अन्धश्रद्धा के तानेबाने

अन्धश्रद्धा के तानेबाने

          कोई पैंतालिस वर्ष पहले की बात है - उस समय की बात, जब न तो मोबाइल फोन था और न सोशलमीडिया का हाइटेक प्लेटफॉर्म । अखबारों की भी ऐसी सुविधा नहीं थी । दूरदर्शन  तो वाकयी दूर का दर्शन था । सामान्य खबरें (चिट्ठी-पत्री) के लिए भी हफ्तों इन्तजार करना पड़ता था । रेडियो की सुविधा भी औकादवालों की तिजोरी में कैद थी । ऐसे में सोच सकते हैं कि किसी भी खबर को देश-व्यापी होने में कितना समय लगता होगा ।

          बिहार में बरौनी से आगे गंगा-प्रवाह एक रात अचानक प्रज्ज्वलित हो उठा । पानी में आग ! कितना आश्चर्यजनक दृश्य रहा होगा ! अपने-अपने ढंग से अटकलें लगायी जाने लगी— धर्म और विज्ञान के चश्में से विचारा जाने लगा । आसपास ही नहीं, दूरदराज से भी लोग जुटने लगे- गंगामईया के इस कोप को देखने-समझने के लिए ।

उन दिनों महिलाओं के लिए एक खास तरह की सूती साड़ी का चलन था- बिलकुल एक रंग वाला- लाल, पीला, हरा, बैगनी...विविध रंगों में , जिसे लोग पंजी  कहते थे । क्वायलीटी के अनुसार पन्द्रह रुपये से लेकर पचास रुपये तक उपलब्ध हो जाता था  । गंगा को प्रसन्न करने के लिए लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार पूजा की थाल लेकर पहुँचने लगे । उस समय के विशेषज्ञों ने सुझाया कि पीले रंग की पंजी ही चढ़ायी जाये गंगामईया को । और फिर क्या कहना, पन्द्रह रुपये वाली पंजी भी सौ-दौ सौ में बिकने लगी । गंगा की ज्वाला तो मात्र कुछ घंटों में समाप्त हो गयी, किन्तु श्रद्धालुओं की भक्ति-ज्वाला तबतक प्रज्ज्वलित रही, जबतक कि बाजार से पंजी गायब न हो गयी । बड़े-बड़े होलसेलरों के यहां भी स्टॉक निल होगया ।

          गहन जांच के बाद पता चला कि गंगा का कोप नहीं, बल्कि बरौनी रिफाइनरी के कर्मचारियों की लापरवाही थी । हजारों लीटर कच्चा खनिज तेल गंगा में बह गया था ।

          इस सच्चाई पर परदा डालने तथा जनता और प्रशासन को तत्काल दिग्भ्रमित करने के लिए योजना बनायी गयी थी ।

उधर बम्बई के पंजी निर्माता कम्पनियों के पास भारी मात्रा में पंजी डम्प पड़ा था, क्यों कि आउट-डेटेड हो चला था । निरे देहातों में भी पंजी की मांग नहीं हो रही थी । रिफाइनरी के कर्मचारियों की गलती का तत्काल लाभ व्यापारियों ने उठाने का अचूक नुस्खा इज़ाद किया—गंगामैया के प्रकुपित होने और चुनरी चढ़ाने की बात का जोरदार हवा उड़ाया गया । आम जनता तो भोली और अन्धविश्वासी होती ही है । इसका भरपूर लाभ उठाया व्यापारियों ने ।
          अन्धश्रद्धा की तरह-तरह की अजीबोगरीब घटनायें अफवाहों का रुप लेकर आए दिन जंगल की आग की तरह समाज में फैलती रहती हैं । कोई पन्द्रह-बीस साल पहले भी एक अफवाह फैली थी , संयोग से वो खबर मुझे गुजराज से मिली थी—गणेशजी दूध पी रहे हैं । किन्तु शर्त ये था कि मूर्ति प्रतिष्ठित (प्राचीन) और संगमरमर की होनी चाहिए । देखादेखी अन्य स्थानों पर भी गणेशजी दूध पीने लगे ।

          इधर दो-तीन दिनों से अखबार और सोशलमीडिया पर शिव-वाहन नन्दी के दूध पीने की बातें फैल रही हैं । मेरे समीप पितामहेश्वर मन्दिर में भी भक्तों की भीड़ जुटी है ।  

          इक्कीसवीं सदी के अत्याधुनिक दौर में जब कि हम चन्द्रयान और मंगलयान की तैयारी में जुटे हैं, ऐसी अवैज्ञानिक बातें बिना सोचे-विचारे सुनते के साथ ही कबूल कैसे कर लेते हैं—समझ से परे है ।

          ये कह कर मैं आपकी धार्मिक आस्था को ठेंस नहीं पहुँचा रहा हूँ, बल्कि सोचने-विचारने को विवश कर रहा हूँ । आप ऐसा न सोंचे कि मैं मेकाले यूनिवर्सीटी   का छात्र हूँ । मैं तो भारतीय संस्कृति और परम्परा का अन्वेषी हूँ और मॉर्डेन डेवेलॉप्ड सायन्स को अभी बहुत बच्चा समझता हूँ भारतीय विज्ञान के सामने , फिर भी बात मेरी समझ से परे है ।

          धार्मिक, आस्थावान, श्रद्धावान होना बड़ी अच्छी बात है । धर्म, आस्था, श्रद्धा बड़ी मूल्यवान चीज है ,  किन्तु इन सबके आगे अन्ध शब्द जुड़ जाये तो स्थिति बड़ी चिन्ताजनक, भयावह और खतरनाक हो जाती है । आज दुनिया में जो भी अनर्थ हो रहा है, उसमें धर्म का बहुत बड़ा योगदान है । संसार में अबतक जितने भी युद्ध हुए हैं, उनके मूल में कहीं न कहीं धर्म का हस्तक्षेप अवश्य रहा है । और ऐसा इसलिए होता है, क्यों कि धर्म की सही परिभाषा और सीमा ही हमें ठीक से ज्ञात नहीं है । अक्सर हम अपने मनोनुकूल इसकी परिभाषा गढ़ लेते हैं, सीमा बना लेते हैं । क्या कोई धर्म लड़ने-मारने की अनुमति दे सकता है ? और यदि देता है तो उसे हम धर्म कैसे कह सकते हैं ?

अब, यहां गीता में दिये गए श्रीकृष्ण के उपदेश का हवाला देकर मेरी बोलती बन्द करने की धृष्टता न करेंगे । क्यों कि सच्चाई ये है कि गीता को ठीक से समझा ही नहीं जा रहा है । गीता की अनेक टीकायें हुयी हैं—सबने अपने-अपने हिसाव से समझने की चेष्टा की है । फिर भी श्रीकृष्ण को ठीक से जाना नहीं जा सका है । श्रीकृष्ण ने तो स्वयं की मूर्ति बनाकर पूजने तक की बात नहीं की है और हम हैं कि पागलों की तरह इसकी-उसकी, यहां-वहां मूर्ति बना बनाकर, मरने-मारने पर तुले हैं ।

          हो सकता है मेरी बातें बहुतों को अरुचिकर लगे । उन्हें मैं नास्तिक या अधार्मिक या धर्मविरोधी प्रतीत होऊँ । किन्तु मेरा निवेदन है कि बिलकुल सादे चश्में से धर्म की सही परिभाषा और सीमा की खोज करें । शायद कुछ अनमोल लब्ध हो जाए । अस्तु ।
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