हम
और हमारी परम्परायें
हम
शाकद्वीपीय ब्राह्मण हैं- सूर्यांश । वैसे तो सृष्टि में जो कुछ भी है, एक और
एकमात्र ब्रह्म का ही अंश है—सर्वंऽखिलमिदंब्रह्म,
फिर हमारी विशेषता क्या हुयी जो बारम्बार अपनी ही पीठ थपथपाये जा रहे हैं— है न
जरा सोचने वाली बात !
किन्तु
अपनी विशेषताओं पर विचार करके अपने अहं को और पुष्ट करने से बेहतर है कि कुछ उन
चीजों को याद करें, कर्मों और कृत्यों को याद करें, उन बातों और परम्पराओं को याद
करें—जिन्हें हम निरन्तर खोते चले जा रहे हैं और वर्तमान समय में सिर्फ ‘ बतकही
’ का विषय बन कर रह गया है । इतिहास के पन्नों में कैद होते जा रहे
हैं हम और हमारी परम्परायें ।
सूर्यांशों
का सर्वाधिक मुख्य कृत्य- उपाकर्म-श्रावणीकर्म क्या हमें ज्ञात है- क्या होता है
ये ? (हालाकि ये ब्राह्मणमात्र का मुख्य कर्म है) ।
दान-चन्दा बटोर कर किसी तरह रथसप्तमी-अचलासप्तमी मना लिए – बस हो गया मग-धर्म का
कोरम पूरा !
द्विजत्व
का आधार—शिखा-सूत्र, संध्या-गायत्री- हममें कितनों ने साध रखा है ? प्रतिशत
निकालने चलेंगे तो ये ‘ % का चिह्न
’ दशमलव पश्चात् कई शून्यों के बाद लगाना पड़ेगा ।
हमारी
तत्परता है सिर्फ- नवरात्र के नाम पर एक साथ पांच-दस यजमानों का सप्तशती-पाठ-संकल्प
ले लेना- कुछ बांच-बूंच लेना, कुछ धोती-साड़ी उगाह ले आना, यजमनिका के नाम पर
भोज-भात कराकर मरियल बाछी और सड़ियल शैय्यादान वटोर लाना । संयोग से समाज में
विद्वता का डंका बज गया यदि तो भागवत भी तोड़मरोड़ कर बांच लेना या फिर बहुकुण्डीय
यज्ञों के नाम पर कुछ और भी हसोत-बटोर ले आना । यदि थोड़े और साहसी हुए तो स्वयं
को जातिस्मर वैद्य, तान्त्रिक और ज्योतिर्विद घोषित कर देना । जब कि सच्चाई ये है
कि ज्यादातर तिथि-सूचक से आगे हम हैं नहीं । ज्योतिष पढ़ने-गुनने का फुर्सत कहां
है । कमाने-खाने-ठगने भर आही गया है । क्या होगा ज्यादा पढ़-लिख कर ।
आँखिर
कितना कूड़ा बटोरेगे मेरे भाई ! कबतक
बटोरते रहोगे ? सूर्यांशों का क्या यही कर्म है समाज का कूड़ा
बटोरना ?
इतिहास
के पन्नों में दमतोड़ती सिसकती परम्परायें । देखादेखी
के चक्कर में सबकुछ विसरता-खोता जा रहा है हमारा । समाज के अन्याय वर्गों में जो
कुछ हो रहा है, बिना सोचे-विचारे उसे हम बड़ी तेजी से अंगीकार करते जा रहे हैं और
मजे की बात ये है कि हम उसे मजबूरी और लाचारी का नाम देकर दायित्व-मुक्त हो जा रहे हैं ।
अब
भला बतायें— कायदे से पैर छूकर प्रणाम करने में कौन सी लाचारी आगयी ? क्या कमर में दर्द
है या कि रीढ़ की हड्डियों में कुछ खराबी आगयी है, या बदरंग-टाइट जींस फटने का डर
है, जो टखना-घुटना छूकर कर्तव्य-निर्वाह कर ले रहे हैं ?
पैर
छूने और छुलाने की भी विधि होती है- जानकर आश्चर्य होगा बहुतों को ।
मोमबत्तियां
बुझाकर,अंडे से बना केक काटकर और उपस्थित जनों को जूठन खिलाकर हैपीवर्थडे और मैरेज
एनवर्सरी हम मनाने लगे हैं, पर ‘ जातकर्म संस्कार ’ की विधि और औचित्य को विसार दिये
। परम्परागत संस्कार चालीस से सिमट पर सोलह हुए । अब उसमें भी आदि-मध्य-अन्त तक ही
सिमट जाने की नौबत है । यज्ञोपवीत बनाना तो भूल ही गए हैं, पहनने में भी बोझ लग रहा
है । दूसरों की देखादेखी, विवाह में रिंगसेरेमनी और जयमाला को अपनाकर अतिरिक्त
व्यय-बोझ बढ़ा लिए । डीजे-डांस के बिना बारात निकल ही नहीं पाती । नट-भड़ुओं की
तरह कमर मटकाने में घंटों सड़क जाम किये रहते हैं- अपने समय का तो भान नहीं, ऐम्बुलेन्स
और दमकल को भी गर्व से रोके रहते हैं- आम रास्ते को अपनी ज़ागीर समझकर, और दूसरी
ओर धूआपानी, गोड़धो, जनवास-पूजा आदि मंगलाचरण में भी समय की बरबादी लगने लगती है ।
शास्त्र-पुराण पढ़ने की परम्परा लुप्त हो गयी है, वैसे में ‘शास्त्रार्थ’ का औचित्य ही क्या रह जाता है ? सुनने-समझने
का धैर्य और क्षमता भी तो चाहिए । सौंफ-गोलमिर्च-गुलाब-केवड़ा का ताजा-तरीन शर्बत
गायब हो गया । प्रेज़र्वेटिव ज़हर वाला माजा-फ्रूटी, पेप्सी-कोला भाने लगा है । पलथी मारकर पंगत लगाने की तो बात ही बेमानी
होगयी । क्यों कि नयी परिपाटी में दोनों को मजा है- खानेवाले को भी, खिलाने वाले
को भी । ‘ बफेडीनरी
’ व्यवस्था में आप खायें या भांड़
में जायें...कार्ड दिये हैं, लिफाफा देते जाइयेगा...।
कितना
विलक्षण दृश्य हुआ करता था- बातबात में गौरी-गणेश वन्दना...मंगलम् भगवान विष्णु का
सस्वरोच्चारण...सुदीर्घ शान्तिपाठ, सुसंस्कृत शुभेच्छुओं द्वारा बारबार
अक्षताभिषेक और क्या ही आनन्ददायक क्षण हुआ करता था गृह रमणियों द्वारा गीतगोविन्द, यदुकुलज्योनार, ब्रह्मज्योनार,गंडनमंडन,बहत्तरपुर
आदि के साथ-साथ सुमधुर लोकगीत-गायन । सच
पूछें तो उन दिनों की वो गालियां भी पुष्पहार
और ‘ बुके
’ से कहीं ज्यादा मनमोहक लगती थी । ज्यादा प्रीतिकर होती थी ।
किन्तु
ये सब इतिहास की बतकही बन गयी है । भोंड़े रॉक-पॉप के कर्कश स्वर के सामने कोकिलाकंठ
कुमारियों का स्वर सपना हो गया है । फिल्मी गानों को छोड़कर लोकगीतों को याद रखना
भी आधुनिकाओं के बस की बात नहीं । उन दिनों उन्हें अभ्यास करना पड़ता था, गाना
पड़ता था- गले में चूना लगाकर,मुलहठी-कुलंजन से गला साफ कर-करके । अब तो
ब्यूटीपॉर्लर से लौटने के बाद भी सारा समय घर में डेंटिंग-पेंटिग, साड़ी-सूट
मैचिंग में ही निकल जाता है । समय ही कहां
मिल पाता है बेचारियों को ।
जबतक
लड़की व्याहनी होती है, समाज का कोढ़—दहेज-दानव का रोना रोते हैं और जैसे ही लड़के
की बारी आते है, अचकन-पगड़ी सम्भालने लगते हैं— हम खानदानी लोग ठहरे...सामाजिक
प्रतिष्ठा-निर्वाह में खर्च तो होगा ही...लड़के को पढ़ाने-लिखाने, नौकरी दिलाने में
बहुत खर्च हो जाता है...। मजे की बात तो ये है कि कौवे-गदहे को भी अप्सरा उर्वशी
ही चाहिए..., कम्पटीटिव लाइफ में उच्च शिक्षा और गुण के बिना काम कैसे चलेगा...और इसके साथ-साथ
सांगोंपांग दहेज तो लड़केवालों का जन्मसिद्ध अधिकार है... एक से एक नाज़-नखरे सुनते-सुनते
कान से मवाद आने लगता है । प्रबुद्ध समाज के नाम से उबकायी आने लगती है । जिनकी
प्रबुद्धता सिर्फ मंचों पर झलकती है- एक से एक आह्वान, एक से एक संकल्प—वचने किं
दरिद्रता...।
सवाल है कि ‘ब्लूब्लड’
क्या केवल लड़के वाले ही
होते हैं और लड़कियों की उँची डिग्रियाँ कूड़ेदान में पड़ी मिल जाती हैं क्या ?
विवाह को स्टेटससिम्बल क्यों
बना लेते हैं हम- वो भी लड़की वाले के बदौलत ? औकाद
है तो दिखाना चाहिए किसी गरीब-लाचार की बेटी को बहू बना कर । हां, अकसर देखने को
मिल जाता है- कुरुप-बेडौल को भी सोने से मढ़ाकर विदा होते । भारीभरकम दहेज “सात खून” भी माफ कर देता है ।
हम ये भूल जाते हैं कि वैभव-प्रदर्शन वैश्य का कर्म है
और शौर्य-प्रदर्शन क्षत्रिय का । हम तो ब्राह्मण हैं- ब्रह्मणत्व कितना उतर पाया
है हमारे भीतर- ये विचारणीय है ।
विवाह एक परम्परागत
अनिवार्य मांगलिक कृत्य है, जिसमें दो कुल-परिवार मिलकर दो शरीरों व दिलों के मिलन
का तानाबाना बुनते हैं । जहां दोनों के समान अधिकार हैं, तो दोनों के समान कर्तव्य
भी । समाजशास्त्र की भाषा में कहें तो कहना चाहिए कि दो परिवार मिलकर एक भावी
परिवार का शिलान्यास करते हैं । अतः दोनों का समान योगदान होना चाहिए । बेहतर तो
ये होगा कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में चौदहआना जिम्मेवारी वरपक्ष की होनी चाहिए ।
कन्या तो अपना कुल-परिवार-गोत्र-पहचान
सबकुछ छोड़कर जाती है ।
कृत्य,कर्म,परम्परायें
जब लुप्त होंगी,तो संस्कारहीनता तो आनी ही आनी है । इसे भला कैसे रोका जा सकता है ? आमन्त्रण देकर, आहूत किया है हमने ।
इन
सब बातों की याद दिलाकर, ये नहीं कहता कि ट्रेन-बस छोड़कर बैलगाड़ी से चलें । पर
इतना तो जरुर कहना बनता है कि जड़ के आधार पर ही तने और शाखायें हैं । कोंपलों का
सौन्दर्य जड़ की वजह से ही है । जड़ से बिलकुल बिलग होकर कदापि जीया नहीं जा सकता-
विलुप्त होना अवश्यमभावी है- आज हो, कल हो, या कि वरषों बाद हो । नष्टे मूले न
पत्रं नैव शाखा । अस्तु ।
(नोटः-आलेख के किंचित अंशों को परिवर्तित कर दिया जाये तो समाज के अन्य
वर्गों पर भी समान रुप से घटित हो सकता है )
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