सेनुर के परछांही(मगही कथा)


        प्रिय पाठकों 
       पहले आप से कुछ बातें कर लूँ,फिर कथा की बात करुंगा ।


हिरणों सा कुलांचे मारता अपरिपक्व मन कब कलम पकड़ लिया पता भी न चला । विचारों के बादल कागजों पर उतरते रहे बेतरतीब होकर । विविध भाषाओं से लगाव बचपन से ही रहा । राष्ट्रभाषा हिन्दी और मातृभाषा मगही के साथ-साथ बंगला और उड़िया में भी थोड़ा प्रयास हुआ, किन्तु दौड़ नहीं लगा पाया । मगही में भी इक्की-दुक्की कहानियां ही लिख पाया । जो भी लिखा स्वान्तः सुखाय । घर-परिवार, साथी-दोस्तों को सुना देना, बहुत हुआ तो स्कूल के वार्षिकोत्सव में बाचन कर देना , कुछ पुरस्कार बटोर लाना ।
अचानक मुझे लगा कि लेखन तो व्यसन का रुप लेता जा रहा है । किन्तु चाह कर भी बंच न पाया । उपन्यास और कहानियों के प्लॉट सोते-जागते आगे-पीछे मंड़राते रहे । कभी-कभी तो उब जाता । डर भी जाता । असली पढ़ाई-लिखाई भी बाधित होने लगी । वैसे भी जीवन में कोई गोल्ड मेडलिस्ट स्टूडेंट तो रहा नहीं कभी । औपचारिक शिक्षा को हमेशा थोपी हुयी शिक्षा की तरह बोझ महसूस किया, जिससे उपलब्ध मुहर लगे कागज के टुकड़े के बदौलत नौकरी पा लेने के सिवा और कोई उपयोग नहीं जीवन में शायद । हाँ अध्ययन, मनन, अन्वेषण और ज्ञान का अपना अलग सुख है जीवन में ।
सुर-ताल-छन्द विहीन तुकबन्दियों से नफरत रहा शुरु से ही । कामायनी ” जैसे अद्भुत काव्य में खूब रमा, किन्तु एक छोटी कविता भी सही तरीके से लिख न पाया जीवन में । सात उपन्यास, पांच शोधग्रन्थ, वीस-पचीस कहानियां, एक नाटक और शताधिक बहुआयामी (बहुविषयी) आलेखों का संग्रह हो पाया अब तक । प्रकाशन जगत का बड़ा ही कटु अनुभव भी रहा । सोशलमीडिया के युग में कम्प्यूटर ज्ञानार्जन का नशा चढ़ा और उसीके बदौलत आज आपके सामने हूँ ।
प्रस्तुत मगही कथा सत्तर के दशक की है । आकाशवाणी पटना के मागधी कार्यक्रम में प्रसारित । शेष रचनायें तो पुण्यार्ककृति ब्लॉग और हिन्दीप्रतिलिपि तथा गद्यकोष पर आप देख ही रहे होंगे । इस मगही कथा का भी आनन्द लें आज । कोई ढाईहजार शब्दों की कथा को आगे दो भागों में पोस्ट कर रहा हूँ ।

धन्यवाद ।                            


                                   सेनुर के परछांहीं   

ओह ! सुन के केतना खुशी बुझाहल !!  
बाबूजी बहरी से घूमघाम के आवहलन,आऊ अइया से फुसुर-फुसुर बतिया हलन— “ एगो नीमन लइका के खोज में हीअ । बढ़िया बर-घर मिल जाए तो फुलमतिया के बिआह कर दीहूँ । हमनी के देह से इहे एगो न हेअ । एकदम जवान होगेल । कहऊँ ऊँच-नीच गोड़ पर जाए तो जिनगी भर के अकलंक हो जायेत ...।”

बाबूजी के बात पर अइयो केतना धेयान देके कह हलक— “ अपने ठीके कहइत हीअ जी । घर में जवान बेटी रहला पर टोला-परोसा के आँख फूटइत रहहे । देखूं न से दिन भरोसवा के फूआ कहइत हल छउड़ी के देख के कि हांथी पोंसले हथ । चट्टान भर के बेटी आऊ अभी तकले कुंआरे रखले हथ...।”

अइआ के बात सुनके बाबूजी खिसिया के कहलन— तोरा से तो जबाबे ना चले । कह लऽ काहे ना कि निकाल दीहूँ घरे से? का केकरो कपार पर हेऽ हमर छंउड़ी ? एगो टोहा-मोहा नीयत बेटी हेअ । जे सवक-सरधा हेऽ से एकरे पर न पूरावेला हेअ । इहे हमनी ला बेटा-बेटी दूनो हेअ ।

बाबूजी के बात सुन के मन हरिअर हो जा हल । ओ घड़ी के बात हम का कहूँ, बिआह के बात केकरो बतिआइत सुन के गते से हट जा हली उहां से, आऊ लुकाके सुने लग हली । का करती हल । सुने में तो बढ़िये लग हल, बाकी अइआ कह हल कि बेटी जात के एतना ढ़ीठ ना होवेके चांही ।

समय बीतइत गेल ।
एकदिन बाबूजी आऊ छोटका चाचा बहरी से अयेलन आऊ खुशी से हमर माथा पर हाथ फेरइत कहलन —  जा बेटी, अब तो तूं अनकर धन होगेलऽ । हमनी सबके छोड़ के अपन घरे-दुआरे चल जयेबऽ ।

हम सुन के लजा गेली । दउड़ के भीतरे घरमें भाग गेली । केवाड़ी के दोबा में से झांकके देखली । अइआ से बतिआइत सुनली कि हमर बिआह ठीक हो गेलहेऽ । एसवें जेठ में होयेला हेऽ । बड़ी बढ़िया बर खोजायेल हेऽ - आई.ए.पास करके बी.ए.में नांव लिखवले हेऽ । बाबूजी एगो फोटो ले आयल हलन । अइया के देखाके ओहीजे दीरखा पर धर देलन । मन करे कि भर नजर देखती हल तनी । बाकी भीतरहीं-भीतरहीं हुलसइत रहली । मनेमन शिऊ जी के मनावइत रह हली  । आज भगवान हमर सुन लेलन । मनलायेक बर-घर देदेलन ।

येही सब सोंचइत-सोंचइत एक तूरी देह गनगना उठे । लगे कि सउसे देह में झरझुरी होये लगे । सोचा गेल कि उनकर फोटो देख के हमनी सब तो परसन करलेली, बाकी ऊ तो ना देखलन न हमरा ! ना हमर फोटोये मिलल उनका । कॉलेजिया लइका, नाया सोंच, नाया दिमाग...केतने कॉलेजिया लइकी के देखले होयतन...उनका देखे में हम बेश होयेब तब न ! अपन माय-बाप के तो गदहियो परिये लगहेऽ... 

येही सब सोंचाइत रहे हरदम । सुतला में यही सबके सपनों आवे । उनकरे पनछहरी घुरइत रहे । अँगुरी पर दिन गिनाइत रहे ।

माध...फागुन...चैत...वैशाख...अन्त में जेठो आगेल । घर में तूल-तैयारी होये लगल । इन्जोरा सतमी के बरिआत आवत ।
  
            दिन जाइत देरी ना लगे । एक दिन बरिआत दुआरी लगगेल । सभे कोई हँसइत-खेलइत हल,बाकी हमर करेजा धकधक करइत हल । इ ला ना कि नइहर छूट जायेत...बाप-मतारी, सखी-सलेहर छूट जयेतन...बाकी इ ला कि कहीं हम उनका परसन ना होयेब तब ?
            अबटन के मारे देंह पीअर होगेल हल- एकदम चुहचुह पीअर सउँसे देंह । गोराई तनी आऊ निखर गेल हल । सभे कोई हमर गोराइये निरखइत रह हल । कह हलन लोग कि चनरमा नीयन लगइत हई छउड़ी । बड़ी भगसाली होतयी ऊ ,जे एकर हाथ थमतयी ।
बाकी एतनो पर हमरा सबुर ना धराये । धुकधुकी  लगले रहे ।

बिआह के बेरा हो गेल । बर पालकी पर परिछाये आगेल दुआरी पर । माई, चाची, दीदी, फूआ, मौसी, काकी...सभे दउड़न बर देखे-परीछे । घर एकदम सून हो गेल । हमरा भीरु खाली दइवा के बेटी बइठल रह गेल, अगोरिया में । एने-ओने देख के कहलक— ए फूआ ! तनी भूरकिया मंहें झांक के देख न तनी...फूफा केतना सोहावन लगइत हथी पटनियाँ मऊर पेन्हले... ।
ओकरा कहे पर तनी हमहूँ झंकली । मुंह तो ना बाकी सउँसे देंह लोकल । लाज के मारे आँख मूंदा गेल । एतने में सभे आ गेलन । मड़वा में लिआ जायेला कपड़ा ठीक करे लगलन । ओने करमट-कांड नधायेल हल । पंड़ीजी जल्दी से लइकी के ले आवेला  कहलन—लगन बड़ी कमे हेऽ...जल्दी-जल्दी सब करमठ होयेके चांही ।
सुनही कि भाईये मंड़वा में उठा के ले जाहेऽ बहीन के चौका पर बैठावेला । बाकी हमर करम में भाई कहां हेऽ । आजे हमरा अँखरल कि भाई के का जरुरत होवहेऽ जिनगी में...माई के कहे पर लड्डुगोपाल के राखी बांन्ह के सन्तोष करले हली । आज आवथ नऽ गोदी उठावे...। तुरतही काम परत लावा छींटे के....।

मंड़वा में जाइत देरी लगल, बाकी करमट कांड होयेमें तनीको बिलऽम ना भेल । चट-पट सब काम फरिया देलन पंड़ीजी । लगल कि छन भर में रात बीत गेल । बिहान होय-होय में सब फरिया गेल ।

ओहनी के जिद हल कि कनेआँ बिदाई होहीं के चांहीं बाकी हमरा हींके चाल ना हेऽ  बिआह में बिदाई के । बाबूजी रोइत-गिड़गिड़ाइत रहलन, बाकी बात पास भेल लइके ओला के । लइकी ओला हरमेशा नीचे गिरल रहहे । न जानी समाज के इ बेमारी कहिआ बिदा होयेत !

बिदाई हो गेल । डोली गांव से बहरी निकल गेल । सब अरिअतताहर घूर गेलन । माई-बाबूजी घरहिं रोइत-पीटइत रह गेलन । लगहे कि एतना दुःख केकरो मरलो में ना होइत होतई, जेतना दुःख पालल-पोंसल जवान बेटी के बिदा करे में होव हेऽ मतारी-बाप के । डोलिया में कंहरन के बतिआइत सुनली कि अइआ के दांत पर दांत लग जाइत हल । मन करे कि डोली में से कूद के भाग जाऊँ । अइआ के भर अँकवार धर के खूब रोऊँ...।

हमर मन के अजबे हालत हल । एक दने छुटइत मतारी-बाप, सखी-बहिनपा, नइहर के लोक व्योहार, आऊ दोसर दने एगो नाया जिनगी के सपना...।

बिआह में रेडियो मिलल हलइन उनका ’, से साथे लेले बजावत चलइत हलन । बजरपरूआ ओही घरी गावइत हल—दिल न माने मगर आज जाना भी है...अपने साजन से वादा निभाना भी है...सामने एक नयी जिंदगी है मगर पीछे गुजरा हुआ एक जमाना भी है...।

कभी इहां कभी ऊहां के बात सोचइत डोली में दुबकल चलल जाइत हली । आगे-आगे उनकर डोली हल ।

बेर लुकलुकाइत डोली लगल ससुरार के दुआरी पर । टोला भर के मेहरारुन कनेयाँ देखे-परीछेला पहिलहीं से टकटकी लगएले हलन । परिछइत खानी उनको बोला के हमरे डोली में बैठवल गेल । नन्हींगो के  डोली । दू अदमी के बइठला पर देंह में देंह सटे तो गनगना उठीं । काजनी मरदाना जात के देंह में कौन अइसन चीज होवहेऽ... ।

अरिछन-पिरछन-चुमावन-मुंहजुठावन सब सलतन्त हो गेल । बड़-जेठ के गोड़ लाग के घर में ढुका दिअइली । उहां पहिलहीं से छोटकी ननद खूब मजे में घर सहिआर के धएले हलन । फूल-माला के मारे विछौना तोपायेल हल । सउँसे घर में सैन्ट धमकइत हल । हमरा लिआ जाके उहईं बैठा देलन । लाज के मारे हम तो एकदम धंसल जाइत हली, आऊ चारु भर से सब बेटी-सवासिन घेरले हलन ।
तनी देर बाद सभे बहरी चल गेलन । खाली बड़की गोतिनी रह गेलन । घूंघा में मुंह ढुका के गते से कहलन— तनी बेस से बोलीह बतिअइह बबुआजी से । पहिले-पहिले ससुरारी आयेल ह । बाबू जे कुछ पूछतथू से सही-सही से जबाब दीह...पहिला रात के बाड़ा महातम होअ हे औरत के जिनगी में ...।
एतना कह के उ सड़ऽ...ऽ से बहरी चल गेलन । दींअट पर दीआ धयेल हल । गते से फूंक के बुता देली ,आऊ अन्हारा में चुपचाप बइठ गेली ।
एतने में चोंएँ से करके केवाड़ी खुले के अवाज भेल । सोचली - उनका छोड़के दोसर के होयेत इ घड़ी । घूंघा तनी आऊ नीचे तीर लेली । ठीके ओही हलन । अवते बोललन— इहां केऊ ना हेऽ का...एकदम अन्हारा हेऽ...।
हम चुपचाप बइले रहली दम सधले । लाज आऊ डर के मारे लगे कि धरती में समा जाऊँ । अगिनपरीछा के येही घरी आयेल हेऽ । करेजा एकदम धकधक करइत हल । बाकी बजरपरुआ चूरिआ चुप रहीत तब न । उ खनखना के बोलिये देलक । चूरी के झनझनी सुन के उ समझ गेलन । बहरी पाया में टांगल ललटेन जाके ले अयेलन । हमरा भीरु एकदम सट के बइठ गेलन । पीठ पर गते-गते हांथ फेरइत-फेरइत चट से घूंघा हटा देलन । दूनों गाल के अपन तरहथी में खेलौना नीनन धर के बोललन— फूलमती ! तोरे ला हम एतना दिन से छटपटाइत हली । जहिया से सुनने हली, एकऽ गो दिन गिनइत हली । आज तू एकदम से हमर हो गेल । तोर रुप के बखान तो ढेर दिन से कान सुन-सुन के तिरपित होइत हल, बाकी आँख के मोका तो आजे मिलइत हेऽ न । पहिले हमरा भर पेट देख लेवे द अपन चनरमा नीयत मूंह... ।

फिर एने-ओने के बात बतिआये लगलन । तीर के गोदी में बइठा लेलन । घूंघा ताने के हम कए दफे कोशिश कइली ,    बाकी कउनों फयदा ना भेल । कहे लगलन— हमरा सामने घूंघा काहे ला तानइत हऽ ? हमरा ला तो तोर संउसे देंहे हे ,फिर मुंह तोप के आँख के काहे ला तरसावइत हऽ ?   
एतना कह के ललटेन आऊ भीरु कर देलन । कबो हमर मुंह पर ताकथ, कबो संउसे देंह निहारथ । लगे कि कउनो लइका मिठाई पर तकइत ललचइत होय । हमतो लाज के मारे कुछ बोलिवो ना सकइत हली । फिर हमरा से पढ़ाई-लिखाई के बात पूछे लगलन । हमर करेजा कांपे लगल । अइसन लगे जइसे कौनो नोकरी के बहाली ला बोलावल गेल ही । पढ़ाई के एगो-दूगो बात पूछलन, जेकर जबाव हम ना दे सकली । दीती कहां से हल, हमरा ला तो करिया अछर भैंस बरोबर हल । किताब-कांपी तो दूर रहो, सिलेटो-पिनसिन के मुंह ना हली देखले कहियो । बाबूजी सबकुछ कयेलन अपन औकाद भर ,बाकी लइकी के पढ़ावे के भी चाहीं- एकरा पर कभी सपनयेबो ना कएलन । लइका खोजलन कॉलेजिया और इहां लइकी हे एकदम गोबरपथनी ...।

हमरा चुप देख के उनकर रोखी बदले लगल । घूंघा एकदम हला देलन, जेहू तनी तोपाएल हल । टुकुर-टुकुर मुंह पर ताके लगलन । तकते-तकते खिसियाके कहलन -- हमरा काम-धन्धा करे ओली दाई के जरुरत ना हल । काम-धन्धा देख के माई भले खुश होतव, हमरा ला तो लिखाई-पढ़ाई के महातम हे । देखइत ह कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गेल । अब लइका-लइकी में फरक करेके के जुग ना रहगेल हेऽ ।  हमर सब संगी-साथी पढ़ल हथ आऊ उनकर बिआहो भेल हे पढ़ले लइकी से । ओहनी के जमात में तोरा लेले पहुँचब तो केतना हंसावन होयेत से तू ना बूझइत ह । हमर मूड़ी एकदम गड़ जायेत ओहनी के सामने ।
एतना कहके चुप हो गेलन, आऊ चदर तान के सूत रहलन । गुनतारी बइठल हम बड़ेरिये तकइत बिहान कइली, लोर पोंछइत-पोंछइत ।

विहान होइते ननद-गोतनी-देवर सब खुरखुरा के समागेलन एके दफे घर में । सब हंसी-चउल करे लगलन । रात भर के जागल हली । आँख इंगुर भेल हल एकदम । माथा फटल जाइत हल । बाकी ललछहुँ आँख के दोसरे अरथ लगवइत हलन ओहनी ।

तनी मोका पाके छोटकी ननद कान में फुसफुसा के कहलन— हमरे किरिया हव भऊजी , केकरो से कहिह मत ।  भैया तोरा परसन ना कलथू । खरिहान में लुका के रोइत हलथू ।  बड़की भऊजी कोठा पर से देखलथी, तो इशारा से बोलाके पूछलथी , तो कहलथी कि हमर करम तो खपड़ी में भुंजाएल हे अइसन मेहरारु मिलल हे । सुन के अइआ डटलई कि का भेल हई कनइयां में, कइसन गोर-नार सुघर-सुनर, टोहा-मोहा कनेया मिललउ हे, आऊ अगराइत हें ? इनर के परी का खोजइत हलें... ?

 हमर करेजा धकधक करे लगल । बाबूजी कह हलन कि फुलमतिया के खबसूरती देख के सब तोपाजायेत । बाकी इ ना सोचलन कि खबसूरतिए सबकुछ ना हे दुनिया में ।

उगे से डूबे ले कनेआँ देखे के भीर जुटल रहल । एनेओने केकरो धेयान ना गेल । सांझ होइते गोरु-बछरु नीयत उहे घर में ढुका दिअइली । हमर पेट में तो डर के मारे घोड़ा कूदइत हल । मन करे कि कहीं भाग जाऊँ निकल के । जब उनके परसन ना ही तो हमर खबसूरती कउन काम के !
ससुरारी में दोसर सांझ बीतइत हल । रात के इन्तजार हल । आऊ सभे कोई खा-पी के निसचिन्त हो गेल हल । उनकर खोजाहट होइत हल खायेला ।
एक ब एक सुनली कि ऊ कहीं चल गेलन हे । दुपहरिये में कमीज पेन्ह के निकल हथ से अभी तक ना हथ लौट के आयेल । गांव भर में खोजा गेलन । केकरो ही ना मिललन । मेला-बजार इहां हे ना कहीं भीरु में ।
टकटकिये में सबके रात बीत गेल । दोसरा दिन भर खोजहरिया लगल रहल , बाकी कुछ पता ना चलल । इनरो-कुंइयां झंका गेल । कहई ना मिललन ।

अइसहीं दिन पर दिन बीते लगल । ना अन ढूके ना पानी । नाया नोहर ठहरली । केकरा से का कहूं अपन मन के बात !    असरा देखइत-देखइत आँख भोथरा गेल । दस दिन पर डकपीन के हाथे एगो चिट्ठी आयेल । जगह के नाओं ना हल देल । पुसकाट पर लिखल हल—अइआ-बाबूजी के मालूम कि पूतोह से उहे लोग जुड़ाथ । हमर करम में तो साधुये-सनेआसी बन के दिन बीतावेला लिखल हे ....।
माई छाती पीट के रोये लगलन । बाबूजी मुंह लटकवले दूरा पर अकेले उदास बैठ गेलन । हमरा तो दांत पर दांत लगे लगल । लोग जांते दबावे लगलन । सन्तोष देवे लगलन कि मतारी से भीख मंगला बिना केऊ सनेआसी होवहे , आज ना काल झंक मार के आवहीं परतइन घरे ...।  बाकी इ सब सुन के हमरा धीरजा ना धरायेल । केऊ अपन ना लगइत हल उहां । नइहर सासुर तबे सोहाहे जब मरदाना रहहेऽ । ओकरा बिन तो सब फुसार । सब कुअरथ । मतारी-बाप तो कुंआरे भर के होव हे । बेटी बिअहन कुंइयां उड़हलन...। अब नइहर पर कऊन असरा ?

येही तरह दिन-पख-महीना आऊ अन्त में सालो बीत गेल । उनकर असरे देखइत रह गेली । सेनुर-टिकुली, गहना-गिठो सब तंवाइत रहलन । कहिओ उठा के तनी देंह में लगयेबो ना कइली । उहे ना हथ हमरा भीरु तो इ सब कउन काम के ! नेहयेला के बाद माईजी जबरजस्ती मांग में सेनुर ठेंका देथ, बस ओही ओतने भर हमर सिंगार रह गेल हल ।  मांग में सेनुर के परछाहीं भर विआहल के निन्हासी रह गेल हल ।

एक दिन बड़की गोतिनी से उनकर फोटो मांग के पूजा करेला सोचली । कहीं कि जायेदऽ ,  उनका साधुये बने में सुख बुझाइत हइन तो बुझाउन , उहे में बरकत देथू भगवान । हम अपन जिंनगी उनकर फोटोवे के पूजा करे में गुजार देब । बाकी ओहू सरधा ना पूरल । सभे खिसिआये लगलन कि ओकर धरम-करम में बिघिन परतई ...सनेआसी के फोटो ना पूजे के चांही ... जिअइत अदमी के फोटो के कहंऊँ पूजा करे के चांही !

कुछ दिन बाद बाबूजी लिआवे अयेलन । जायके तो मन ना हल तनिको, कउन मुंह लेके नइहर जाऊँ !  बाकी फिन एक दफे अनबोलता जीव नीयत पगहा धरा दिलायेल ।  इ खूंटा से ऊ खूंटा कर दियायेल ।

बाबूयेजी से मालूम भेल कि गांव के एगो अदमी उनका कलकत्ता में देखले हे । सुन के ऊहां गेलो हलन पाता लगावे, बाकी तब ले ऊ जगह बदल देले हलन । कुछ पता-ठेकाना ना मिललइन । उदाश होके चल अयेलन ।

मन करे कि जहर-माहुर खाके जान तेयाग दींहूं, बाकी एहू करे में पापे बुझाये । काजनी पूर्विला में का करम कएले हली कि अइसन दिन देखे परइत हे, आऊ फिर जान देगे अगिलो जनम बिगाड़ लीहूं ! चारु बगल से अलचार मेहरारु जात के कोई जिनगी ना हे । मरदाना ना हे तो सब फुसार । रो-कान के जवानी तो गुजर जाहे, बुढ़ारी आऊ दुर्दसा के दिन हे । आगे नाथ ना पाछे पगहा..। 
उनकर इयाद के परछांही जे तनी ललटेन के इन्जोरिया में देखले हली, ओही भर हमर सहारा हल । ओही छन इयाद कर-करके सबुर करइत रहली । कबो बाबूजी पर खीस बरे, कबो आज के समाज पर । देखा-सुना के बिआह भेल रहीत तो का एहे गत होइत ! आज इ अधछना ना न सहे परीत हल । बाकी बितन्त के सोचन्त का...रोये-पीटे ला रहगेल हे खाली । अपन करम के अलावे आऊ केकरा दोष दीहूं ?

जेठ के महीना हल—तीसरा बरीस । ओही महीना जेकरा ला एक दिन आँख पसरले हली । गांव के एगो कंहार कलकत्ता से भागल-भागल आएल । रोइत-रोइत बाबूजी से कहलक— का कहूं मालिक , पहुनाजी के सामाचार । पता लगल कि नोकरी करके बड़ी पैसा कमयेलन । चहितन तो राज करितन हल फुलमती मईँयां के साथे । बाकी उनकर सोभाव के का कहूँ, अपने से कहहूं में लाज लगइत हे । कहेला तो इज्जतदार घर के अदमी हलन ,बाकी दिन-रात दारु पीके, रंडी के पाछा लगल चललन । काले के बात हे ऽ पुलिस के छापा परल रंडी-पड़ाव में । तीन-चार गो दरे पर धरयेलन । ढेर तो एने-ओने भाग गेलन । भागइत देखके पुलिस गोली चला देलक ।
हम अकबका के पूछली—
कारे भगेड़ना ! भागे ओला में ऊहो हलन का रे ?
मूड़ी नेवा के गते से कहलक— हं मंइआंजी , इहे ला तो हम आयेगल ही । उनकर हालत बड़ी खराब हे । पेटे में कसइवा  गोली मार देले हे ।   
बाबूजी-माई हाय-हाय करे लगलन । हमरा तो कठमुरकी मार देलक । तीन बरीस से रोइत-रोइत आँख  बे-पानी होगेल हल । रोआइवो ना छूटइत हल ।
भगेड़ना कहलक--  अभी रोये-धोये के बखत ना हेऽ मलकाइन । जल्दी से जइसे होये चलूं, हमरा साथे । उनकर बढ़ियां से दवा-दारु कराऊँ चलके ।  
दोसरा दिन हमनी सभे कलकत्ता पहुँचली भगेड़ना के साथे बाड़ा अस्पताल में । भगेड़ना तो देख-ताक के गेले हल । उनकर सीट भी लिआ गेल ।
पहुँचते माई छाती पर मुक्का पीटके गिर परल । सीट खाली हल । ओहीजे बरंडा में मुंह तोपायेल धएल हल । अलग-बगल ओलन कहलन कि रातही खतम हो गेल हथ । गरजीअन के असरा देखाइत हे ।
मन ना मानल । माई मुंह उघार के देखलक । देखते बेहोश हो गेल । हम खड़े-खड़े ओँघड़ा गेली । एक दिन अबटन से पीअर मुंह देखले हली, आझ करिया मरल मुंह देखली ।
मांग में परल सेनुर के जे परछाहिंयो हल से आज मेट गेल । एही हल हमर बिधि के बिधान...।
                           ---()---           



Comments