खबरों की किल्लत Vs विज्ञापनों की
बढ़त
“खबर” की सही परिभाषा क्या है और विज्ञापनों की सीमा क्या है
— भोंचूशास्त्री
की चाय-गोष्ठी का समसामयिक मुद्दा यही था आज । आदतन,
दरवाजे पर दस्तक के साथ ही
शुरु हो गए, बिना कॉमा-फुलिस्टॉप के—
“ एक ओर Howdy Modi और U.N. महासभा का 74वां अधिवेशन का गर्मागरम दौर चल रहा है, जिस पर मित्र-शुत्रु
सभी देशों की निगाहें टिकी हैं । गांधी
को राष्ट्रपिता का खिताब कब, किसने, क्यों, किन हालातों में दिया था, RTI के तहत
सवाल पूछे जाने पर भी समुचित जवाब नहीं मिला आज तक देश-दुनिया को, किन्तु मोदी को
ट्रम्प ने राष्ट्रपिता कह दिया इतनी बड़ी सभा में, तो बहुतों के सिर फटने लगे और
पिछवाड़े में भी खुजली होने लगी, ऐसी वाली खुजली जैसे कुत्ते के पिछवाड़े में
पेट्रोल डाल देने पर होती है । ऐसा लगा मानों उनके ही ‘ बाप
’ कहकर ट्रम्प ने उन पर पैदायशी तोहमत लगा दिया हो । शब्दशास्त्री
बतलाते हैं कि पिता तो अनेक हो सकता है किसी का, किन्तु बाप सिर्फ और सिर्फ एक ही ।
क्यों कि ‘पा’ रक्षणें धातु से पिता बनता है, जिसका मौलिक अर्थ होता है- पालन-रक्षण
करने वाला, जब कि वपन-कार्य सम्पन्न कर, उत्पत्ति में सहभागी
को वाप कहा जाता है । ”
शास्त्रीजी के श्रीमुख
से शब्दशास्त्री की बात सुन कर थोड़ा आश्चर्य भी हुआ और मेरी जानकारी में भी जरा
इज़ाफा हुआ । मैं जानता था कि शास्त्रीजी का बेरोकटोक नियमित आना तबतक जारी रहेगा,
जबतक मेरी श्रीमतीजी मायके में रहेगी, अतः उनके लिए भी चाय बना ही दिया था । बैठते
के साथ ही प्याला थमा दिया और चटाई पर पसरते हुए उनकी वार्ता, समीक्षा, संदेशों और
उपदेशों के लिए खुद को संयत करने लगा ।
चाय की चुश्की लेते हुए कहने लगे — “ देखो गुरु ! मैं
तो अखबार खरीदता नहीं । साढ़ेतीन रुपये पीस को सात रुपये किलो में बेचने के लिए
भला कौन खरीदे । खबरें तो कुछ खास होती नहीं उनमें । अब आज का ही नामी अखबार देखो
न- 16+4 पेज में मुकम्मल 11 पेज तो विज्ञापनों और टेन्डरों से भरा है । जरा
तुम्हीं सोचो ये ‘ जापानीतेल
’ या ‘ हेमपुष्पा ’ का
विज्ञापन देख कर मैं भला क्या करुंगा बिन बीबी-बच्चों वाला अधेड़ इन्सान ! आनेवाले
धनतेरस में न मोटर-सोटर खरीदने की औकाद है और न ही कोई टेन्डर भरने का जुनून ।
आगामी किसी चुनाव में खड़े होने का भी कोई प्रोग्राम नहीं है । फिर ऐसे अनाप-सनाप
विज्ञापनों से भरे कागज के पुलिंदे को, क्या इतनी अहमियत देना, जिसके पास खबरों की
इतनी किल्लत है । तुम जानते ही हो कि मेरे पास अभी भी वो ब्लैक-एण्ड-वाइट वाला
पोर्टेबल टीवी है । कभी फुरसत में फिलम-उलम देखने का जी कर गया तो ऑन कर देता हूँ,
परन्तु वहां भी वही माज़रा – तीन घंटें का
फिलम देखने के लिए साढ़ेचार घंटे गंवाने पड़ते हैं । ताजा-तरीन खबरों के लिए चैनल
बदलो तो वहां भी कुछ एक अपवादों को छोड़कर बाकी सबकी वही दशा है—हर दो मिनट पर तीन
मिनट का ब्रेक, एकदम सरकारी दफ्तरों के बाबुओं की तरह, जो बामुश्किल आध घंटे
टेबल-टिका करके, चाय की कैंटीन में तफ़रीह के लिए चले जाते हैं और घंटे भर बाद तश़रीफ
लाते हैं । इन खबरदारों और खबरदाताओं की एक और ख़ासियत है कि ज्यादातर ग्राउण्ड
रिपोटिंग के बजाय अन्डरग्राउण्ड रिपोर्टिंग रहती है- एकदम से अन्डरबियर स्टाइल
वाली । ”
ये अन्डरग्राउण्ड रिपोर्टिंग
क्या होता है शास्त्रीजी?
आधी प्याली एक ही बार
में सटाक से सुड़कते हुए बोले— “ तुम भी कमाल करते हो गुरु ! क्या
तुम्हें ये भी नहीं पता कि निन्याब्बे फीसदी खबरें बेडरुम या कॉफीहाउस में बैठ कर
लिखी जाती है । अलग-अलग गुटों के पत्रकार सम्मेलन हुआ करते हैं कॉफीहाउसों में, जहां
इकट्ठे निर्णय लिये जाते हैं कि आज इसको उछाल देना है, आज इसको पटक देना है- एकदम
से सेन्सेक्स के ‘ बुल-वियर
‘ वाले अन्दाज़ में । किस खबर को हाईलाइट करना है और किस खबर का गला
घोंट देना है, ये सब निर्णय वहीं बैठकर होता है । अब भला तुम्हीं बताओ- खबरों की
सही परिभाषा क्या है? क्यों कि “ पाणिनी और यास्क ‘ के
जमाने में तो अखबार छपते नहीं थे, इसलिए पूरी जानकारी
जुटा नहीं पा रहा हूँ । अमरकोष भी देखा, शब्देन्दुशेखर भी । किन्तु वहां भी नहीं मिला- न खबरों की परिभाषा
न तरज़ुमा । अब तुम ही मेरी शंका का समाधान करो गुरु । ”
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