डीजे की दुकान::डीम का फ़रमान


डीजे की दुकान::डीम का फ़रमान

    भोंचूशास्त्री आज दरवाजा खटखटाने के वजाय, खुली खिड़की से ही हांक लगाये— अरे गुरु ! किसी डी.जे.वाले से जान-पहचान रखते हो? मुझे हाईपावर वाला आठ-दस डी.जे.चाहिए । लगन-त्योहारों का दौर शुरु होते ही इनका भाव बढ़ जाता है ।  सारा शहर घूम लिया, एक भी नहीं मिला खाली । इतना हैवी डिमान्ड तो पितृपक्ष और नवरात्र में पंडितों का भी नहीं हुआ कभी ।
क्या बात है ? अन्दर तो आइये । डरिये मत । श्रीमतीजी अभी तीन दिनों बाद आयेंगी मैके से । - कहते हुए मैंने किवाड़ खोल दिया । 

अन्दर घुसते हुए बोले— सोचता हूँ इन्सटॉल पर कहीं से दिला दो तो, मैं भी आठ-दस सेट खरीद लूं।

तो क्या अब आप जजमनिका छोड़कर डी.जे.चलायेंगे ?

अरे नहीं गुरु ! डी.एम.- एस.पी. की कोठियों के आगे बांस गाड़ कर दो-चार दिन बजाना चाहता हूँ एक दम से लाउडब्वॉस में । ताकि इन्हें पता चले कि 75 डेसीबल और 750 डेसीबल साउण्ड में क्या फर्क होता है । और कनफोड़ू आवाज से जनता को कितना कष्ट होता है । - शास्त्रीजी आसन जमाते हुए बोले ।

मैं समझा नहीं- आप कहना क्या चाहते हैं । 

शायद तुम्हें नहीं मालूम - सप्ताह भर पहले ही शहर के गणमान्य लोगों के साथ जिला प्रशासन की बैठक हुयी थी, जिसमें छोटे विचार-विमर्श और लम्बी नोंक-झोंक के बाद फ़रमान जारी किया गया था कि पूजा-पण्डालों में पूरी तरह से स्वास्थ्य, सदभावना और पर्यावरण सुरक्षा का ध्यान रखा जाये । नियम का उलंघन करने वालों पर सख्त कारवाई होगी । मूर्ति बैठाने के लिए बाकायदा लिखित परमीशन लेना होगा, हर पंडाल में सी.सी.टी.वी. कैमरे भी लगाने होंगे, ताकि महिलाओं का आत्मबल बढ़े और 75 डेसीबल से ऊपर का साउण्ड न हो, क्यों कि हमारे यहां नर्वससिस्टम  और सर्कुलेटरीसिस्टम की रोगियों की संख्या काफी बढ़ गयी है । अब तो डायबिटीज वालों को भी हाईसाउण्ड से बेहोशी आने लगी है । और हां, अश्लील गाने भी न बजाये जायें। स्वच्छ-भारत अभियान और पर्यावरण विषयक बैनर-पोस्टर भी पंडालों में लगाने होंगे । सिंगल यूज प्लास्टिक का भी संदेश देना है आयोजकों को... ।

सो तो ठीक है। प्रशासन ऐसा कुछ न कुछ हर साल मीटिंग-सीटिंग करता है । विभिन्न अखबारों में खबरें भी छपती हैं । सरकारी अपीलों का विज्ञापन भी आता है ।

इसीलिये न कहता हूँ- तुम नहीं समझोगे असली बात । मीटिंग-सीटिंग तो सिर्फ ईटिंग-फिटिंग-सेटिंग  के लिए होता है । फोटू खिंचवाने, थोबड़ा दिखाने और विज्ञापन में कमीशन खाने के लिए होता है। ये सरकारी विज्ञापन न मिलें तो कितने चैनल और अखबारों का खटिया खड़ा हो जाए । और एक राज की बात बताउँ तुम्हें—आजकल देवी-देवता भी बिना डी.जे. और पॉप-रॉकसॉंग के खुश ही नहीं होते । दारु-बकरा तो पहले भी उन्हें अच्छा लगता था, पर अब ये सब भी भाने लगा है । क्या समझते हो - ये सारे नियम-कानून पालन करने के लिए बनाये जाते हैं ? असली बात तो ये है कि नियम-कानून बनाये ही जाते हैं सिर्फ तोड़ने और उलंघन करने के लिए । कानून तोड़ने का समर्थन और चलन तो गांधीबाबा ने भी किया था कि नहीं ?

क्या बात करते हैं शास्त्रीजी- ओ तो अंग्रेजों के खिलाफ नमक आन्दोलन शुरु किया था गांधी ने । खादी की हिमाकत की थी और अंग्रेजी सामानों के वहिष्कार का नारा दिया था । रामधुन गाकर, अनशन-धरना प्रदर्शन किया था ।

अरे हां गुरु ! तुम तो केवल सुने हो । मैंने तो देखा, भोगा और झेला भी है—ये सब । वह रामधुन ही अब रावणधुन बन गया है । अनशन, धरना, प्रदर्शन- यही तो आज लोकतन्त्र का कोढ़ बन गया है।  जाएज़-नाजाएज़, सही-गलत से कहां मतलब रहा अब । एनरॉयड पर गर्दन टेढ़ी किये, बिना हेलमेट के 80-90 के स्पीड में बाइक चलाओ, गिरो, मरो, मारो और फिर धरना-प्रदर्शन करके मुआवज़ा भी मांगो । सिगनल तोड़ो, जेल तोड़ो, ए.टी.एम. या कि लॉकर तोड़ो—सब सही है लोकतन्त्र में । और ये जो सी.सी.टी.वी. की बात करते हो - क्या तुम्हें नहीं पता कि अपराधी सबसे पहले D.V.R. पर ही अटैक करते हैं ।  हालाकि ज्यादातर कैमरे बीमार ही रहते हैं या ऐन मौके पर उन्हें ज़ुकाम हो जाता है।

 फिर भी ऐहतियात के तौर पर तो नियम-कानून बनाने ही पड़ते हैं न  — मैंने कहा ।

अरे गुरु ! नियम बना कर तकिये के नीचे रख देने से क्या होता है भला ! दवा का पर्ची लिखा जाने से रोग ठीक हो जाता है क्या ? नियम-कानून जो बनता है, उसका सख़्ती से पालन नहीं होगा जब तक, तबतक ज़मीनी सुधार कहां होगा भला ? और ज़मीनी परिणाम के लिए हिम्मत और ज़ज्बा की जरुरत होती है ।

तो आखिरकार किया क्या जाये शास्त्रीजी ?

करना कम, समझना ज्यादा है । सच पूछो तो लोकतन्त्र की मर्यादाओं और सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, जरा तानाश़ाही तर्ज़ पर सख़्ती और अनुशासन की जरुरत है । देख रहे हो न कैसे बिलबिला रहे हैं पुराने पिल्ले ? कहने को हम पढ़े-लिखे और काबिल है, किन्तु उससे कहीं अधिक हम ज़ाहिल, बदमिज़ाज़ और बदतमीज़ भी हैं । और ज़ाहिर है - ज़ाहिलों पर अनुशासन का डंडा थोड़ी बेरुखी से ही चलाना होता है । क्यों कि उसे लोकतन्त्र से आधा-अधूरा परिचय है सिर्फ । लोकतन्त्र के एक ही पक्ष का ज्ञान है उसे । लोकतन्त्र का दुरुपयोग जानता है वह, सदुपयोग नहीं । जरा, दिमाग की खिड़की-रौशनदान  खोलकर जान-समझ लो- ये साम्यवाद और समाजवाद कहीं बाहर से नहीं आया है, आर्यावर्त की रग-रग में दौड़ने वाला लहू है ये । ये हमारे D.N.A. में रसा-बसा है । विदेशियों के झूठे ठप्पे लगे हैं सिर्फ इसपर। असली वाले सोशलिज़्म और कम्युनिज़्म की सही परिभाषा का जिस दिन ज्ञान हो जायेगा उस दिन भारत सच में महान हो जायेगा । जिस दिन ये समझदारी आ जायेगी कि मेरे पड़ोस में कोई दिल का मरीज़ भी हो सकता है, किसी के यहां मौत का मातम भी मन रहा होगा, किसी के यहां आज चूल्हा नहीं जला होगा, मेरे कीचन में पकते बासमती चावलों का सुगन्ध किसी भूखे की भूख को और भी ललकार रहा होगा—तो उसी दिन भारत महान हो जायेगा । फिर उस दिन किसी डी.एम.-एस.पी., मीटिंग-सीटिंग की बात ही बे-मानी हो जायेगी । स्वच्छ-भारत, पर्यावरण रक्षा और थूकने-मूतने के तरीके का विज्ञापन करके जनता के धन में आग लगाने की जरुरत ही नहीं रह जायेगी । और न अलग से किसी बुद्धिजीवी की ही जरुरत रह जायेगी, क्यों कि सभी बुद्धिजीवी ही होंगे उस दिन । बदमिज़ाजी और ख़ुराफाती कोई रह ही नहीं जायेगा । । वन्देमातरम्।।

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