न
सुधरने का संकल्प
चन्द अपवादों को छोड़कर बाकी की
स्थिति ये होती है कि “न सुधरने की कसम” खाये बैठे
होते हैं—चाहे वो देश के किसी हिस्से में बसते हों, किसी पद पर प्रतिष्ठित हों, किसी भी
दायित्व वाले क्यों न हों । संयोग से वे जितने खास होते हैं, उनका “ न ” वाला
संकल्प भी उतना ही दृढ़ होता है । वैसे भी संकल्प-विकल्प तो “ आम ” के हिस्से
की चीज है, “ खास ” को इससे क्या वास्ता ! खास तो
खास होता ही है । बिलकुल एक समान हो गया यदि, तो फिर फर्क ही क्या रह जायेगा आम व
खास में ?
नेता,अफसर,प्रशासक,पत्रकार,धर्मध्वज कोई
भी हो सकते हैं—वस केवल खास वाला मुहर चाहिए । न - से ही शुभारम्भ है जिसकी—नेता
और नगर-निगम न सुधरने वाले संकल्प में कुछ ज्यादा ही सिद्धहस्त होते हैं । चुनाव
और बरसात से इन दोनों का विशेष सम्बन्ध है ।
एक की कलई खुलती है चुनाव के बाद, तो दूसरे की बरसात के बाद । चुनाव के
पहले नेता जितने कर्मठ, जनसेवी और ईमानदार दीखते हैं, चुनाव के बाद उसका हजारवां
हिस्सा भी उतर जाये पटल पर तो देश और देशवासियों का कायाकल्प हो जाये । बरसात आने
पर कीचड़ और गन्दे पानी का सामना न करना पड़े, ड्रेनहोल में गिरकर जान न गंवानी
पड़े तो समझो बड़े किस्मत वाला है । किन्तु ऐसा सौभाग्य मिलता बहुत कम ही है । हर
साल हजारों की संख्या में दुर्घटनायें होती हैं नगर-निगम की लापरवाही के कारण,
किन्तु इनके कान पर जूँ नहीं रेंगते, क्योंकि बेशर्मी के वर्डचैम्पियन वाला
रेकॉर्ड छिन जाने का खतरा है उन्हें । हालाकि
आँख मारने से लेकर जूता मारने तक का वर्ड रेकॉर्ड है भारत के पास । मैदान के वजाय
ऑफिस में बल्ला भांजने से लेकर दोनों हाथ और मुंह में भी पिस्तौल लेकर शेखी बघारते
नेताओं की चर्चा आए दिन सुनने को मिलती है, तो पक्का यकीन हो जाता है कि मेक-इन-इण्डिया
की ओर बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं हम । बिलकुल दावे के साथ ये कहा जा सकता है कि
विश्वगुरु बनने से अब कोई रोक नहीं सकता हमें ।
विश्वगुरु की बात पर गुरुओं की याद
स्वाभाविक है—दीक्षागुरु हों या कि शिक्षा गुरु । वैसे आजकल मैनेजमेन्ट गुरु का भी
काफी चलन हो गया है । ये मैनेजमेंट का क्षेत्र भी बहुत व्यापक है—कम्पनी से कम्यून
तक । वनस्थली से बीहड़ों तक तरह-तरह के दीक्षागुरु और मैनेजमेंट गुरु अपना दायित्व
निभा रहे हैं । वनों का घनत्व घट रहा है
तेजी से, इस कारण कंकरीटों वाले जंगलों में पूरी व्यवस्था हो रही है धुरंधर गुरुओं
की ।
गुरु
का मतलब ही होता है दूसरे को रास्ता दिखाने की क्षमतावाला । अब ऐसे में सोचने वाली
बात है कि जो स्वयं ज्ञानयुक्त है, वो भला दूसरे से ज्ञान क्यों लेना चाहेगा ! यही
कारण है कि आप लाख कोशिश करें ये गुरुमार्का लोग अपने ही ढर्रे पर चलते रहते हैं ।
किसी की नसीहत इन्हें बरदास्त नहीं ।
छोटे-मोटे गुरुओं को आजकल माट’साब या कि सरजी कहने की परम्परा है
। ये खास तरह के सरजी ज्यादातर सरकारी
स्कूलों में मिला करते हैं । पहले के समय में इनका खास लिबास हुआ करता था-
धोती-कुर्ता या पायजामा-कुर्ता के साथ एक खास तरह की टोपी और हाथ में छाता या छड़ी
और चेहरे पर झलकती बेसुमार परेशानियां—एकदम देखते ही पहचान में आजाते थे कि सरकारी
स्कूल के माट’साब हैं । काम ज्यादा नहीं था ,तो वेतन भी हिसाब से ही मिलता था । एक
जमाना था जब धड़पकड़ कर, जोर-जबरदस्ती मास्टर बनाया जाता था । किन्तु आज अपनी वाली
सरकार में इनका भाव बहुत बढ़ गया है । ढेरों पापड़ बेल कर इस ओहदे तक आना पड़ता है
। अब, इनका वेतन भरपूर है और काम? बच्चों
को पढ़ाना छोड़कर बाकी सारे काम इन्हें ही करने होते हैं- स्कूल के लिए लूडो-फुटबॉल,मेज-कुर्सी
से लेकर डी.ओ.- मैम की सैंडिल और लिप्सटिक तक की खरीददारी का अनुभव इनके पास होता
है । दुकानदारों से मोलजोल करने में ये पूरे माहिर होते हैं । ऐसे में स्वाभाविक
है कि कमीशनखोरी की कला में पारंगत होना भी इनके मेरिट सर्टिफिकेट का अहम हिस्सा
होता है । और चुंकि ऊपर से नीचे तक का हिसाब इन्हें ही रखना-करना है, तो ज़ाहिर है
कि ‘ ग्रान्ट
’ के चौथाई से अधिक बेचारे कहां से खरीद सकते हैं ! सरकारी
स्कूलों के विकास के लिए सरकारें खज़ाना लुटा रही हैं, पर हकीकत वहीं सौ साल पहले
वाली ही है । क्यों कि ये माट’साब नहीं सुधरने के संकल्प वाले मामले में अब्बल हैं ।
आंखिर करें क्या बेचारे ! क्या सच में हमारे आका चाहते हैं कि सुधार हो जाए सरकारी स्कूलों का ? उद्धार हो
जाए अनपढ़ों का ?
महिला सशक्तिकरण के दौर में सरकारी स्कूलों में महिलाओं
की भागीदारी सुनिश्चित की गयी है । चकला-बेलना त्याग कर,कलम-किताब से वास्ता जोड़ा
गया है, पर खुशी की बात ये है कि पूरे सीजन भर कांटा-क्रौशिया ही ज्यादा चलता है,
बहू-पुराण की सप्रसंग व्याख्या के साथ । हां, खिचड़ी में छौंका लगाने इन्हें
भलीभांति आता है ।
और इन सरकारी गुरुओं के चेले इनसे भी चतुर हैं । वो
सिर्फ मिड-डे-मिल, सायकिल, पोशाक, किताबों आदि के लिए ही स्कूल
आते हैं । बाकी समय तो मुंह में गुटका-सुरती भरकर,
झुरमुटों में बावनपत्तों के लुफ़्त में मगन रहते हैं । अब सरकार बहादुर को भला
क्या पता कि जो आनन्द जूआ-शराब में है, वो सरकारी स्कूल की पढ़ाई में कहाँ नसीब है
! जबकि
उन्हें बिलकुल मालूम है कि 30% ही
90%
से ज्यादा होता है - नये वाले संविधानिक गणित में । सरकारी नौकरी तो
पक्की है ही, फिर पढ़ने का ज़हमत क्या उठाना ! इसलिए वो
दृढ़ संकल्पित हैं— न सुधरने के लिए ।
न
सुधरने के संकल्प में आस्थावान वर्दीवालों का तो कोई जवाब ही नहीं । राष्ट्र की
प्रगति में इनका बहुत बड़ा योगदान है । कोतवाली से लेकर, चौक-चौराहे, यहां तक कि
एन.एच.तक भी इस दृढ़ निश्चयी के दर्शन हो सकते हैं । गप करते, खैनी ठोंकते, सिगरेट
पीते या फिर ऊँघते हुए वहां ये जरुर मिल जायेंगे । लोगों की जेबों में बैठे
गांधीजी से इन्हें विशेष लगाव है । उनका दर्शन-स्पर्शन कराये वगैर इनसे बात करना
भी बिना दक्षिणा के सत्यनारायण की कथा सुनने जैसा निष्फल है ।
और
जब ऐसे-ऐसे लोग न
सुधरने के संकल्प के कतार में हों तो भला बिना लाइसेंस वाले टीन-एज़र वाइकर क्यों
पीछे रहे ?
मोबाइल पर गर्दन टेढ़ी किए, पूरे रफ्तार में वाइक चलाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है
और तात्कालिक मजबूरी भी । आप जानते ही हैं कि पेट्रोल कितना महंगा हो गया है । दोस्तों के बीच अपनी साख भी जमानी होती है और
खिड़की से झांकती महबूबा को भी तो रिझाना होता है न । मुए ये मोबाइल का इज़ाद भी
मामूली ख़ुराफात नहीं है । चैन से गाड़ी भी नहीं चलाने देता ।
और
युवा जब ऐसा-वैसा कर सकता है, फिर प्रौढ़ क्यों पीछे रहे ! ‘ हम
किसी से कम नहीं
’ वाले अन्दाज में वो भी गर्दन झुका ही लेता है मोबाइल पर । क्यों
कि सबको पता है कि ट्रैफिक वाला भी अपने मोबाइल में मशगूल होगा ।
न
सुधरने के संकल्प वाले रेस में सब दौड़ लगा ही रहे हैं, ऐसे में भला आतंकी और
ज़ेहादी क्यों चूके ! उसे तो और भी बड़े पैमाने पर संरक्षण मिल रहा है—
छुटभैये से लेकर बड़भैये तक से ।
इसलिए
चिन्ता न करें । सोच-समझकर बढ़िया वाला स्कीम ले लें L.I.C. का । चारों ओर मौत के सौदागर
मड़रा रहे हैं । किसी की बारी कभी भी आ सकती है । और ध्यान रहे- अनुदानित कफ़न और
जलावन में भी कमीशन बनता है—मालूम है न ?
दीदी के ख़फा होने का ख़ौफ न हो तो इसी बात पर बोलिये—जयश्रीराम
। या फिर दक्खिन वाले भाईजान की परवाह न हो तो बोल ही दीजिए— वन्देमातरम् ।।
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