ई-पिण्डदान::निकम्मों-सिरफिरों का कर्मकाण्ड
महामहिम
भोंचूशास्त्री आज सुबह-सुबह अखबार का एक पन्ना हाथ में लिए हुए मेरे दरवाजे पर
दस्तक दिये – “ जल्दी से दरवाजा खोलो गुरु और देखो कैसी खबर छपी है । ”
किवाड़ खोलते ही अपने पुराने अन्दाज़ में शुरु
हो गए – “ वाह ! मुझे तो एकदम से मजा आ गया, ये खुशख़बरी सुन कर
कि हमारे बिहार स्टेट टूरिज़्म डेवलपमेन्ट कारपोरेशन लिमिटेड ने एक नयी योजना
लॉन्च की है, जो बड़ा ही दिलचश्प है । योजना का नाम है- ई-पिंडदान । पितृभूमि गयाधाम में पितरों की मुक्ति के लिए एक
क्रान्तिकारी कदम उठाया गया है सरकार द्वारा, ठीक उसी अन्दाज में जैसे स्वच्छता
अभियान के तहत साफ-सुथरे फर्श पर वाइपर-झाड़ू फेरते हुए कैमरे के फ्लैश में कैद
होकर, टीवी-स्क्रीन पर कब्जा करने की कलाबाजी । घर बैठे इसकी बुकिंग pitripaksh.com पर जाकर ली
जा सकती है । खबर है कि वाकायदा इसकी विडियोग्राफी भी होगी, जिसे आप अपने पामटॉप
में इत्मिनान से देख सकते हैं, ए.सी. में डनलप पर आराम फरमाते हुए । आप चाहें तो
सोशलमीडिया में शेयर कर अपने पड़ोसी से लेकर मित्रों तक को नीचा भी दिखा सकते हैं
कि तुमने कुछ नहीं किया जीवन में अपने पूर्वजों के लिए और मैं तो ऑनलाइन पिण्डदान
कर लिया ई-पिण्डदान ऐप से । ”
मैं
जरा चौंका- हाईटेक जमाने में ई कॉमर्स, ई बुक, ई शॉपिंग के तर्ज पर ये ई-पिण्डदान !
मेरे
मनोभावों को शास्त्रीजी तुरत पढ़ लिए और रिऐक्ट करते हुए उचरने लगे- “ चौंक क्यों रहे हो गुरु ? आने
वाले समय में ई बीबी, ई बच्चे भी मिलेंगे और मॉर्डेन सायन्स ये सारी सुविधायें
चन्द चुनिन्दे ऐप के थ्रू प्रोवाइड करेगा । आनेवाले दिनों में बच्चे पैदा करने का ज़हमत
बिलकुल नहीं उठाना पड़ेगा और न पालने-पोषने का । बिलकुल रेडीमेड हाईप्रोफाइल बेबी
मनचाहें ढंग से उपलब्ध हो सकेगा । बीबियों को सिज़ेरियन डिलीवरी के झमेले में भी
नहीं पड़ना पड़ेगा । अल्ट्रासाण्ड कराकर मेल-फीमेल इशू का भी टेन्शन नहीं रहेगा ।
बस, बढ़िया वाला इम्पोर्टेड स्प्रे मारकर मियां-बीबी किसी फाईवस्ट्रार मॉल में जाओ
और मनचाहा बेटा उठा ले आ आओ । दिलचश्पी हो तो बेटी भी ला सकते हो । वैसे बेटी का
प्राइस कुछ ज्यादा होगा, क्यों कि डिमान्ड न के बराबार होने के कारण प्रोटक्शन बाई
ऑडर होगा, वो भी हन्ड्रेड परसेन्ट एडवान्स जमा करने पर । हाँ, एक सुविधा और होगी-
मॉल जाना भी न चाहो तो ऑनलाइन मॉडेल देख कर बुकिंग भी करा सकते हो- ई पेमेन्ट के
ज़रिये और मनमुताबिक वारिस, वाया कुरियर तुम्हारे बेडरुम में दाखिल भी हो जायेगा ।
ये न हुआ सायन्स का कमाल । ”
क्या
बक रहे हैं शास्त्रीजी !
“ बक नहीं रहा हूँ गुरु । प्रूफ साथ लाया हूँ- ये देखो ख़बर खुद से पढ़ लो ,
तब तो य़कीन हो जायेगा न । ”- कहते हुए
अखबार का मुड़ा-चिमुड़ा एक पन्ना मुझे थमा दिए और फिर चालू हो गए— “ अब तुम्हीं जरा सोचो, घूस ले-लेकर, सरकारी खजाने को लूट-लूटकर, दवा से लेकर
खाद्य पदार्थों में मिलावटकर,अजूबे-अजूबे घोटाले कर-करके, 56 ईंच सीने के वजाय, 66
ईंच का तोंद फुलाये, डेढ़ क्विंटल वजन वाले मेट्रोसिटी वासी मियां-बीबी कहीं
भारी-भरकम वैदिक कर्मकाण्ड का फज़ियत उठा सकते हैं ? कौन
भला एक दिन में 1400 सीढ़ियां चढ़-उतर कर प्रेतशिला और रामशिला का पिण्डक्रिया
पूरी करने की औकाद रखता है? ऊपर से बिलकुल फास्टिंग मोड
में । अनवरत चाय बिस्कुट, पिज्ज़ा, बर्गर, समोसे, पकौड़े भकोसते रहने के बावजूद ये
कहने में जरा भी शरमाते नहीं कि आज खाने का टाइम नहीं मिला । ऐसे कर्मठ सपूतों से वैदिक कर्मकाण्ड का
संयम-नियम निभेगा भला ? संयोग
से कोई श्रद्धा-विश्वास पूर्वक विधिवत कर्मकाण्ड कराना भी चाहे तो क्या योग्य कर्मकाण्डी मिल जायेंगे उसे विष्णुनगरी में ? लाखों की संख्या में श्रद्धालु गया आते हैं, किन्तु होता क्या है? नियमतः एक वेदी पर होने वाला दो-ढाई घंटे का कर्मकाण्ड, बामुश्किल 10-20
मिनट में फरिया दिया जाता है । कर्मकाण्डी का ध्यान सिर्फ मोटी दक्षिणा पर होता है
और तीर्थयात्री भी शॉर्टकट मेथड,लॉंगकट बेनीफिट के चक्कर में रहते हैं । मजा तो तब
और आता है जब रेडीमेड पिण्डदान सामग्री के साथ-साथ शैय्या और गोदान भी मिनटों में
मुहैया करा दिया जाता है एकदम यजमान के वजट में । एक ही सामग्री अनेक पितरों की
तुष्टि में निमित्त बनता है । वरतन-कपड़े की तो बात ही छोड़े; कुशा,फूल,तुलसी,पानपत्ते भी धो-पोंछ
कर अनेक बार प्रयोग कर दिए जाते हैं । फल्गु किनारे के सारे काशी-कंडा-पतेला शुद्ध
कुशा के नाम पर बिक जाते हैं । शायद ही किसी पंडित को इन तीनों में भेद मालूम हो ।
इसीलिए तो हमारी
दूरदर्शी बिहार सरकार के टूरिस्ट एक्सपर्ट नयी विधि मुहैया करा दिए । हमारी सरकार
बहादुर भी कम नहीं है, एकदम चुनचुन कर युगल-पग-धारी वैसाख-नन्दनों को अपने यहां
बहाल कर लिया है, जो आए दिन तरह-तरह की लाज़वाब-नायाब योजनायें लाते रहते हैं । ”
इतना कह कर पल भर के लिए शास्त्रीजी रुके । लगा कि अब
कुछ कहने का मौका मिलेगा मुझे भी, किन्तु तपाक से वाहर वरामदे में ही कुर्सी पर
पसरते हुए पुनः अपना मनतव्य वाला टेप बजाने लगे— “ सुनो गुरु ! तुम
बदलो या न बदलो, दुनिया तो बदल ही रही है । तुम अपनी राग अलापते रहो, गीता-रामायण तोते
की तरह बांचते रहो । वेद-पुराण की बातों को झूठा करार भी देते रहो, धर्म-जाति के
नाम पर टुकड़े-टुकड़े होते रहो और उधर देखो- तुम्हारे ही वेद-पुराणों में सर
खपा-खपाकर तरह-तरह के अज़ूबे इज़ाद वो बाहर वाला कर गुज़रता है । तुम्हारे ही
वेदों का तकनीक अपना कर अपने को हाईटेक बना लिया है और उसी तकनीक का तुम्हारे ही
हाथों व्यापार करके अपना जीडीपी भी बढ़ा रहा है । लेकिन जो भी हो आज मैं बहुत खुश
हूँ कि आर्थिक मन्दी के इस दौर में ई पिण्डदान से कुछ तो भरपाई हो ही जायेगी सरकारी
खजाने की । और वो इसलिए कि हमारे यहां मूर्ख, आलसी और निकम्मों की कमी नहीं है ।
ज़ाहिलों का इम्पोर्ट नहीं करना पड़ेगा हमारी सरकार को... । ”
शास्त्रीजी कुछ और कहते , किन्तु तभी जनानी सैण्डल की
खड़खड़ाहट उनके कानों में पड़ी । अचकचा कर पीछे मुड़े और फटाख से उठकर ढीली धोती
का पिछौटा सम्भालते हुए दरवाजे से बाहर हो गए, क्योंकि इस आवाज से पुराना परिचय है
उनका ।
मैं पीछे मुढ़कर देखा – ऊपर के काम निपटा कर मेरी बीबी
खटाखट सीढियां उतर रही थी । आपके याददाश्त का रिनीवल करते हुए मैं सिर्फ इतना ही
कहूंगा कि शास्त्रीजी के मनतव्यों पर मेरी देवीजी एक-दोबार झाड़ू या कि सैडिल
प्रहार कर चुकी हैं- एकदम से दिल्ली वाली अन्दाज में ।।
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