सावित्री-सोमवती-संयोग-संकल्प


                                      सावित्री-सोमवती-संयोग-संकल्प
             यम के हाथों से अपने पति को छीनकर लाने का एकमात्र पौराणिक उदाहरण मिलता है मद्रनरेश अश्वपति की पुत्री सावित्री का । वाक्चातुर्य  की इस न भूतो न भविष्यति वाली घटना के स्मरण में ही ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को सौभाग्यकांक्षीणियों द्वारा पावन पर्व वटसावित्री प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है । तदन्तर्गत प्रधानतया वटवृक्ष की पूजा सहित सृष्टिकर्ता ब्रह्मा एवं सत्यवान-सावित्री की विधिवत पूजा तथा वटवृक्ष की परिक्रमा और सूत्रसंवेष्ठन की  परम्परा है प्रायः उत्तरीभारत में ; जबकि दक्षिणीभारत में वटसावित्री का अनुष्ठान ज्येष्ठमास की पूर्णिमा तिथि को मनाने का चलन है । पूजनोपरान्त वृटवृक्ष तले उपस्थित सभी अनुष्ठानकर्तृ स्त्रियाँ परस्पर(एक दूसरे को) अक्षय सौभाग्य कामना से सिन्दूर भी लगाती हैं । वय और वर्ण का विचार यहां सर्वथा गौंड़ हो जाता है । एक मात्र सौभाग्य-कामना और मंगल-आशीष का वातावरण रहता है इस दिन ।

ध्यातव्य है कि वटवृक्ष संहार के देवता महेश(शंकर)का प्रतिरुप है पृथ्वी पर । सामान्य  प्रलय की अवस्था में सृष्टि में सबकुछ विलीन हो जाता है, जलमग्न हो जाता है । एक मात्र विशिष्ट वटवृक्ष ही शेष रह जाता है, जिसे अक्षयवट के नाम से जाना जाता है । इसी अक्षयवट के कोमल किसलय पर भगवान बालमुकुन्द ने दर्शन दिया था अजर-अमर मुनि मार्कण्डेयजी को ।  
किसी भी महीने की अमावस्या तिथि को संयोग से सोमवार पड़ जाये यदि, तो उसे सोमवती अमावस्या के नाम से जाना जाता है । इस अवसर पर भी सौभाग्यकामना से ही अनुष्ठान किया जाता है । अन्तर होता है सिर्फ पूज्य वृक्ष का । वट के स्थान पर पीपल की पूजा होती है । पीपल साक्षात विष्णु का स्वरुप है । इस प्रकार हम पाते हैं कि सृष्टि-पालन-संहार के त्रिदेवों की आराधना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से की जा रही है विविध अनुष्ठानों में , साथ ही वय  वर्ण विभेद भी स्पष्ट दीखता है इन अनुष्ठानों में ।

सोमवती अमावस्या का पौराणिक प्रसंग तो और भी रोचक और ध्यातव्य है, जहां शूद्रवर्णा (धोबिन) की प्रधानता और महत्व की ओर ईंगित किया गया है । सिंहलद्वीप वासिनी रजकी(धोबिन) सोमवती को कांचीपुरी आना पड़ा था एक ब्राह्मणी कन्या का वैधव्यदोष निवारण करने हेतु । उसने अपने पुण्यफल के प्रताप से ब्राह्मणी कन्या का सिर्फ वैधव्यदोष ही नहीं दूर किया ,बल्कि उसी पुण्यफल से अपने परिवार (पति,पुत्र,पुत्रवधु,पुत्री और जामाता) को  मृत्युमुख से मुक्ति दिलायी । इस रहस्यमय विधान के प्रतीकस्वरुप ही आज भी कन्या के विवाहकाल में धोबिन से सुहाग-आशीष लेने की परम्परा है देश के कुछ भागों में ।

   पुराण के ये दोनों प्रसंग— वटसावित्रीव्रतकथा और सोमवतीअमावस्याव्रतकथा के नाम से हमारी लोकचर्चा में रसीबसी है । कथायें बहुत प्रसिद्ध और चर्चित रही हैं, इस कारण कथा के विस्तार में न जाकर कथ्य पर जनमानस को आकृष्ट करना चाहता हूँ । लोककल्याण (सामूहिक कल्याण) की भावना से उत्प्रेरित  हमारे समाज की अद्भुत वर्णव्यवस्था नमनीय है । सिर्फ मानव समाज ही नहीं, समग्र प्रकृति प्रेम और पर्यावरण सुरक्षा तक को ध्यान में रख कर विभिन्न व्रत-त्योहारों की योजना दी गयी है हमारे शास्त्रों में । भारतीय संस्कृति के विविध उत्सवों,अनुष्ठानों,क्रिया-कलापों पर गौर करने पर अभिभूत हो जाना पड़ता है,जहां जीवमात्र ही नहीं चर-अचर सृष्टिमात्र के परिरक्षण पर प्रकाश डाला गया है ।

            किन्तु खेद है कि व्यक्तिगत स्वार्थ, दूषित राजनीति तथा पश्चिमी प्रभाव से आकंठ प्रभावित हमसब इन महत्वपूर्ण रीति-नीति को विसारते जा रहे हैं । सूक्ष्म विधि-विधानों की बात जाने दें, सामान्य बातें भी नजरअन्दाज कर देते हैं, व्यर्थ करार दे देते हैं- कुछ भी सोचे-विचारे बिना ही । पेयजल-संकट, भीषण गर्मी, असमय आँधी-तूफान, अव्यवस्थित पर्यावरण को लेकर खूब शोर मचा रहे हैं, गोष्ठियां और सेमीनार आयोजित कर रहे हैं, किन्तु जमीनी स्तर पर जो होना चाहिए, जो करना चाहिए वो नहीं कर पा रहे हैं । या कहें ईमानदारीपूर्वक करना नहीं चाह रहे हैं ।

 वट और पीपल की पूजा तो करनी है, पर हमारी मातायें-बहनें-बेटियां जायेंगी कहां ? आसपास कहीं पीपल और वट का वृक्ष होगा तब न । विकास और शहरीकरण के दौर में सरिया और कंकरीट के जंगल भले ही लगा लिए हों हम , किन्तु सघन छांव और हरियाली देने वाले, वर्षा और ऑक्सीजन देने वाले वृक्षों को बेदर्दी से नष्ट किये जा रहे हैं । मूर्खता की हद तो ये हो रही है कि लकड़ियों का विकल्प हम फैक्ट्रियों में ढूढ़ लिये हैं - लोहे और प्लास्टिक के खिड़की-दरवाजे अधिक भाने लगे हैं, जिन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बना रही हैं । जंगल-पहाड़ नष्ट करके हम उनकी फैक्ट्रियां लगा रहे हैं । दुष्परिणाम दीखने लगे हैं, किन्तु हमारी इस मूर्खता का परिणाम हमारी अगली पीढ़ी को भयावह रुप से अवश्य भुगतना पड़ेगा । अतः चेत जाने की जरुरत है ।
 आइये !  सुविधानुसार अधिकाधिक वृक्षारोपण का संकल्प लें हम । अपने आत्मीयों के लिए एल.आई.सी. का सर्वश्रेष्ठ प्रीमियम यही होगा । साधुवाद ।

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