सीता-शापित
फल्गु का उद्धार
वर्षों पूर्व एक नेता ने चुनाव-दौरे
के दौरान बड़ा ही जनभावन चुग्गा फेंका था—
“ सीता
के शाप से फल्गुनदी का उद्धार करेंगे हम । ”
मगर अफसोस कि बेचारे को न सीता का
आशीष मिला और न जनता का साथ । फल्गु के रेत मुस्कुराते रहे उस नेता के बड़बोलेपन
पर और चारों ओर बिखरी गन्दगी का अम्बार मुंह चिढ़ाते रहा पितृतीर्थ-प्रेमियों को ।
सीता ने फल्गु को शाप देकर
भूमाफियों को मदद ही तो किया है । नदी में जलप्रवाह होता तो थोड़ी कठिनाई भी होती
दखलअन्दाजी में । सूखी है तो काम भी आसान है ।
आहिस्ते-आहिस्ते किनारों पर डम्पिंग करो, फिर किसी आरक्षित को जमा दो झोपड़ी बनाकर
। थोड़े दिन बाद उसे पीने-खाने का कुछ बन्दोबस्त देकर नये मुकाम पर भेज दो - कुछ
ऐसा ही करने के लिए । नगरनिगम और प्रखंड की “
कृपा-पत्री ”
की व्यवस्था तो जेबों
में बिराजते गांधीजी करा ही देंगे,
फिर चिन्ता किस बात की !
ये सब किसी एक के द्वारा थोड़े जो
हो रहा है । विविध कलाकारों की कारगुजारियां जारी हैं ।
सच्चाई ये है कि फल्गु का कलेवर
बहुत तेजी से सिमट रहा है- हजारों की संख्या में नये मकान खड़े हो गए हैं दोनों
किनारे पर । हिन्दु आस्था का पावन पितृतीर्थ गयाधाम किसी जमाने में अनगिनत कुँए , कुण्ड,
वापी और वावली के साथ-साथ १५४ तालाबों और चन्द्रमा की ३६० कलाओं पर आधृत ३६० पिण्ड-वेदियों वाला नगर था । आज बामुश्किल ४५ वेदियाँ
ही दीख पाती हैं । तालाबों के नाम पर मात्र १६-१८ ही बच रहे हैं, उनका भी अधिकांश
भाग अतिक्रमित ही है । कुँएं और वावली आदि का तो उपयोग और महत्त्व ही नहीं पता है
नयी पीढ़ी को । उनकी सोच और समझ के अनुसार ये सब एकदम “
आउटडेटेड ” हैं बिलकुल दादा-दादी की तरह ।
कोई डेड़सौ साल पहले अंग्रेजों
द्वारा कराये गए सर्वे के बाद कायदे से सर्वे भी नहीं हुआ है । ६०- ७० के दशक में
सरकार की खुमारी थोड़ी कम हुयी थी । बड़े जोरशोर से सर्वे-चकबन्दी का काम शुरु हुआ
था, किन्तु कोई दस साल के खींच-तान के बाद “ नॉटफाइनल ” का मुहर लगाकर
नक्शा-खतियान, मूल्यांकन-पर्चा आदि कुछ दस्तावेज थमा दिए गये थे भूस्वामियों को,
जो “
माया मिली न राम ” जैसी दुर्गति के लिए पर्याप्त है जनता के लिए । पता नहीं फाइनल
के आगे से ‘ नॉट
’ का ‘
नॉट ’ कब
खुलेगा !
राज्य का चुनाव फिर सिर पर मंड़रा
रहा है । पता नहीं जनता क्या करेगी । पुराने वाले साबुन से धोयेगी या कोई नया
डिटर्जेन्ट इस्तेमाल होगा - ये तो समय ही बतलायेगा । किन्तु फिर से एक नये ब्राण्ड
वाला लॉलीपॉप बांटा जा रहा है । उच्चाधिकारियों में एक दूसरे को वर-बधु की तरह
माल्यार्पण करके, अपनी-अपनी पीठ थपथपाने का सिलसिला जारी हो गया है । पर्यावरण और
जलसंरक्षण के नाम पर बैठकों और बैठकी का बाजार गरम है । अखबार वालों का काम भी कुछ
बढ़ गया है—सरकारी विज्ञापन और फोटो खूब मिल रहे हैं । छपाई तो जनता दे ही रही है
।
खबर है कि पाटलीपुत्र से पाइप के
सहारे गंगा का पानी लाकर फल्गु में उढ़ेला जायेगा । जलसंरक्षण के कई नये स्त्रोत
बनाये जायेंगे ।
अरे यार !
कितना उल्लू बनाओगे जनता को ?
ठेठ मगहिया में बोलें तो— मन भर
झाड़ा फीरने के लिए तो सालों भर गंगा में पानिये नहीं है और ख्वाब दिखा रहे हो
पाइप से देशान्तर यात्रा कराने की ।
वैसे मेरे पास भी एक सुझाव है—वो
उत्तर-पूरब वाली नदियों का नाच-गान-उफान कम करने का कुछ उपाय करो पहले । वहां से
पाइप बिछाकर गंगा को भरो और गंगा से उधार लेकर फल्गु को भरने का काम करना । इस
दोहरे प्लान से दोहरा फायदा होगा । राज्य की जनता को कुछ लाभ मिले ना मिले, अपने भाई-भतीजों
को मिलने से भला कौन रोक सकेगा?
मीडिया का मुंह मीठा करते रहना । काम
और भी आसान रहेगा । कुछ बेरोजगार ठेकेदारों का कल्याण होगा । बहुत दिनों से कोई
बड़ी योजना बनी नहीं है । फल्गु के उद्धार के बहाने ही कुछ अपनों का उद्धार तो हो
जाए कम से कम ।
बहुत कड़की चल रही है यार !
कुछ तो ख्याल करो ।
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