पादुका
वियोग की पीड़ा
रहीम
कवि ने कहा है –
रहिमन
निज मन की व्यथा मन ही राख्यो गोय । सुनि अठिलैहैं लोग सबै बांट न लीन्हैं कोय ।
किन्तु क्या करुं,कविवर वाला
धैर्य जो नहीं है मेरे पास । अब सुन कर लोग हँसे या खिल्ली उड़ायें । मन की व्यथा
तो कहने से ही शायद कम होती है न । वैसे भी आजकल शेयर और फॉरवर्ड वाला जमाना है –
क्या-कैसा का सोच-विचार किए वगैर, चट शेयर और फॉरवर्ड वटन क्लिक करने वाला जमाना ।
दरअसल
इधर कई दिनों से मैं बहुत ही व्यथित हूँ । दुःखी हूँ । निराश और हताश भी हो गया
हूँ । काश ! ऐसा न हुआ होता मेरे साथ । भगवान न करें मेरे दुश्मन के साथ भी ऐसा हो
कभी,जो मेरे साथ हो चुका । और सबसे बड़ी पीड़ा इस बात की है कि बिलकुल असमय में
हुआ है। एकदम से ऐसे समय में जिस समय पादुका यानी जूता से टीआरपी ग्रोथ हो रहा है
। चैनलों पर जूते का कृत्य बड़े ही जोशोखरोश से दिखाया-सुनाया जा रहा है । इतने
जोश से कि उसके सामने जवानों की शहादत की खबर भी पीछे छूट जा रही है । एयरस्ट्राइक
भी बे-मानी सा लग रहा है। लगता है कि राफेल विमान की जगह ये अद्यतन जूता-कांड ही
ले लेगा आगामी चुनाव में । वैसे भी ये कम घातक थोड़े जो है ।
और सबसे बड़ी बात ये है कि
ऐसा विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ है । गिनीजबुक में ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं
मिलता । अतः ओलम्पिक के आयोजकों से मैं निवेदन करना चाहूँगा कि अगली बार से जूता
मारो प्रतियोगिता को भी शामिल किया जाये । भला आप ही बतायें- महज चार सेकेन्ड में
कोई नौ जूते मार सकता है,वो भी ‘ सेल्फ रनिंग कमेन्ट्री ’ के साथ ! इसमें मेरा स्वार्थ वस इतना है कि मेरे
महान लोकतान्त्रिक देश को इकलौता स्वर्णपदक अवश्य हासिल होगा । ऐसे मानिन्द सिर्फ
हमारे देश में ही हो सकते हैं । दूसरे देशों की भला क्या औकाद !
वात
दरअसल ये है कि मेरा जूता अभी हाल में ही खो गया । किसी भलेमानस ने उड़ा लिया
मन्दिर के दरवाजे से । उस मूरख को भला ये भी नहीं पता था कि ये मेरा ससुराली जूता
था- बहुत ही प्यारा । बहुत ही संजो कर रखा था उसे । और गाहे-बगाहे कुछ खास अवसरों
पर ही इस्तेमाल करता था,क्यों कि अच्छी खासी कम्पनियों का जूता खरीदना सबके बस की
बात नहीं है । कम से कम मेरे बस की तो बिलकुल ही नहीं । लम्बी जिन्दगी यूं ही गुजर
गयी चप्पलों पर ही ।
आपको
तो पता ही होगा- जूता शान का प्रतीक है । जूता मान का प्रतीक है । और इतना ही नहीं
जूता अपमान का भी प्रतीक है । तभी तो बात-बात में लोग कहते हैं- जूता मारुंगा ।
भले ही वो चप्पल वाले ही क्यों न हों । जूते मारने की वार्निंग समयानुसार प्रयोग
होता है । पुराने जमाने में नौकरों और कमजोर तबके की पत्नियों पर प्रयोग होता था ।
जमाने ने इन दोनों को मजबूत बना दिया है- तरह-तरह के कानून बना कर । किन्तु ऐसा
कोई कानून अब तक नहीं बना है कि कानून बनाने वाला कानून बनाने वाले पर जूता न मारे
। यही कारण है कि इस फॉल्ट का बेनीफिट ले लिया मानिंद ने ।
सोचने वाली बात है कि
बड़ी-बड़ी योजनाओं का मुख्य उद्देश्य ही होता है शिलापट्ट पर नाम उकेरवाना और अपनी
दीन-दशा सुधारना कराना । अब कोई सिरफिरा साधुनुमा शासक आजाये, जो न खुद खाये और न
दूसरे को खाने दे,ऐसी विकट परिस्थिति में नाम भी शिलालेख से नदारथ रहे तो भला कौन
बरदाश्त कर सकता है !
मूल बात ये है कि जूता इतना
महत्त्वपूर्ण है कि अकसर टूटने पर भी काम आ जाता है - विशेष कर सभाओं में नेताओं
पर उछालने के लिए ।
फूलों की तरह जूतों की भी
माला बनायी जाती है,जिसकी महिमा का बखान करना मेरे बस की बात नहीं । बड़े-बड़े नेता इसे धारण करने के लिए हमेशा
गर्दन झुकाये फिरते हैं । जूते खाकर,जूते की माला धारण कर, यदि कुर्सी मिल जाये, तो
भला कोई महंगा सौदा थोड़े जो है ।
किन्तु मुझे दुःख इस बात का
है कि मेरा जूता किसी ने ऐन मौके पर गायब कर दिया । चैनल वालों ने इस रहस्य से अभी
तक परदा नहीं हटाया कि प्रहार में प्रयुक्त जूता नामधारी हथियार जूता मारने वाले
का ही था या किसी और का । कहीं मेरे वाले जूते को ही सुनियोजित साजिश के तहत सभा
में डेस्क के नीचे छिपा तो नहीं दिया था किसी ने !
वहां मौजूद पुलिस आलाकमान को
सबसे पहले हथियार जप्त करनी चाहिए थी । और उसे सीलबन्द कर सुरक्षित रखना चाहिए था,
ताकि जरुरत पड़ने पर सबूत के तौर पर पेश किया जा सके और आगे, मामले के रफादफा के
बाद सरकारी अभिलेखागार में या बड़े अज़ायबघर
में संरक्षित किया जाना चाहिए । वस्तुतः ये जूता कोई साधारण जूता नहीं है । एक
सत्तारुढ़ दल के सांसद ने सत्तारुढ़ दल के विधायक की पीठ पर मारा है । अहंकार, उदण्डता
और मूर्खता का अभिलेख है ये जूता ।
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