जाँच-साँच-आँच


जाँच-साँच-आँच

कहने को तो साँच को आँच नहीं- पुरानी कहावत है, पर मुझे लगता है कि इसमें संशोधन होना चाहिए । क्यों कि साँच को जितनी आँच झेलनी पड़ती है, झूठ को नहीं । ऐसा पहले भी होते आया है और अब भी हो रहा है ।  
हमारे यहां बात-बात में जाँच की बात होती है । और जाँच भी कोई साधारण नहीं— टी.सी., डी.सी. से एम.आर.आई. तक, डी.एन.ए. से लाइडिटेक्टर तक, इन्सपेक्टर से प्लीडर कमिशनर तक । और विविध जाँचों की भीड़ में जाँचआयोग का गठन तो बिलकुल आम बात है – मेले में खोमचे-ठेले जैसी । मेला लगे और खोमचे वाले न आयें- घटना घटे और जांचकमीशन न बैठे- ऐसा कैसे सम्भव है । मुझे तो लगता है – आने वाले समय में ऐसा न हो कि भरी दोपहरी में सूरज को सूरज होने का जांचरिपोर्ट पेश करना पड़े और पांच में तीन कमीशन चांद वाला सर्टिफिकेट न दे दें ।

सच पूछें तो ये सब करिश्मायी गठन है, जिसके बदौलत तात्कालिक समस्या को दूर धकेलना बहुत आसान हो जाता है । और फिर समय का मनोनुकूल उपयोग करना भी उतना ही आसान । जाँच आयोगों का गठन और अदालतों में मिलने वाली तारिखें- सहोदर नहीं तो सौतेले जरुर लगते हैं ।

भले ही जुकाम की दवा दो रुपये की आती हो, पर जुकाम की जाँच में हजारों लग जांये तो कोई आश्चर्य नहीं । क्यों कि डॉक्टर साब का पर्सनल डायग्नोसिस तो कुछ होता ही नहीं , जो भी होता है पैथोलॉजिस्ट-रेडियोलॉजिस्ट का । और ये दोनों कितने एक्सपर्ट होते हैं शायद हम सब वाकिफ हैं । निन्यानबे प्रतिशत जाँचघर क्वैकों द्वारा चलाये जाते हैं, जहां मैट्रिक-आइ.ए. या अंगूठा छाप बेरोजगार काम कर रहे होते हैं और जाँच रिपोर्ट पर किसी एक्सपर्ट का दस्तख़त भर होता है । जाँच करने वाले को भी पता होता है और दस्तख़त करने वाले को भी कि इस पर कोई जाँचआयोग नहीं बैठने वाला है । रोगी मरेगा तो अपने भाग्य से, जीयेगा तो अपने भाग्य से । और डॉक्टरसाहब सिर्फ वही दवा लिखेंगे जिस पर उनका कमीशन ज्यादा बनेगा या किसी खास केमिस्ट के यहां ही उपलब्ध हो ।  झूठ-सच उगलवानेवाली मशीन भी प्रायः वही बात कह जाती है, जिसे चतुरसुजान लोग सुनना-सुनाना चाहते हैं । और डी.एन.ए. में भला कहां दम है कि निर्णय कर दे बेटे के असली बाप का । जाति-वर्ण, धर्म-सम्प्रदाय के घालमेल और नकली के जमाने में बाप का असली साबित होना कितनी कठिन बात है ! वैसे भी बेटा भला क्या जाने...।

खैर,बात चल रही थी जाँच की । नगर की सीमा हो या देश की सीमा, जेल का गेट हो या सचिवालय का, मेट्रो- स्टेशन की एन्ट्री हो या एयरपोर्ट की, अतिसंवेदनशील इलाके हों या आम-वो-खास—किसी न किसी तरह की जांच-व्यवस्था बनायी गयी है- सुविधा और सुरक्षा के लिहाज़ से । क्या यह सच नहीं कि देश की पूरी सुरक्षाकर्मियों का सबसे बड़ा हिस्सा बगुलों की सुरक्षा में व्यस्त है और उससे बचे हिस्से का बहुत बड़ा हिस्सा विविध घटनाओं की जांच में खपा दिया गया है । इस सबसे बचे-खुचे सुरक्षाकर्मी विभिन्न संवेदनशील जांच-स्थलों में विठा दिये गये हैं ।

सच तो ये है कि जाँच महज एक कोरम है, जिसे किसी तरह पूरा कर लिया जाता है – ज्यादातर बिना किसी उपकरण के ही , सिपाहीजी की जादुई हथेली के छुअन मात्र से । ऐसी जादुई जांचों से कई दफा वास्ता पड़ चुका है- रेल व सड़क यात्राओं में ।

सोचने वाली बात है कि यदि सख्ती और ईमानदारी बरती जाती तो जेल के अन्दर चरस-गांजा-हेरोईन से लेकर घातक हथियार और विभिन्न अवांछित सामग्री तक प्रायः वरामद न होते रहते । तस्करी का धंधा दिन दूना रात चौगुना न फलता-फूलता और इतना ही नहीं, हमारे प्यारे सैनिकों को हठात जानें भी न गंवानी पड़ती । आये दिन किसी न किसी छोटे चूक की बड़ी सजा हमें भुगतनी पड़ती है । फिर भी सबक लेने, चुस्त-दुरुस्त होने के बजाय नयी कवायदें शुरु कर देते हैं हम ।

ये कह कर पूरी जाँच-प्रक्रिया पर उँगली नहीं उठा रहा हूँ, किन्तु ज्यादातर जांच खानापुरी से कुछ अधिक नहीं होते—यही सच है । फलतः एक ओर आम आदमी को यात्रा के दौरान परेशानी उठानी पड़ती है, तो दूसरी ओर कभी-कभी भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है । फिर भी हम चेतते नहीं ।

ये सही है कि जांच कर्मियों के पास अल्लादीन का चिराग़ नहीं है और न बालवीर वाली जादुई छड़ी ही, फिर भी ईश्वर की दी हुयी बुद्धि और विज्ञान का दिया हुआ विविध आधुनिक तकनीक और उपकरण तो है ही उसके पास ,वशर्ते कि वो ईमानदारी पूर्वक इनका इस्तेमाल करे ।

किसी घटना पर गठित जांच-आयोगों के साथ भी कुछ ऐसी ही बातें होती हैं- आनन-फानन में आयोग का गठन हो जाता है। सोच-समझ कर चुनिन्दें लोग नियुक्त कर दिये जाते हैं और फिर उनकी चुनिंदी प्रक्रियायें वरषों-बरष चींटी की चाल चलते रहती है—तब तक चलती है जब तक जनता के दिमाग में घटना सो न जाये । सौभाग्य या दुर्भाग्य से घटना की ताज़गी बनी रही यदि, टीस बरकरार रहा यदि, तो भी अन्ततः परिणाम क्या होता है—इससे भी हमसब वाकिफ़ हैं । जांचआयोगों की रिपोर्ट-फाइलें अन्धकूपों में दबी सिसकती रह जाती हैं । सुभाष और शास्त्री की टीस क्या कभी बिसरने वाली है किसी राष्ट्रपूत से ? और भी ऐसे अनेक कांटे चुभे हैं - जिनका सम्बन्ध किसी न किसी जांच से है । किसी जांचआयोग से है ।

अभी हाल में हुयी चौवालिस सैनिकों की बलि- क्या ऐसी की जांच लापरवाही का दुष्परिणाम नहीं है ?

आप सी.सी.कैमरे के ज़द में हैं— ये स्लोगन(सूचना)लिखकर हम क्या जताना चाहते हैं ?  जनसामान्य को हड़काना या कि अपराधियों को सावधान करना ? हजारों-लाखों जगह पर ये सूचना लिखने में राष्ट्रीय आय का कुछ तो हिस्सा बरबाद हुआ ही होगा या किसी राजभक्त श्रमजीवी ने श्रमदान कर दिया ! मेरे विचार से तो इसे लिखे वगैर भी काम चल सकता था ।

मजे की बात तो ये है कि प्रायः सुनने को मिलता है कि अपराधी आये, सुनियोजित ढंग से अपना काम किए और जाते-जाते  D.V.R.भी लेते गए । अब जाँच करने वाले ओल छीलते रहें । अपराध का सबूत सबसे पहले मिटाया जाता है और मजेदार बात है कि जांच करने वाले ही इसमें सबसे अधिक सहयोगी होते हैं । मोतियाविन्द की मोटी पपड़ी वाली कानून की दो आँखों (साक्ष्य और सबूत) को फोड़ने का तरीका भी जांचकर्मियों के खलीते में ही छिपा होता है, वशर्ते की आपको खलीता ढीला करने का तरीका मालूम हो । आप सक्षम हों ।  जांच की टीम रसूकदारों के घर भी जाती है, सलामी दागती है, चाय-वाय पीकर वापस आजाती है । चौकीदार हो कि दफादार, छोटे सिपाही हो या कि आला अफसर उनकी घुड़की का शिकार सिर्फ आमजन होता है । खास तो सदा खास ही बना रहता है । खासकर जबतक उसकी कुर्सी बनी हुयी हो । कुर्सी के बाद भले ही कुछ बेतुका करिश्मा हो जाये । इन सबके ताजे-तरीन नमूने मिल जाते हैं आजकल चारोंओर ।

      देश की बड़ी से बड़ी जांच-संस्था भी आज खुद ही कठघरे में है । अब आप उसे तोता कहें या कि उल्लू । शेर भी होता यदि तो भी पिंजरेवाला ही न ! क्या सत्तर सालों में देशवासियों ने पिंजरेवाले शेर का सर्कश कभी नहीं देखा है ?  
       देश की सबसे बड़ी न्याय-व्यवस्था ने भी कुछ ऐसे-ऐसे गुल खिलाये हैं कि प्रबुद्ध जन को सिर पकड़ कर बैठ जाना पड़ा है कई बार । अभागे सच को चीख-चीख कर कहना पड़ता है, फिर भी उसकी सुनी नहीं जाती । झूठ और आडम्बर की रंगीन कनात इतने बेहतरीन ढंग से तनी होती है कि सच को बारबार मुंहकी खानी पड़ती है— वांस-बल्लियों-रस्सी-गुंजरों की जाल में उलझ-उलझ कर । सच सबसे अधिक अपमानित अदालतों में होता है, भले ही सत्यमेवजयते की पट्टिका लिखी पड़ी हो न्यायमूर्ति के सिर पर ।

जाँच के इस कोरे जंजाल से हम कब बाहर निकलेंगे ! कब हम जांच की महत्ता और अनिवार्यता को समझते हुए, सही तरीके से पूरी ईमानदारी से इसे अंज़ाम देंगे – मौके का इन्तजार है ।
काश ! वो जल्दी आजाये ।

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