पढ़ुए की पहचान

पढ़ुए की पहचान

 एक अनपढ़-भोलेभाले देहाती को एक पढ़े-लिखे, तेज-तरार शहरी आदमी से मुलाकात हुयी । भोले ग्रामीड़ पर अपनी धाक जमाते हुए उसने शहरी-संस्कृति और पढ़ाई-लिखाई के बारे में बहुत कुछ उपदेश दिया, जिसका अन्तिम निचोड़ था –
तुम तो निरक्षरभट्टाचार्य रह गए । जीवन गुजार दिए निरे देहात में हल-बैल,गाय-भैंस के साथ । कम से कम अपने बच्चे को तो शहर भेज कर अच्छी शिक्षा दिलाओ । कहो तो तुम्हारे वेटे को शहर भेजने,रहने-खाने,पढ़ने की व्यवस्था करा दूं । मेरे कई मित्र हैं शहरों में । विश्वासी घरेलू नौकरों की बहुत कमी रहती है शहरों में । किसी बंगले पर रखवा दूंगा । जरुरत की सारी व्यवस्था मिल जायेगी । खाली समय में कुछ पढ़-लिख भी लेगा । हो सकता है होशियारी करे और मितव्ययिता वरते तो कुछ पैसे बचा कर तुम्हारे लिए भी भेज दे ।
देहाती तो देहाती होता है – भीतर-बाहर बिलकुल निर्मल । शहरी बाबू की बातों में आ गया । अगले ही दिन शहर जाने की तैयारी हो गयी । रोती-कलपती माँ और मुरझाये चेहरे वाले बाप का पंवलग्गी कर बेटा शहर चला गया । हाँ जाते-जाते इतना जरुर कहा कि यदि वह पढ़-लिख कर काबिल बन गया तो माँ-बाप,भाई-बहन सबको लेकर शहर चला जायेगा ।
खुद चिट्ठियां लिखने तो आती नहीं थी, इस कारण अपने मालिक से ही हालचाल लिखवाकर हर दस-पन्द्रह दिनों पर दे दिया करता । करीब छः महीने तक ये सिलसिला जारी रहा । फिर धीरे-धीरे चिट्ठियों का अन्तराल बढ़ने लगा ।
पूरे दो साल बाद बेटा घर आया । माँ-बाप,भाई-बहन सबके लिए कुछ न कुछ जरुरी सामान लेकर आया । कुछ नगदी माँ के हाथों में दिए । बड़ा खुशमिज़ाज दीखा ।
देहाती पिता के एक देहाती मित्र ने शहर से आए वेटे का हालचाल पूछा— इतने दिनों पर शहर से आया है । बाबुआ कुछ पढ़ा-लिखा ?”
बाप ने सहज भाव से उत्तर दिया— मैं अनपढ़-गंवार उसकी पढ़ाई-लिखाई की जाँच कैसे करुँ ? मुझे कुछ खास समझ नहीं  है, किन्तु इतना फर्क जरुर देख रहा हूँ कि पहले कहीं बाहर से लौटता था तो दोनों हाथों से दोनों पैर छूकर पंवल्लग्गी करता था । इस बार आया तो ठेहुना छूआ । और हाँ, दूसरी बात ये गौर कर रहा हूँ कि जो पहले कहीं किनारे एकान्त में जाकर बाकायदा बैठ कर पेशाब करता था । इसबार देखता हूँ खड़े-खड़े मुतैया कर रहा है । और तीसरी बात ये देख रहा हूँ कि पहले यहां रहता था तो पाटी पर साथ-साथ बैठ कर खाना खाता था । इस बार देखता हूँ कि हाथ में थाली लेकर घूम-घूम कर खाता है । मां ने पूछा तो कहने लगा कि शहर में लोग ऐसा ही करते हैं । लगता है कुछ तो जरुर पढ़-लिख गया इतने दिनों में ।
समय गुजरा । शहरी बेटा अगले वर्ष फिर वापस गांव आया । देहाती लोग समाचार के लिए कुछ ज्यादा ही उत्सुक रहा करते हैं । इस बार कई ग्रामिड़ों ने हालचाल पूछा । सीधे-साधे बाप का सीधा-साधा जबाव मिला—
इस बार आया तो एक हाथ उठा कर दूर से ही सलाम बोला । न कोई सामान लेकर आया किसी के लिए और न माँ के हाथ में पैसे ही दिया । विशेष पूछने पर झंझुआकर बोला –  बकबक मत कर बुढ़िया । ज्यादे टें-टें करबें त टेंटुआ दबा देबऊ । अपन शादी-वादी के जुगाड़ में पैसा जुटा रहल हिओ । तोहनी के उहईं वृद्धाश्रम में रहे के इन्तजाम करवा देबऊ ।  ”
देहाती बाप के आँखों में बुझते दीये वाली अजीब सी चमक थी – अब पक्का विश्वास हो गया कि बाबुआ एकदम पढ़-लिख गया है ।
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