एकादशीव्रत :: कुछखास बातें

एकादशीव्रत :: कुछखास बातें

एकादशी-व्रत विशेष कर वैष्णव मतावलम्बियों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। शास्त्रों में इसे  विशद रुप से महिमा-मण्डित किया गया है। कहते हैं कि विधिवत इस व्रत को करने से इह लौकिक सुख-शान्ति के साथ-साथ, सर्वविध पाप-क्षय होकर, परम शान्ति यानी कि विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। अन्यान्य पुराणों में तो इसकी चर्चा यत्रतत्र है ही, विशेषकर पद्मपुराण में विशद रुप से एकादशी-महात्म्य वर्णित है।
यह व्रत प्रत्येक महीने के दोनों पक्षों(कृष्ण-शुक्ल) में एकादशी तिथि को होता है। शास्त्रादेश है कि पूर्वविद्धा यानी दशमी-मिश्रित एकादशी व्रत नहीं करना चाहिए। परविद्धा यानी द्वादशी-मिश्रित पूर्णरुप से भी हो तो ग्राह्य है। यहां यह आशंका हो सकती है कि विद्ध यानी मिश्रण की सीमा क्या है? क्यों कि कहीं न कहीं तिथियों की सन्धि तो होगी ही। इस सम्बन्ध में ऋषियों का मत भिन्न-भिन्न है। शुद्धा और विद्धा में कई मत हैं, जिनमें दो- स्मार्त और वैष्णव अधिक चर्चित हैं। पुनः काल-मतान्तर भी है। यथा- अर्धरात्रि से पूर्व समाप्त होजाने वाली दशमी, रात्रि के अन्तिम प्रहर में समाप्त होने वाली दशमी, अरुणोदय-काल व्यापिनी दशमी, सूर्योदय पूर्व समाप्त होने वाली दशमी ...इत्यादि। कहीं-कहीं सूर्योदय से चार-पांच घटी पूर्व तक की भी बात कही गयी है। एकादशी के दिन सूर्योदय-काल में दशमी हो तो स्मार्तमत से विद्धा है। सूर्योदय से चार घटी पहले यानी अरुणोदय-काल तक दशमी हो तो वैष्णव मत से विद्धा है। ऋषि आगे कहते हैं कि विद्धा का सर्वदा त्याग कर, शुद्धा ही ग्रहण करे। हेमाद्रिमत से विचार करें तो कह सकते हैं कि द्वादशी तिथि जिस दिन समाप्त हो रही हो, उसके पूर्वदिन वाली एकादशी ही ग्राह्य है। द्वादशी यदि दूसरे दिन भी हो तो सूर्योदयीवेधरहित एकादशी ही ग्रहण करे। कुछ आचार्यों के मत से सूर्योदयीवेध वाली एकादशी के दिन तथा अगले दिन भी अथवा दो एकादशी हो तो(तिथिवृद्धि)दूसरी एकादशी ही ग्राह्य है। परमवैष्णवों का मत है कि एकादशी या द्वादशी तिथि की वृद्धि हो तो एकादशी को छोड़कर सीधे द्वादशी को ही एकादशीव्रत करे। लौकिक चर्चा में इसे साधु और गृहस्थ की अलग-अलग एकादशी कहते हैं।
इस सम्बन्ध में कहा गया है- दशम्योर्कोदये चेत् स्यात् स्मार्तानां वेध इष्यते। वैष्णवानां तु पूर्वं स्यात् घटिकानां चतुष्टये।। बल्लभाः पञ्चनाडीषु केचिद्यामद्वयं जगुः। पूर्वं सूर्योदयाद्वेधं निर्णये वैष्णवैः समाः।। यो द्वादशी विरामाहः स्मार्तैस्तत्प्रथमं दिनम्। उपोष्यमिति हेमाद्रिर्माधवस्य मतं शृणु।। द्वादश्यां वृद्धिगामिन्यां अविद्धैकादशी यदि। लभ्यते सा व्रते ग्राह्यान्यत्र हेमाद्रिनिर्णयः।। केचिदाहुर्विष्णुभक्तैः स्मार्तैः कार्यं व्रत द्वयम्। विद्धायां वा विविद्धायां एकादश्यां परेह्नि च।। समाप्येत परेह्न्यस्मिन् द्वादशी यदि नान्यथा। माधवीय व्रतस्यैव प्रचारो व्रतनिर्णये।। एकादशी द्वादशी वा वृद्धिगा चेत् तदा व्रते। शुद्धाप्येकादशीत्याज्या सदा विद्धापि वैष्णवैः ।। एकादशी व्रतं कार्यं परेह्नि त्याज्य वासरान्। असूयानुमगें नात्र कार्य विद्वद्भिरर्थये ।।
एकादशी व्रत के नियमानुसार अरुणोदय व्यापिनी दशमी वाली एकादशी का त्याग करना चाहिए- ऐसा परम वैष्णव मत है। तदनुसार वे अगले दिन व्रत करेंगे, भले ही द्वादशी तिथि  रहे। किन्तु सामान्य गृहस्थों  के लिए(स्मार्तमत) नियम भिन्न है। वस्तुतः यह भेद त्यागी और गृहस्थ का है। यानी एक जो सकाम(सांसारिक कामनाओं से) व्रत करता है ,दूसरा जिसे कुछ भी लौकिक कामना नहीं है। सिर्फ और सिर्फ परमात्मा की प्रीति चाहिए,जिसे संसार का मोह नहीं है। यानी कि वह यन्त्रवत निस्काम भाव से जी रहा है। आये दिन व्रतों को लेकर तरह-तरह की शंकायें उठती रहती हैं। और इसे लोग ग्रेडेड मान लेते हैं,जब कि बात अच्छे या कम अच्छे की नहीं है। आमजन को स्मार्तव्रत ही करना उचित है। स्मार्त का एक अर्थ ये भी होता हैस्मृति को मानने वाला और इस दायरे से बाहर कहां है कोई?
वस्तुतः यह अधूरा अर्थ है। जिसे स्पष्ट करने के लिए मैंने परमत्यागी और सामान्य गृहस्थ जैसा भेद दिखाया । सच पूछा जाय तो आज परम त्यागी तो विरले ही मिलेंगे, जो कहीं कन्दराओं में छिपे तपस्या रत होंगे। बाकी के तो त्यागी का बाना बनाये, सामान्य जन से भी कहीं अधिक आसक्त है संसार में। गृहस्थ जीवन सर्वाधिक श्रेष्ठ है,वशर्ते कि संयमित हो। माँ-बाप,बीबी-बच्चों का पालन करते हुये भी कोई परम साधु हो सकता है और सन्यास लेकर भी कोई असाधु बना रह सकता है।  जटाजूट बढ़ाकर,तरह-तरह का वेश बनाकर, साधु होना जरुरी नहीं है, जरुरी है साधुता, जो कि अन्दर से उपजती है, बाहर से ओढ़ी नहीं जाती।
बारह महीनों के दोनों पक्षों में यानी कुल चौबीस एकादशियां हुयी। इनके अलग-अलग नाम कहे गये हैं। यथानामगुण वैभिन्य भी है। इसे नीचे की सारणी में स्पष्ट किया जा रहा है—
१.   चैत्र कृष्ण       पापमोचनी
२.   चैत्र शुक्ल       कामदा
३.   वैशाख कृष्ण   वरुथिनी
४.   वैशाख शुक्ल   श्रीमोहिनी
५.   ज्येष्ठ कृष्ण      अचला
६.   ज्येष्ठ शुक्ल      निर्जला(भीमसेनी)
७.   आषाढ़ कृष्ण   योगिनी
८.   आषाढ़ शुक्ल   विष्णशयनी
९.   श्रावण कृष्ण    कामदा
१०.                श्रावण शुक्ल   पुत्रदा
११.                भाद्र कृष्ण       जया
१२.                भाद्र शुक्ल      पद्मा
१३.                आश्विन कृष्ण इन्दिरा
१४.                आश्विनशुक्ल   पापांकुशा
१५.                कार्तिक कृष्ण रम्भा
१६.                कार्तिक शुक्ल प्रबोधिनी(देवोत्थान)
१७.                अगहन कृष्ण उत्पन्ना
१८.                अगहन शुक्ल मोक्षदा
१९.                पौष कृष्ण       सफला
२०.                पौष शुक्ल      पुत्रदा
२१.                माध कृष्ण      षटतिला
२२.                माघ शुक्ल      जया
२३.                फाल्गुन कृष्ण  विजया
२४.                फाल्गुन शुक्ल  आमलकी

नोट- 1.अधिकमास वाले वर्षों में पुरुषोत्तमी नामक दो एकादशी और हो जाती है। यूं तो सभी एकाशियां महत्त्वपूर्ण है ही, फिर भी वरीयता क्रम में किंचित भेद भी कहा गया है। तद्नुसार २४+२=२६में छः को अधिक महत्त्व दिया जाता है-पुरुषोत्तमी, भीमसेनी, अचला, षटतिला, मोक्षदा, आमलकी ।

2.एकादशी व्रत चौबीस घंटों के उपवास का व्रत है। फलाहार, दुग्धाहार आदि पूर्णग्राह्य है। ध्यातव्य है कि विष्णु के व्रतों में सेन्धा नमक ग्राह्य है, हाँ तेल के स्थान पर घी का प्रयोग करना चाहिए । तेल तो लगाना भी वर्जित है ।
3.पूरे व्रतकाल में जितना हो सके विष्णु की पूजा-अर्चना, ध्यान-जप-संकीर्तन में समय व्यतीत करे। उपवास का अर्थ ही होता है आराध्य के समीप रहना, न कि भूखा रहना । सच्चे अर्थों में उपवास का कार्य तो भरपेट खाकर भी हो सकता है। हां, एकादशी का व्रत अन्न खाकर नहीं करना है। अस्तु।

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