ज़मीर वाला स्टॉल

ज़मीर वाला स्टॉल

एक पड़ोसन ने दूसरे पड़ोसन को बतलाया कि शहर में आज एक नया सा स्टॉल लगा है । किसी शहर में स्टॉल का लगना कोई नयी बात नहीं है । किन्तु नया सा सुन कर मेरी श्रीमतीजी के भी कान खड़े हो गये। छज्जे से थोड़ा और लपक कर पूछना चाही तो, दोनों पड़ोसिने आपस में कुछ इशारेबाजी की । फिर एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरायी भी ।

आप जानते ही होंगे कि इशारों में शब्द नहीं हुआ करते,पर शब्द-शक्ति बेहिसाब हुआ करती है। मेरी पत्नी उस अचानक के आघात से मर्माहत हो गयी,किन्तु उत्सुकता भी ऐसी बला है कि दबाये नहीं दबती। अतः होठ सिकोड़ कर, आहत से हताहत के वजाय, राहत-सा भाव दिखाकर, पूछने की हिम्मत जुटाने लगी । वो जानना चाहती थी कि स्टॉल कहां और किस चीज की लगी है ।

पर जवाब गोल-मटोल सा मिला— तुम तो कभी किसी मॉल-सॉल में आती-जाती नहीं। वैसे भी मॉल जाना,रोज नये-नये स्टॉल से खरीदारी करना सौ-दो सौ रुपल्लों से थोडे जो होता है । वहां ज्यादातर स्वाइप मशीनें होती है और उसे इस़्तेमाल करना सबके बस की बात नहीं । किराये की छत के नीचे बाल पका लेने वालियों के लिए न तो मॉल होता है और न स्टॉल ।

बात बहुत बड़ी थी । थोड़ी चुटीली भी। किन्तु ज्यादातर सच चुटीला ही हुआ करता है। परन्तु इसमें सच की गलती कहां है । वो तो उसका स्वभाव है । खैर।

ऑफिस से घर आते ही, रोज की तरह बिना दूध वाली चाय परोसने से पहले देवीजी ने कहा— सुनो न जी ! शहर में शायद कोई नया-सा स्टॉल लगा है । आज मेरा भी मन हो रहा है। चलो न जरा देख-घूम आवें। खरीदारी करने पर न, पैसे खरच होंगे । मैं रिक्शे के लिए भी नहीं कहूंगी।  

पत्नी की उत्कट इच्छा और चेहरे पर विखरे उतावलेपन के अन्दर दुबकी, किसी दुखते रग की टीस को भांपने में मुझे जरा भी देर न लगी । बेचारी कभी कुछ कहती-फ़रमाती ही कहां है। आजतक कभी लिप्सटिक भी तो लाकर नहीं दिया है मैंने । कुल जमा दो साड़ियों में एक बाहर अलगनी पर सूखती होती है और दूजी वदन पर । अपने पायज़ामे-कुर्ते का भी वही हाल है । शादी में मिले ससुराली जूते में ऑरीजिनल स्टीचिंग ज्यादा है या कि पंचिंग— कहना मुश्किल ।  ऐसे में हॉल-मॉल-स्टॉल...!
परन्तु इन निरर्थक सी बातों पर विचार करने से बेहतर लगा कि उसकी मुरादों को आज पूरा ही कर डालूं । बोतल वाली लीकर तो बड़े लोगों के फ्रिज़ों में हुआ करती है, कप वाली लीकर की बात भी भूल गयी - मुझे भी और उसे भी ।  जीवन में बहुत बार ऐसा होता है कि कुछ न कहना, बहुत कहने से भी कहीं ज्यादा होता है। आज भी कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था । पास बुलाकर उसके बदरंग हो रहे बालों को स्नेह से सहलाया और बिना कुछ कहे, हाथ पकड़ कर बाहर निकल पड़ा ।
चौक के करीब पहुँचा तो चारो ओर उत्सव सा माहौल मिला । लोग सज-धज कर चले जा रहे थे। सारे अननेचुरलों को बटोर कर नेचुरल बनने की होड़ में, घुंटे-पिटे आईब्रो पर आईलाइनर, आईपेन्सिल, आईशेडो, आईलेंस, मस्करा, मेरुन लिपस्टिक और न जाने क्या-क्या पोतपात करके घर से निकलने वालियों की भीड़ में मैं थोड़ा असहज महसूस कर रहा था खुद को और वो असमय में ही बूढ़े होरहे बालों को आँचल से ढकने की कोशिश में लगी थी ।

आज़ाद पार्क के करीब पहुँचा तो कनातों की गुलामी में कैद कुछ स्टॉल दीख पड़े । सबसे पहले वाले स्टॉल पर जरा रुका ।  एक बड़े से कैनवैसपर मनोहारी चित्रकारी थी- एक नवयौवना की । चेहरे को निहारते-निहारते पैरों की ओर आया तो एक प्राइसटैग दीखा , जिस पर लिखा था - कीमत सिर्फ बिकाऊ की ही आँकी जा सकती है।  उसके बगल में मोटे अक्षरों में कुछ पंक्तियां थी— मैं बनी नहीं हूँ...बनायी गयी हूँ....तुमने मुझे बनाया है....मैं ज़िश्म बेचती हूँ, ज़मीर नहीं। पढ़ कर सिर झन्ना उठा ।

आगे बढ़ा, दूसरे स्टॉल की ओर । वहां तो कोई चित्र भी नहीं था, कैनवैस रिक्त पड़ा था। प्राइसटैग पर लिखा था— अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- ये सब यदि है तुम्हारे बटुये में तो हिम्मत करके हाथ आगे बढ़ाओ,अन्यथा पैर पीछे खींच लो।   बात कुछ अज़ीब सी लगी,परन्तु होठों पर इत्मिनान और सुकून वाली मुस्कान तैर गयी ।

जरा और आगे बढ़ा । लागातार कई स्टॉल बड़े करीने से अगल-अलग रंगों की छतरी ओढ़े खड़े थे। डिस्क्रिप्शन और प्राइसटैग भी लगे हुए थे वरीयता क्रम से— न्यायाधीश, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, ईंजीनियर, डॉक्टर, विश्वविद्यालयों के परीक्षा-विभाग, सरकारी स्कूल के माटसाब, सचिवालय के किरानी, जिलास्तर के किरानी, प्रखंडस्तर के किरानी, शिक्षावोर्ड, मठाधीश, पंडा-पुरोहित, पुलिस, प्रशासन, पत्रकार... और सबसे अन्त में जो कुछ लिखा था उसे पढ़ना-देखना बड़ा कठिन हो रहा था, क्यों कि लोगों की भीड़ वहां सबसे ज्यादा थी ।  खुशबुदार स्प्रे में डुबोया हुआ रुमाल नाकों पर जकड़ कर बांधे हुए लोग लाइन में धक्के खा रहे थे । थोड़े साधारण से दीखने वाले लोग जेब में ऑडोनिल का पैकेट लिए हुए भी लाइन में खड़े दीखे। बदबू भीड़ के कारण थी या कि वहां स्टॉल पर रखे कुछ कॉन्टेनरों के कारण – बात समझने में थोड़ी मस़क्कत करनी पड़ी । मेरे पास तो ऑडोनिल भी नहीं था । पता होता पहले से तो कम से कम फिनायल की गोली ही जेब में धर लिया होता ।

खैर,अब आ गया हूँ तो बिना देखे-दिखाये तो वापस लौटना भलमनसी नहीं है। आठ-दस बार बाबा रामदेव वाला उपचार किया । पत्नी को भी आहिस्ते-आहिस्ते अनुलोम-विलोम करने का सुझाव दिया।  

लाइन में खड़े, ये सब करते-कराते, धक्के खाते स्टॉल के बिलकुल करीब पहुँचा तो बड़ा सा कैनवास दीखा – वो नावनुमा टोपी और घुटने से काफी नीचे तक बगुला मार्का कुर्ते-पायजामे वाला लकदक सा बिलकुल खुश़मिज़ाजी तस्वीर । प्राइसटैग पर लिखा था -   कोई कीमत नहीं...बिलकुल मुफ़्त...बड़ी कृपा होगी - अंगुली पर स्याही लगा लें एक बार...और कहें तो उसके बदले अपना पायजामा उतार कर पेट के बल उकड़ू लेट भी जा सकता हूँ...बस मेरे भाई ! एक बार की तो बात है...स्याही लगवा लो अपनी अंगुली पर...।
उबकायी सी आने लगी । सिर झनझनाने लगा । पत्नी का हाथ खींचते हुए, भीड़ से बाहर आया— ज़मैयत मिली या कि ज़मीर चाहिए ?  
उसकी आँखों में आँसू छलक रहे थे। गला भर्राया हुआ था । लपक कर मेरे सीने से आ लगी—  ‘ मुझे माफ कर दो।
उसकी पीठ थपथपाते हुए मैंने कहा— तुम्हारी गलती ही कहां है ! कसूर तो मेरा है...लोकतन्त्र में ज़मीर ही तो सबसे पहले गिरवी रखना पड़ता है , सो मैं कर नहीं पाया ।
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नोटः- ज़मैयत= सुकून या मन को सन्तोष मिलना । ज़मीर = अन्तरात्मा

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