पत्तियाँ छांटने की कवायद
जड़
सींचने की शिक्षा हमारे बुज़ुर्ग लोग दिया करते थे । जड़ ही सुरक्षित न रहा यदि,
फिर पत्तियों और तनों का क्या होगा ?
जड़ गया कि सब नेस्तोनाबूद ।
बात में दम भी है ।
किसी ऐसे ही जड़ को जड़ से समाप्त
करने की प्रतिज्ञा ली थी आचार्य चाणक्य ने । ये कहने की जरुरत नहीं कि वे
मगध-विभूति थे । और आज भी समीचीन हैं । भविष्य में भी रहेंगे ।
किन्तु बड़े खेद की बात है कि
कौटिल्य के उसी मगध या जरा विस्तार से कहें तो ऐतिहासिक पाटलीपुत्र या और विस्तार
दें तो हमारे बिहार में जड़ पर प्रहार किये वगैर, पत्तियों की छंटायी की कवायद चल
रही है । हालाकि बिलकुल पहली बार ऐसा किसी राज्य में हुआ है- सो बात नहीं है । ऐसे
प्रयास, सुप्रयास, दुस्प्रयास कई बार चलते रहे हैं—अलग-अलग कार्यों के लिए,
अलग-अलग प्रदेशों में । ये नजदीक होने के चलते थोड़ा बड़ा दीख रहा है- वो जैसे
मैग्नीफाइंग-ग्लास से दीखता है न, ठीक वैसा ही ।
जग-जाहिर है कि छोटे-बड़े आकार देने
का काम मीडिया के जिम्मे होता है । इसका मुंह मीठा रहेगा तो करेला भी कलाकन्द सा
स्वाद देगा, अन्यथा कलाकन्द भी खाने की कोई चीज है ! बहुत ही
गैस बनाता है पेट में पहुँच कर ।
खैर, बात मैं शुरु किया था पत्तियों
की कटाई-छंटाई से । क्यों कि नयी वाली चाणक्य नीति यही है- पत्तियाँ छांटते रहो,
जड़ को तो छूना भी मत , क्यों कि सबका जड़ वहीं है- तुम्हारा भी हमारा भी । नेता
का भी, अनेता का भी । विजेता का भी, अविजेता का भी । पक्ष का भी , प्रतिपक्ष का भी
। एक ही ईश्वर के अनेक रुपों की तरह, एक ही कारण का सारा कुछ विस्तार भर है ।
दरअसल हमारे सरकार बहादुर के पास वो
‘’सायन्स-रिव्यू’’
वाली मैगज़ीन अभी हाल में पहुँची है शायद । छपी तो बहुत पहले थी, वैज्ञानिकों ने
अगाह तो शुरु में ही कर दिया था- मेरिट-डिमेरिट का, परन्तु वो क्या है न कि
जानकारी या कहें सूचना जरा देर से मिली कि प्लास्टिक-पोलीथीन आदि पर्यावरण के लिए
बहुत ही हानिकारक हैं । इसी तरह शराब भी व्यक्ति और समाज के स्वास्थ्य
के लिए हानिकारक है । और यही कारण है
कि नौकरशाहों को जरुरी फाइलें छोड़ कर महुए के पेड़ गिनने और पड़ोसी राज्यों से
आने वाली ट्रेनों में ड्यूटी लगा दी गयी है । इतना ही नहीं अकसर खा-पीकर मस्त रहने
वाले नगरनिगम-कर्मी भी चैतन्य हो गये हैं । सड़क-गली-नुक्कड़ों पर बड़े-बड़े वोर्ड
लगाये गए हैं पर्यावरण-पुराण-सूत्र लिखकर, तथा जनता को जागरुक करने के लिए नाटकों
के रंगारंग कार्यक्रम भी चलाये जा रहे । आखिर जागरुक जनता को करना है, तो इसमें
पैसा भी जनता का ही लगना चाहिए न !
इसीलिए टैक्स के पैसे को पानी की तरह
बहाकर, एन्फ्रास्ट्रकचर के विकास के बजाय वौद्धिक-विकास
यानी पर्यावरण की समझ पर प्रकाश डाला जा रहा है । बाजार जाते समय घर से झोला लेकर
निकलने की नसीहत दी जा रही है । इसका प्रत्यक्ष लाभ तो हमें ये दीखता है कि झोले
का व्यवसाय खूब विकसित होगा और आने वाले चुनाव के पहले काफी बेरोजगारों को रोजगार
मिल जायेगा । पुराने अखबार की कीमत भी बढ़ेगी, क्यों कि वर्षों से ठोंगा बनाने का
पिछड़ा हुआ सा व्यवसाय, फिर एकबार सिर उठाकर बाइज्जत जिन्दगी जी सकेगा ।
मजे की बात ये है कि आलू वाले को जुर्माना
देना पड़ेगा पोलीथीन में आलू देने पर, किन्तु मल्टीनेशन कम्पनियों को उसी दस रुपये
वाले आलू का चीप्स बनाकर 400 रुपये में बेचने पर ज़ुर्माने के बजाय बख़्सिश देने का इन्तज़ाम है , क्यों कि बड़ी कम्पनियों
के रैपर से पर्यावरण को कोई नुकसान होने का खतरा नहीं है- ऐसा शायद मंगलग्रह के
एलीयन वैज्ञानिक ने दावा किया है । ठीक उसी तरह थानाप्रभारी को पूजा-दक्षिणा देकर दारु
बेचने वा पीने से या वीवीआईपी लोगों द्वारा शराब का इस्तेमाल करने से देश या समाज को कोई नुकसान नहीं होता – ठीक वैसे
ही जैसे पंडितजी के पेट में जाकर अंडा भी शाकाहारी हो जाता है, उसी तरह औकाद वाले
लोगों के हलक से उतर कर दारु भी गंगाजल हो जाता है ।
असल बात ये है कि आम आदमी को हमेशा अपने
हद-वो-ज़द में रहना चाहिए , क्योंकि औकाद के लिए कद जरुरी है ।
किन्तु
ये गम्भीर सी बातें मुझ नासमझ को समझ नहीं आ रही है कि पत्तियां छांटें या कि जड़
काटें ?
क्या पोलीथीन बनानेवाली कम्पनियों को लाइसेंस देते समय सिरफिरी सरकारों को ये
सोचना नहीं चाहिए था या फिर, बाजारों और गोदामों में छापेमारी करने के बजाय, सीधे
कम्पनियों का प्रोडक्शन ही क्यों नहीं बन्द करवा दिया जाता ? जड़
कट जाने पर पत्तियां क्या खुद-व-खुद झड़-सूख नहीं जायेंगी ?
मंच पर भाषण देकर नहीं, मीडिया
में फोटो छपवाकर नहीं,
बल्कि बेडरुम में इत्मिनान से गाल
या दिल पर हाथ धरकर सोचने की जरुरत है कि क्या शराब एक दिन के लिए भी बन्द हुआ है
और क्या पोलीथीन भी बन्द हो जायेगा इस कवायद से ?
मुझे तो ऐसा ही लगता है- सरकारी
खजाने में शराब से मिलने वाले टैक्स का आना भले बन्द हो गया हो, पुलिस-प्रशासन के
आय का एक नया ज़रिया खुल गया है, पीने-पिलाने वालों का क्रम उसी तरह जारी है और
जारी भी रहेगा ।
ये कह कर मैं शराब या पोलीथीन का
समर्थन नहीं कर रहा हूँ, बल्कि निर्णयात्मक सोच पर प्रश्न-चिह्न लगा रहा हूँ । कोई
भी योजना बनाने से पहले उसके प्रत्येक पहलुओं पर गम्भीरता से विचार क्यों नहीं कर
लिया जाता ?
उतावले में बचकाने निर्णय लेकर, क्यों जनता
पर थोप दिये जाते हैं?
क्या इन सवालों पर विधायिका के
मदमस्त लोग विचार करेंगे कभी ?
और नहीं , तो फिर उन्हें चेत जाना
चाहिए- जनता भी अपनी औकाद दिखाने को व्याकुल है ।
जय हिन्द ।
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