श्रद्धांजलि


श्रद्धांजलि

श्रद्धांजलि, सहानुभूति , मुआवज़ा - जैसे महत्वपूर्ण शब्द मात्र राजनैतिक-सामाजिक औपचारिता होकर रह गए हैं । किसी घटना के बाद इन ' शब्द-जालों ' का धड़ल्ले से प्रयोग, इनके आगे-पीछे की जिम्मेवारियों से मुक्ति का ही मुख्य संकेत प्रायः देता है । श्रद्धांजलि देने के बाद, देने वाला स्वयं को बिलकुल भार-मुक्त सा अनुभव कर लेता है । श्रद्धांजलि दे देना, सहानुभूति प्रकट कर देना स्वयं को स्वयं से संवेदनशील होने का प्रमाण-पत्र दे देने से रत्ती भर भी अधिक नहीं है ।

विभिन्न कोचिंग-संस्थान-संघों द्वारा दी जा रही श्रद्धांजलियांँ इसका ताजा उदाहरण हैं ।

अभी हाल में गुजरात के एक कोचिंग संस्थान में भयानक अग्निकांड की हृदयविदारक घटना के पश्चात यहां-वहां कई शहरों में अग्निशामक विभाग सक्रिय हुए है । उन्हें अपनी जिम्मेवारियां याद आयी , कर्तव्यबोध हुआ । शहरों में कुकुरमुत्त की तरह पसरे कोचिंग संस्थानों की जाच की जा रही है , जिनमें ज्यादातर संस्थान नियम-कानून, माजिकता, मानवता, संवेदनशीलता आदि को धत्ता बताते हुए सिर्फ अपनी जेब भरने पर तुले हैं । अपवाद स्वरुप कुछ गिने चुने को छोड़कर, अधिकांश संस्थानों में मानक शिक्षकों का भी अभाव ही रहता है । योग्य शिक्षक के स्थान पर सिर्फ बेरोजगारों और नवसिखुओं की भीड़ होती है ।
कोचिंग संस्थान ही नहीं, अन्य शिक्षण संस्थान भी- जहां हमारे नौनिहाल गदहे की हाल में अपने वजन से दुगना भार ढो, कमर और गर्दन झुकाये रोज भेजे जा रहे हैं- वहा की भीतरी हालात भी लगभग ऐसी ही हैं , जैसा अभी अखबार की सुर्खिया कह रही हैं ।
जेब से भारी और अक्ल से पैदल ' मेकाले की औलादें ' आँखें मूद कर इन संस्थानों का भरण-पोषण करती हैं । इनके नाज-नखरे सहती हैं, जहा सिर्फ शोषण ही शोषण है । ये संस्थानें सिर्फ शिक्षा का व्यापार नहीं करती, ल्कि शिक्षा की आड़ में किताब-कापियां, स्टेशनरीज, कपड़े, जूते सब कुछ मुहैया कराती है- ऊँची शिक्षा के नाम पर- कई गुने ऊँचे दामों पर, साथ ही अभिभावकों के लिए मुफ्त में ' टेशन के गिफ्ट ' भी व्यवस्था हती है । गौरतलब है कि च्चस्तरीय शिक्षा से कहीं ज्यादा अति महत्वाकांक्षी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है- ज्यादातर संस्थानों में । बौद्धिक विकास कोई खास मायने नहीं रखती , जितना कि ' ड्रेसकोड ' अहमियत रखता है ।
मुझे समझ नहीं आता कि खास कर ऐसे देश में जहाँ प्याज और दाल की बढ़ती कीमत से सरकारें गिरने-डगमगाने लगती हैं,वहां शिक्षण-संस्थानों के बहुआयामी शोषण के विरोध में इतने मौन क्यों हैं हम !

कोई बड़ी घटना घट जाती है तब बच्चों के अभिभावक से लेकर लोकतन्त्र के चारों अभिभावक तक की आँखें खुलती हैं ,थोड़े दिनों के लिए श्रद्धांजलियों का कोरम पूरे करने के बाद, बातें आयी-गयी होकर रह जाती है
सरकारें तो सोयी रहने की आद हैं । नियामक विभाग भी सरकारी गतिविधि से वाकिफ है, किन्तु क्या पहला कर्तव्य बच्चों के अभिभावकों का ये नहीं है कि जिन स्कूलों या कोचिंग संस्थानों में अपने बच्चों को भेज रहे हैं उनकी अन्तः-वाह्य व्यवस्था कैसी है- इसकी जा-पड़ताल करें ? उनकी नाज़-नखरे सहने की अपेक्षा उन पर पैनी नजरें रखें ।
किन्तु ये ठीक वैसी ही बात है जैसे बीमार होकर डॉक्टर के पास गये हुए रोगी की इस बात में दिलचस्पी नहीं रहती कि डॉक्टर प्रैक्टिस के लिए ऑथोराइज़्ड है कि नहीं । यही कारण है कि प्रशासन के नाक के नीचे भी ' क्वैकों ' की ज़मात मौज करते रहती है ।
दरअसल हम सिर्फ भीड़ देखत है -- अस्पताल की भीड़ हो या कि स्कूल क या कहीं और क । भीड़ ही ऑथेंटिक हो जाता है ; क्यों कि ' भीड़ ' बिलकुल बाहर से दीख जाने वाली चीज होती है, हां किसी और प्रमाण की गुंजाश ही नहीं होती ।
और सबसे बड़ी बात होती है कि हम अधिक गरज़मन्द होते हैं- हमारी ख्वाहिश़ें होती है बड़े संस्थानों में अपने बच्चों को दाख़िला दिलाने की, बड़े डॉक्टर से अपना इलाज कराने की । किन्तु सच्चाई ये है कि बड़ा होने का जो पैमाना है, जो मापदण्ड है वो सही नहीं है हमारे पास । व्यवसाय-बहुल लफाज़ी विज्ञापनबाजी के युग में चमक-दमक, तड़क-भड़क, नाज-नखरे और भीड़ से हम मूल्यांकन करते हैं- अच्छे-बुरे का । और बाजारवाद का सिद्धान्त कहता है कि गरज़मन्द का शोषण जितना किया जा सके, िया जाना चाहिएये भी एक कटु सत्य है कि मानवतावाद के कब्र पर ही पूँजीवाद की मीनार खड़ी हो पाती है ।
ध्यान रहे - ये पश्चिम सोच है -- हम ' पश्चिमी संस्कृति के गुलामी के दस्तावेज़ ' भोजन-वस्त्र-आवास के बाद हमारे यहा शिक्षा और स्वास्थ्य जन्मसिद्ध अधिकार माना गया है । ये दोनों अति पुनीत कार्य कहे गए हैं , इनका व्यापार नहीं होता था जबकि आज ठीक इसके विपरीत स्थिति है । शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर हमारा सर्वाधिक शोषण हो रहा है । वर्तमान समय में शिक्षक, गुरु और चिकित्सक नहीं, अपितु शिक्षा और चिकित्सा माफ़ियों की भरमार है । योग्य गुरु और चिकित्सक मिलना भगवान मिलने जैसा है । आधुनिक शिक्षा नीति और व्यवस्था ने हमें पंगु बना दिया है, जड़ बना दिया है , संवेदनशून्य बना दिया है । काबिल बनाने के बजाय परवश, विवश, अपाहिज़ और बेवकूफ बना दिया है
अतः हमें गुलामी की इस जंजीर से मुक्ति पाने का संकल्प लेना होगा और प्रतिज्ञ करन होग । इन संस्थानों को ध्वस्त कर अपने गुरुकुल परम्परा की पुनर्स्थापना करनी होगी । योग, आयुर्वेद और गुरुकुल तीनों संस्थानों को विकसित करना होगा किन्तु इनके लिए सर्वप्रथम अपनी मानसिकता बदलन होग । अन्यथा श्रद्धांजलियों और मुआवज़े का सिलसिला जारी रहेगा और हम तमाशबीन बने रहेंगे । अस्तु ।
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