पुराणपरिचय


                                    पुराणपरिचय

            भारतीय संस्कृति का प्राण- अष्टादशपुराण सामान्य जन के बीच प्रायः शंका, उलझन और तर्क-वितर्क का विषय बन कर रह जाता है । सबसे पहले सवाल उठता है कि पुराण लेखन है या संकलन-सम्पादन ?  यदि ये किसी एक व्यक्ति का लेखन है तो फिर इतनी पुनरुक्तियाँ क्यों ? एक ही आख्यान-उपाख्यान, गाथादि अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग ढंग से क्यों ? अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग देवताओं की सर्वश्रेष्ठता क्यों ? भाव, भाषा, शैली इत्यादि में भी पर्याप्त भिन्नता क्यों ? इनके अतिरिक्त अन्यान्य कई तरह के आक्षेप युक्त प्रश्न भी उठा करते हैं ।
            आजकल अनुवाद और सरलीकरण के नाम पर अनेक लेखकों द्वारा रचित पुराणों की भिन्न-भिन्न भाषाटीकायें भी बाजार में आगयी हैं, जो अपने-अपने मतों, विचारों की सम्पुष्टी हेतु रची गयी हैं प्रायः। मूल तत्व से काफी दूर, प्रायः लोग इन टीकाओं का ही अवलोकन करते हैं । परिणामतः शंका निर्मूल होने के बजाय सुपुष्टमूल हो जाती हैं ।
            हालाकि ये शंकायें ज्यादातर वे लोग ही उठाते हैं, जिन्होंने पुराणों का सिर्फ नाम भर सुन रखा है । पुराण के सम्बन्ध में सिर्फ उड़ती-पड़ती ऊपरी बातें सुन-जान रखा है- बिलकुल टुकड़े-टुकड़े में, अलग-अलग व्यक्तियों (प्रवचनकर्ता,कथावाचक आदि) द्वारा, अलग-अलग स्थानों में, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में । किन्तु पुराणों के अध्येता, गवेषक, अनुशीलक ये भलीभांति जानते-समझते हैं कि पुराण का विषय निःशंक है । आवश्यकता है इसे ठीक से हृदयंगम करने की ।
            पुराण का सामान्य अर्थ होता है-  पुराना । पुरा परम्परां वक्ति पुराणं तेन वै स्मृतम् । (वायुपुराण-१-२-५३) जहां पुरानी बातों का संकलन हो, पूर्व परम्परा का वर्णन हो- उसे ही पुराण कहते हैं । निरुक्त ग्रन्थों में  " पुरा नवम् पुराणम् ", " पुरार्थेषु आनयतीति पुराणम् " इत्यादि अनेकविध निरुक्तियाँ उपलब्ध होती हैं । अर्थानुबन्धिनी होने के कारण इस दूसरी निरुक्ति को उत्तम कह सकते हैं ।
प्रकृति और पुरुष का परिणाम ही ये जगत है । जड़-चेतनात्मक दोनों के परिणाम-परम्परा विषयक ज्ञान उपलब्धि में अनन (प्राणन्) करने के कारण ही पुराण  " पुराण " शब्द से अभिहित हुआ । श्री रुप गोस्वामीजी ने भी उक्त निरुक्तियों के तुल्य ही विवेचना की है- " पुरा नयनीति पुराणम् " ।
            पुराण की प्राचीनता के सम्बन्ध में मत्स्यपुराण ५३-३ में स्पष्ट संकेत है— पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतम् । अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ।। अर्थात् पुराण सभी शास्त्रों से पुराना है । सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी ने पहले पुराणों का ही स्मरण किया, तत्पश्चात वेदों का । स्मरण किया- इस कथन से स्पष्ट है कि पुराण किसी व्यक्ति विशेष की रचना नहीं, प्रत्युत नित्यसिद्ध हैं । वैदिक साहित्य की तरह पुराण भी अपौरुषेय हैं । इसकी पुष्टि अथर्ववेद-११-७-२४ के इस उल्लेख से स्पष्ट है- ऋचःसामानि छन्दान्सि पुराणं यजुषा सह । उच्छिष्टाब्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिताः ।। - यज्ञ के उच्छिष्ट से ययुर्वेद सहित ऋग्वेद,सामवेद,छन्द और पुराण प्रकट हुए । वृहदारण्यकोपनिषद में भी कहा गया है कि परमात्मा के निःश्वास से चारो वेद, उपनिषद, इतिहास, पुराणादि निःसृत हुए हैं । विविध ब्राह्मणग्रन्थों से भी इन्हीं बातों की पुष्टि होती है।
            आधुनिक ग्रन्थ " पुराणोत्पत्तिप्रसंग " में स्पष्ट किया गया है कि सृ्ष्टिविज्ञान वेदों में जहाँ-तहाँ वर्णित है, प्रकरण-बन्धन से छन्दित नहीं है , इस कारण कोमल बुद्धि वालों के लिए भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने  "इदं प्रथमतया" विभिन्न विषयक वेद-वाक्यों से ज्ञान (आत्मज्ञान), विज्ञान (प्रकृतिविज्ञान) प्रतिपादक वाक्यों को पृथक् करके एक बृहदपुराणसंहिता को प्रकट किया (संपादित किया) । उस पुराण संहिता में सृष्टि के इतिहास की शुद्धि के लिए सृष्टिविज्ञान से सम्बद्ध अन्य चार विषयों का समावेश किया । श्रीउग्रश्रवासूतजी के अनुसार ये चार विषय हैं- आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः । पुराणसंहितां चक्रे भगवान् वादरायणः ।। (वैदिक पुराण की अपेक्षा वादरायणपुराण में प्रस्तुत चार विषय अधिक हैं ।)
प्रसंगवश यहां स्पष्ट कर दें कि अपने कालके दृष्ट इतिवृत्त को आख्यान कहते हैं । परोक्ष अचिर काल में वृत्त इतिहास को उपाख्यान कहते हैं । परम्परा से श्रुत-ज्ञात किन्तु जिनके कर्ता का ज्ञान (जानकारी) नहीं है- उसे गाथा कहते हैं । तथा ऐतिहासिक विषय सम्बद्ध पौराणिक इतिहास विभागमें अनुदित धर्मशास्त्रादि विषयक प्रतिपादित ज्ञान एवं कर्तव्य विषयक वचनों को कल्पशुद्धि कहा जाता है । श्रौत-स्मार्त, समयाचार, धर्मभेद, नानाविध उपासनाभेद, नीति एवं दर्शन-भेद भी कल्पशुद्धि के अन्तर्गत ही आते हैं । इन बातों से किंचित भिन्न मत प्रस्तुत करते हैं- लोमहर्षणसूतजी । उनके अनुसार पुराणों के पांच लक्षण कहे गए हैं । यथा- सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशोमन्वन्तराणि च । वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ।। इस प्रकार  मन्वन्तरविज्ञान, सृ्ष्टिविज्ञान, प्रतिसृष्टिविज्ञान, वंशविज्ञान एवं वंश्यानुचरितविज्ञान का समावेश है पुराणों में । शब्दकल्पद्रुम में पुराण के दस लक्षण कहे गए हैं । यथा- सर्ग,विसर्ग,वृत्ति,रक्षा,अन्तर,वंश,वंश्यनुचरित, संख्या, हेतु और अपाश्रय ।  इन एक-एक शब्दों (पदों) की विशद व्याख्या हो सकती है ।
            संक्षेप में इतना ही कि प्रारम्भ में पुराणसंहिता मात्र एक ही थी- सौ करोड़ श्लोकों के कलेवर वाली, जिसे सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने स्मरण करके(ध्यानावस्था में देख करके)उपस्थित ऋषि-मुनियों को उपदेशित किया था । कालान्तर में युगबोधानुसार स्मरणशक्ति का ह्रास होता गया । श्रुतिपरम्परा लुप्त प्रायः होने लगी । श्रुतिगम्य ज्ञान को लिपिवद्ध करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी । फलतः द्वापर में इस संकट का निवारण करने हेतु भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनव्यास जी की उत्पत्ति हुयी, जिन्होंने विधिवत सम्पादन किया पूर्व प्रसंगों का । मूल वादारायणीसंहिता में अठारह विषयों के अठारह परिच्छेद (पर्व) थे । यही विशाल संहिता नैमिषारण्य में मुनि समाज के नाना प्रश्नों के उत्तर प्रसंग में क्रमभेद से वर्तमान अष्टादशमहापुराण के रुप में परिणत होकर ग्रथित हैं । इनमें आठ ग्रन्थों का सम्पादन उग्रश्रवाजी ने और शेष दस ग्रन्थों का सम्पादन लोमहर्षणजी ने किया है। शतकोटि श्लोकों में से मुख्य-मुख्य विषयों को छांट-छांट कर मात्र चारलाख श्लोकों की संख्या वाली पुराणसंहिता सम्पादित हुयी । इस संहिता का उपदेश समय-समय पर अपने शिष्यों को व्यासजी द्वारा किया गया । कालान्तर में शिष्यों सहित महर्षि व्यास के सम्पादकत्व में पुराणों का वर्तमान स्वरुप स्थिर किया गया । ध्यातव्य है कि आख्यानों, उपाख्यानों, गाथाओं में कालभेद, स्थितिभेद, पात्रभेद, कल्पभेद आदि का भी प्रचुर प्रभाव है । विविध पुराणों के अध्ययन, अनुशीलन से ये सब बातें स्पष्ट हो जाती हैं । स्वाभाविक है कि सुनी-जानी हुयी एक ही बात को अनेक लोग पुनः प्रस्तुत करेंगे,तो उसमें किंचित भिन्नता आनी स्वाभाविक है । वक्ता और स्रोता की मनःस्थिति इसमें सर्वाधिक जिम्मवार है ।
            अब जरा पञ्चदेवों की अलग-अलग श्रेष्ठता के प्रतिपादन की बात करें तो कह सकते हैं कि विभिन्न कल्पों की मान्यता, अभिरुचि आदि का प्रभाव है इन बातों में । किन्तु सबसे बड़ी बात ये है कि अन्ततः सब कुछ तो एक ही ब्रह्म का विश्लेषण है । एक की ही उपासना की अनेक विधियां भिन्न-भिन्न पात्रों और परिवेशों के अनुसार कही गयी हैं । अतः इसमें किसी तरह का संशय नहीं होना चाहिए । वस्तुतः ब्रह्म से ब्रह्माण्ड वा ब्रह्माण्ड से ब्रह्म की ओर गमन करते हुए मूल विषय को समझना है । साधना स्थिति से संहार की ओर हो या संहार से स्थिति की ओर- वृत्तात्मक स्थितियों में कहां आदि और कहां अन्त !
            इन सारी बातों, प्रमाणों, उक्तियों के पश्चात् भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गत कलि के ५११९ वर्ष व्यतीत होते-होते इस संक्षिप्त पुराणसंहिता(चारलाख श्लोकोंवाली)पर भी  अनेक प्रहार हुए हैं । मत-मतान्तर का समावेश भी खूब हुआ है । चिन्ताजनक छेड़छाड़ भी हुआ है मूल संहिता से । दुराग्रहग्रसितों की संख्या और बोलबाला भी कम नहीं रही है । बहुत सारी विसंगतियों का शिकार होना पड़ा है भारतीय संस्कृति को । और चतुर्दिश प्रहार निरन्तर जारी है ।
            प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में पुराणों का बड़े आदर के साथ पठन-पाठन,श्रवण,अनुशीलन होता आया है । हम भारतवासियों की बड़ी आस्था रही है पुराणों पर । भारतीय जनमानस में भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, धर्मपरायणता, वर्णाश्रम व्यवस्था, पुनर्जन्म, आत्मा-परमात्मा, परलोकआदि विषयक ज्ञान पिपासा का मुख्य श्रेय पुराणों को ही जाता है । अतः हमारा कर्तव्य होता है कि विध्वंशों-प्रहारों आदि से बच कर जो कुछ भी शेष उपलब्ध है उसे भारतीय संस्कृति के असली धरोहर के रुप में हम संजोने का प्रयास करें । व्यर्थ की टीका-टिप्पणी से विलग होकर, समय-समय पर उनका अध्ययन,मनन करें । मन्थन से कुछ तो नवनीत निकलेगा ही,जो भारत के भविष्य का पथप्रदर्शक सिद्ध होगा । अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं । परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। अस्तु । 
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पुनश्च— पुराण-औपौरुषेयता-प्रमाण—
१. अथर्ववेद-११-७-२४ के इस उल्लेख से स्पष्ट है- ऋचःसामानि छन्दान्सि पुराणं यजुषा सह । उच्छिष्टाब्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिताः ।। - यज्ञ के उच्छिष्ट से ययुर्वेद सहित ऋग्वेद,सामवेद,छन्द और पुराण प्रकट हुए ।
२. स होवाच ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानाम् वेदम्...।(छान्दोग्योपनिषदः)
३. ...तानुपदिशति पुराणम् । वेदःसोऽयमिति । किंचित पुराणमाचक्षीत एवमेवाध्वर्युः सम्प्रेषति...(शतपथब्राह्मण १३-४-३१३)
४.एवं वारेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यद् ऋग्वेदोयजुर्वेदःसामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः इतिहासःपुराणं विद्या उपनिषदः । (वृ.दा.उ.२-४-११)

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