चौकी-चौका-चौक
वो क्या है न कि गोबर ठोंकने के लिए
पहले भूसी मिलाकर गोल-गोल लोइयाँ बनाते हैं, फिर उसे किसी एक जगह पर आहिस्ते से
थपकाते हैं और तब जोर से थाप मारते हैं सही जगह पर, ताकि गोइठा सही आकार लेले और
तब तक चिपका रहे, जबतक उखाड़ा(हटाया) न जाये ।
कुछ कहने से पहले, कुछ और कहना जरुरी
सा लग रहा है । ‘कुछ और’ का मैटर नहीं है मेरे पास, इसलिए जानी-पहचानी-पुरानी
एक कहानी कहकर ही अपनी बात रखने की ‘न्यू’ बना
रहा हूँ ।
नेता
और पंडित में बहुत मामले में समानता है । एक भाषण पिलाने को बेताब रहता है और
दूसरा प्रवचन पिलाने को । भले ही भाषण किसी और ने लिखकर दिया हो, भले ही प्रवचन
अभी हाल में ही कहीं सुना-पढ़ा हो, पर जल्दी से जल्दी किसी और को सुनाकर अपनी
ज्ञान-गगरी को खाली कर लेना जरुरी ही नहीं अपरिहार्य समझता है ।
अनुभवी
जनों का मानना है कि यदि ये ऐसा न करें तो पेट में गुड़गुड़ाहट सी होने लगती है,
या हो सकता है विक्रमादित्य के वेताल वाली शर्त याद आ जाये- जानते हुए भी नहीं
बोलोगे तो सिर फट जायेगा ।
नेता
सदा चौक खोजता है और पंडित चौकी । या कहें तो दोनों चौक-चौकी की जुगाड़ में रहते
हैं । चौकी यानी आम से थोड़ी ऊँची वाली जगह, जहां कोई ‘खास’ उचक कर आसीन हो सके और अपने भीतर के गर्द-गुब्बारों को बाहर निकाल सके ।
भले ही उससे किसी का भला हो या बुरा । अब कहने वाला, भला कब सोचता है कि सुनने
वाले पर क्या असर होगा उसकी बातों का । दरअसल असर-बेअसर तो सुनने वाले का ‘क्षेत्र’ है न – वो सुने, ना सुने । सुन कर वहीं छोड़ जाये, अथवा घसीट कर घर ले
जाये । हालाकि ज्यादातर होता ये है कि हम
सुन भी लेते हैं, समेट भी लेते हैं, परन्तु घसीट कर घर तक ले जाने की ज़हमत नहीं
पालते । रास्ते में मौका पाते ही किसी और के गले मढ़ देने का प्रयास करते हैं । खैर
।
बात
हो रही थी पुरानी कहानी की । एक बार एक पंडितजी भक्तों की भारी भीड़ में ऊँची सी
चौकी पर बैठकर प्रवचन कर रहे थे । यजमानों को उपदेश देते हुए बोले कि बैंगन बहुत
ही हानिकारक है- आयुर्वेद की दृष्टि से भी और धर्मशास्त्र की दृष्टि से भी , अब तो
‘नासा’ वाले भी इसका विरोध करने लगे हैं ।
संयोग
से या कहें दुर्योग से उसी स्रोता-मंडली में पंडिताइन भी बैठी थी । उस वेचारी ने
तो अपने मैके में सिर्फ इतना ही सुन रखा था कि एकादशी से एक दिन पहले और एक दिन
बाद बैंगन नहीं खाना चाहिए । और हां, आयुर्वेद तो यहां तक बैंगन का बखान करता है
कि यदि गरिष्ट भोजन कर लिए हों तो बैंगन का चोखा प्रचुर मात्रा में खा लें...सारा
का सारा घासलेटी मलबा साफ हो जायेगा । किन्तु आज पंडितजी की नयी बात पंडिताइन की
जानकारियों पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया ।
भागी-भागी
घर लौटी । थोड़ी देर बाद भूखे-प्यासे पंडितजी भी पधारे अकाल के कुकुर की तरह
हांफते हुए ।
पितृसत्तात्मक
सामाजिक व्यवस्था में स्त्री की क्या विसात !
कांपते
हांथों से भोजन की थाल सामने रख गयी । कुड़कुड़ाते पेट को आश्वासन देते पंडित जी
पीढ़े पर बैठते ही आग बबूला हो गए— अरे ! ये क्या सिर्फ रोटी और अचार...सब्जी क्यों नहीं बनायी ?
भींगे कुकुर की तरह कांपती पंडिताइन ने कहा- सब्जी तो
बैंगन की बनायी थी । आपका प्रवचन सुन अभी-अभी बाहर फेंक आयी ।
पंडितजी पहले तो भड़कने के मूड में आये, किन्तु प्यारी
पंडिताइन के भोलेपन और पतिपरायणता का ध्यान आते ही बिलकुल नरम पड़ गए, मानों
पंडिताइन नहीं कोई सलोनी सी जजमानिन ही हो सामने । मुस्कुराते हुए बोले— अरे भाग्यवती ! तुम्हें इतनी भी अकल नहीं मिली थी मैके से कि चौकी और चौका की बात
जुदा-जुदा होती है। अब वहां जजमानों की जमात में बैंगन की बुराई न करुं तो गोभी-परवल भला कौन
खिलायेगा ? वही सस्ता वाला
बैंगन परोस देगा पूड़ी-बुन्दिया के साथ...।
ये पुरानी कहानी बहुत कुछ सोचने-कहने का अवसर दे
जाती है ।
चौकी
और चौका में हम इतना फर्क क्यों कर लेते हैं ? कथनी और करनी में इतना विरोधाभास क्यों हो जाता है? कथनी
का लेशमात्र भी करनी में नज़र नहीं आता । मंच पर घोषणायें बड़ी-बड़ी होती हैं और
जमीन पर कुछखास उतर नहीं पाता । वचने किं दरिद्रता... वाली लोकोक्ति
चरितार्थ होकर रह जाती है ।
किसी
पार्टी का घोषणा-पत्र हो या किसी बाबा का प्रवचन, परिणाम और उपलब्धि सब शिफ़र । मेरी बातों पर यकीन न हो तो दस पार्टियों का
चुनावी घोषणा-पत्र उठा लें, सबके मुखपृष्ठ फाड़ दें और फिर
आपस में मिला दें, और फिर से पेजवाइज सजा दें । आप पायेंगे
कि क्रमांकों और अनुच्छेदों में अन्तर भले हो, ‘थीम’ में अन्तर बिलुकल नहीं मिलेगा । सभी पार्टियां एक जैसी चोचलेबाजी करती मिलेंगी- गरीबी की बात,
किसान की बात, मजदूर की बात, दलित-शोषित की बात, मन्दिर-मस्जिद की बात, बेरोजगार की बात,
भ्रष्टाचार की बात, लूट की बात, घोटाले की बात, काले-गोरे धन की बात, मन की बात, तन की बात...।
ठीक
इसी तरह दस-बीस बाबाओं के प्रवचन कलेक्ट कर कल्चर करलें। आप पायेंगे कि सबमें एक
ही उपदेश है- निन्दा मत करो, चुगली
मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो,
जीव हिंसा मत करो, सबमें ईश्वर का अंश है...।
नेता
भाषण देकर चले जाते हैं, बाबा प्रवचन देकर । देश और समाज वहीं का वहीं ठिठका रह
जाता है। अपने पुराने ढर्रे पर चलता रह जाता है । क्यों कि उसे भी पता है कि ये
दोनों अपना-अपना रोजगार कर रहे हैं । न तो नेता को देश से मतलब है और न बाबा को
समाज से । किन्तु मजे की बात ये है कि जान-समझ कर भी हम फिर इकट्ठे हो जाते हैं-
किसी बाबा या कि नेता की बकबक सुनने को ।
नेता
की बातों में सिर्फ एक पर ईमानदारी से पहल हो जाये- ‘भ्रष्टाचार’ पोलियो उन्मूलन की तरह जड़-मूल से
समाप्त हो जाये, तो देश की दिशा और दशा दोनों बदल जाये ।
बाबाओं
की बात में सिर्फ एक पर पहल हो जाये- सर्वत्र एक ही ईश्वरीय सत्ता है, फिर संसार
की सारी समस्यायें ही समाप्त हो जायें । कौन किसकी निन्दा करेगा, कौन किससे और
किसकी चुगली करेगा, कौन हिंसा करेगा !
आजकल
विभिन्न जातीय सम्मेलनों की बाढ़ आयी है । सभी जातियां एकजुट होने को उतारु हैं ।
सब अपने-अपने खेमे में घुस जाने को आतुर दीखते हैं । क्यों कि मानव वाली बड़ी सी
कनात माकूल नहीं लगती ।
किन्तु
दीखते भर हैं । होते नहीं ।
जरा
गौर फरमायें तो पायेंगे कि वहां भी कुर्सी और तिजोरी की ही कवायद है सिर्फ । पूरी
जमात सचिव-अध्यक्ष-कोषाध्यक्ष की कुर्सी
पर ही आसीन होना चाहता है । कार्यकर्ता तो कोई रहना ही नहीं चाहता । और परिणाम—टुकड़े-टुकड़े-टुकड़े
। पूरी कायनात फाड़-फूड़, नोच-चोंथ कर ‘रुमाल’ भर भी बच नहीं पाता सलामत ।
दरअसल
ये सारा खेल अहंकार का है । समर्पण का इसमें रत्ती भर भी खुशबू नहीं है । अहं में
सत्ता की भूख है सिर्फ , समर्पण में सेवा का भाव । यहां रखना कुछ है ही नहीं । पाना
कुछ है ही नहीं । सिर्फ देना और देना है । करना और करना है ।
इस
‘अहं’ का ही
विसर्जन करना होगा । अहं गया कि ईश्वर उतरा । चौकी-चौका का भेद मिटा कि सबकुछ ‘चौक’ में बदल जायेगा । अस्तु।
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