोनों भाइयों का आपस में क्या गुपचुप चल रहा है । मैं तो सिर्फ इतना
ही कहना चाहूंगा कि सूर्य-पुत्र नाहक परेशान हैं । वचन और बयान में कोताही बिलकुल
नहीं करनी चाहिए ।
गंगा-जमुना
पट जाये, देश बंट जाये या कि जनता कट जाये- देखा जायेगा फिर पांच साल बाद । मुद्दा
बना रहे- होशियारी इसी में है । अनुभवी लोग कहा करते हैं न कि वर्तमान जीवी होना
चाहिए ।
भविष्य की चिन्ता क्यों ! वचने किं
दरिद्रता ?
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