अद्भुत
धैर्य-परीक्षण
भले ही सन्तों द्वारा संसार को असार
कहा गया है ,
किन्तु इस असारता का बोध हो जाये, सिर्फ
सन्त-वाणी सुन कर तब न !
" रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान..."
किन्तु हाड़-चाम की खोपड़ी में आसानी से कुछ समाता ही नहीं । निशान क्या पड़े, खाक !
पोथी-पुरान,सन्त-महात्मा कह-कह कर थक जाते
हैं, एक ही बात को बारम्बार दुहराते हैं, फिर भी स्वभाव से लापरवाह आदमी ध्यान
नहीं देता । बातें इस कान से उस कान तक आवाजाही करके हवा हो जाती है ।
जन्म-मृत्यु का खेल निरन्तर जारी है- जगत
चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद...।
संसार
में निरन्तर घटित होरही घटनाओं से हम प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकते । पर ये
भूल जाते हैं कि सुख और दुःख सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं । इनके आने-जाने का
क्रम जारी रहता है । फिर भी हमारी कामना होती है कि सुख ही आवे मेरे हिस्से, दुःख
कहीं और जाये । किन्तु भला ऐसा भी कहीं होता है- एक पहलु वाला सिक्का देखा है आपने
!
शास्त्रों ने धैर्य की महिमा का भरपूर
बखान किया है- धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी आपतकाल परीखिये चारी
।
वस्तुतः धैर्य की आवश्यकता जीवन में
सर्वाधिक है । धैर्य बहुत बड़ा सम्बल है मनुष्य का । धैर्यहीनता की स्थिति में
अनेक विरोधीतत्व(दुर्गुण)हमपर हावी होने लगते हैं । किन्तु पराकाष्ठा तो तब है,
जब हम घोर विपत्ति में हों—हमारे किसी प्रियजन का वियोग हो गया हो-
ऐसा वियोग जो कदापि संयोग में नहीं बदला जा सकता, यानी
मृत्युलोक को त्याग चुका हो कोई बन्धु , कोई प्रियजन । ऐसे
में हमारे धैर्य का बांध चरमराने लगता है
। हम रोने-कलपने-विलखने लगते हैं । तड़पने लगते हैं उसके वियोग में- जैसे जल बिन
मछली तड़पती है । मछली तो जल बिन तड़प-तड़प कर मर भी जाती है, पर हम मरते नहीं इतनी सहजता से, बल्कि तड़पते हैं सिर्फ ।
पंचतन्त्र ने बड़ी कठोरता पूर्वक हमें
संयम का पाठ पढ़ाया है— एकदम भय दिखाकर, प्रियजन के
वियोग पर रोने-धोने पर अंकुश लगा दिया है । यथा-
श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो
भुंक्ते यतोऽवशः ।
तस्मान्न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याश्च
शक्तितः ।। (पंचतन्त्र- मित्रभेद ३६५)
(अपने बन्धु-बान्धवों द्वारा त्यक्त कफादि
मिश्रित आँसुओं को मृतात्मा को विवश होकर खाना-पीना पड़ता है । अतः रोना उचित नहीं है,
प्रत्युत यथाशक्ति धैर्य पूर्वक और्ध्वदैहिक क्रियाओं को सम्पन्न
करे ।)
इन बातों की पुष्टि हमें पुराणों में भी मिलती है ।
मृतानां बान्धवा ये तु मुञ्चन्त्यश्रूणि भूतले ।
पिबन्त्यश्रूणि तान्यद्धा मृताः प्रेताः परत्र वै ।। (स्कन्दपुराण
ब्राह्म.खंड ४८।४२)
(भूतल पर मृतात्मा के बन्धु-बान्धव जिन आँसुओं का त्याग करते हैं,
उन आँसुओं को परलोक में मृतप्राणी को पीना पड़ता है ।)
उपदेश तो मिल गया,
किन्तु कितना कठिन है- इसका पालन, ये कोई
भुक्तभोगी ही समझ सकता है ।
गरुड़पुराण-प्रेतखंड में इस कठोरता को
थोड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से सरल किया गया है । वहां कहा गया है कि जबतक मृतकशरीर का
विसर्जन (अग्निसंस्कार) नहीं हुआ हो, तबतक आँसु न बहने
दे । दाहसंस्कार के पश्चात् श्मशान भूमि से वापस आकर मृतक स्थान पर बैठ कर जीभर कर
रोये...इत्यादि ।
वंशीधारी
कृष्ण ने तो बड़े सहज भाव से कह डाला है—
अशोच्यानन्वशोच्यस्त्वं प्रज्ञावादांश्च
भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पंडिताः ।। (गीता २।११)
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पंडिताः ।। (गीता २।११)
बात यहां पंडित की की जा रही है ।
पंडित- सत-असत विवेकवती बुद्धि का नाम है
पण्डा । वह पण्डा जिसका विकसित हो चुका है, अर्थात असत-सत का ज्ञान हो गया है- जिसे,
उसे ही पण्डित कहते हैं । ऐसे व्यक्ति को किसी प्रकार का शोक नहीं होता । शरीर और
शरीरी का भेद समझ लिया है जिसने वही पंडित है सच्चे अर्थों में ।
परन्तु पंडित बनने का प्रयास तो करना ही होगा, अन्यथा अपने प्रियजनों को क्या हम विवश करना चाहेंगे- हमारे आँसुओँ को पीने के लिए ? अस्तु ।
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