ग्रीन
पटाखाःलॉलीपॉप
“ न्याय-व्यवस्था
व्याकुल है । सरकारें भी व्याकुल हैं । पटाखे के व्यापारी भी व्याकुल हैं । दीपावली
मनाने वाले भी व्याकुल हैं । बच्चे भी व्याकुल हैं । बच्चों के बाप भी व्याकुल हैं
। देशभक्त भी व्याकुल हैं। राष्ट्रद्रोही भी व्याकुल हैं। आतंकी भी व्याकुल हैं ।
उनके पालनहार भी व्याकुल हैं। व्याकुलों का हुज़ूम भी व्याकुल है । ” — इन शब्दों की बड़बड़ाहट से व्याकुल भोंचूशास्त्री
ने अचानक कमरे में प्रवेश किया । आज न तो पानी मांगे और न चाय की इच्छा ज़ाहिर किए
। मोढ़े पर बैठे और शुरु होगए ।
“ जानते हो
गुरु ! कहने को तो लोग कह देते हैं कि दशहरे से देवोत्थान तक
हँसी-खुशी, पर्व-त्योहार का माहौल होता है । परन्तु मुझे लगता है कि ये सरासर गलत
है । वास्तव में इन दिनों सबसे अधिक व्याकुलता का माहौल होता है । न कायदे से शहर-बाजार
में निकला जा सकता है और न किसी जुलूस-जलसे का लुफ़्त लिया जा सकता है। पता नहीं
कब किधर से रोड़ेबाजी हो जाये , कब किधर धमाका हो जाये । पता नहीं कब मज़हवी भांग
का नशा उफान मारने लगे । कब प्रशासन की नींद खुल जाये, कब सरकार अंगड़ाई लेने लगे
। भले ही व्याकुलता की ‘जाति’ एक हो ।
पर व्याकुलों का ‘थीम’ बिलकुल अलग-अलग
होता है । बच्चे इसलिए व्याकुल हैं कि उन्हें नये कपड़े, खिलौने, मिठाइयाँ और
पटाखे नहीं मिल रहे हैं । बच्चों के बाप इसलिए व्याकुल हैं कि ये सबकुछ उनकी जेब
पर भारी पड़ रहा है । सरकारें इसलिए व्याकुल हैं कि उसे पहले की अपेक्षा थोड़ी चुस्ती
से काम करना पड़ रहा है, नहीं तो होशियार हो चुकी जनता कभी भी ठेंगा दिखा सकती है ।
पुलिस इसलिए व्याकुल है कि कमाई के नये झालरदार लॉपीपॉप लटके हैं इधर-उधर, किन्तु ज्यादातर
जनता ‘ऐक्टिवमोड ’ में रह रही है । प्रशासन
इसलिए व्याकुल है कि सरकारें एक से एक कानून ‘ हाइजैक और
लॉन्च ’ कर रहीं हैं , जिनका पालन
कराना एवरेस्ट फ़तह जैसा है । न्यायालय इसलिए व्याकुल है कि दशहरा-दिवाली की
छुट्टी तो ग्रान्डेड है , पर सब कुछ जानते हुए भी राम के जन्म का सबूत मांगना पड़
रहा है और मजे की बात तो ये है कि जन्म-स्थान का नक्शा फड़वाने का ठीकरा भी उसी के
माथे फोड़ दिया जा रहा है। राष्ट्रभक्त इसलिए व्याकुल है कि अभी तक उसने
राष्ट्रभक्ति का सर्टिफिकेट नहीं लिया है किसी यूनिवर्सीटी से है और राष्ट्रदोही
इसलिए व्याकुल है कि वो बारबार नायाब मुद्दे ढूढ़-ढूढ़ कर ला रहा है और सब निरस्त
होता जा रहा है। आतंकवादी इसलिए व्याकुल है कि उसका हुक्का-पानी बन्द होने का
मुहूर्त निकल आया है और उसका पालनहार इसलिए व्याकुल है कि उसके पांव तले की धरती
ही खिसक रही है । ”
शास्त्री जी कहे जा रहे थे, मैं सिर
हिलाये जा रहा था ।
“...इधर कुछ
दिनों से पर्यावरण मुद्दा बना हुआ है । ‘ ग्रीन पटाखे ’
से लेकर ‘ सिंगलयूज प्लास्टिक ’ तक की बातें की जा रही है। पत्तियां छांटने की कवायद चल रही है, जड़ों का
खाद-पानी जारी है। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां, हाईग्रीपिंग गाड़ियाँ जहरीले धुँए उगल
रही हैं, बारुदों का अम्बार लग रहा है और हवन-समिधा से ‘ सफोकेशन
’ हो रहा है । पत्तल बीनने वाले वारी, कुल्हड़ बनाने वाले
कुम्हार भूखे मर रहे हैं और डिस्पोजल की फैक्ट्रियाँ खुल रही हैं । ठेला-खोमचा लगाने
वाले, फुटपाथी आलू-प्याज बेंचने वाले पर जुर्माना लग रहा है और उसी आलू का चीप्स
चारसौगुने दाम में बेचने का लाइसेंस मुहैया कराया जारहा है । रातों-रात नोटबन्दी
हो गयी, चुटकी बजाकर सत्तर साल पुराने मेहमान 370 अपने बाल-बच्चों के साथ विदा हो
गए, परन्तु धुंए उगलने वाली और प्लास्टिक बनाने वाली फैक्ट्री बन्दी पर विचार भी
नहीं हो रहा है । धनतेरस के दिन सबसे अधिक गाड़ियाँ बिकेंगी । तोंद वाले उस पर
छाती फुलाकर चलेंगे और पर्यावरण पर भाषण भी देंगे । एक नेता के आगे-पीछे सौ-सौ
गाड़ियाँ दौड़ेगी, क्योंकि छोटे क़ाफिले से सन्तोष नहीं होता बड़े लोगों को
। मुंह से लेकर साइलेंसर तक ज़हर ही ज़हर निकलेगा । जरा तुम ही बतलाओ गुरु !
फैक्ट्रियाँ बनायेंगी ही नहीं तो रेहड़ीवाला इस्तेमाल कहां से करेगा
? सबसे बड़े कमाल की
बात ये है कि मिट्टी से लेकर पहाड़ तक, तने-गुल्म-लताओं से लेकर वरगद-पीपल तक,
कुएं से लेकर तालाब और नदियों तक, जल-थल-नभ को पूजने वाले देश को पर्यावरण-रक्षण-सिद्धान्त
और महत्व समझाया जा रहा है । हद हो गयी मूर्खता की । पर्यावरण-रक्षण-अभियान पर
जितने पैसे बहाये जा रहे हैं, उतने में कितने स्कूल-अस्पताल खुल जाते । कितनों को
रोजगार मिल जाता । कितने का कुपोषण दूर हो जाता । क्या एक ही संदेश काफी नहीं है? एक ही प्रचार काफी नहीं है — भारतीय संस्कृति को वापस बुला लो, बहुत सी
समस्यायें खुद-ब-खुद हल हो जायेंगी । फिर न गंगा-अभियान चलाना पड़ेगा, न सिंगलयूज प्लास्टिक की बात करनी पड़ेगी और न ग्रीन पटाखे की बात । सामान
से लेकर इन्सान तक ‘ सिंगलयूज—यूज एण्ड
थ्रों ’ बना रख छोड़ा है पश्चिमी बयार के बहकावे में और
बातें कर रहे हैं पर्यावरण संरक्षण की । हाइड्रो-प्रोजेक्ट के चक्कर में ‘ हाइड्रो-फोबिया ’ की स्थिति बना डाली है। ”
बात
तो आप बिलकुल सही कह रहे हैं शास्त्रीजी , किन्तु ये करोड़ों-करोड़ का माल डम्प
पड़ा है शिवकाशी से दिल्ली-पटना तक और प्रशासन दुकानों पर अंकुश लगाये बैठा है । भला
उन फैक्टी मालिकों और व्यापारियों का क्या होगा जिनकी पूँजी फंसी है ? बेरोजगारी बहुल देश में उन कामगारों का क्या होगा, जो इस धन्धे में लगे
हुए हैं ? बच्चे की हसरत भरी उन मुस्कानों का क्या होगा, जो
पटाखों के फेहरिश्त लिए खड़े हैं अपने पापाओं के पास?
शास्त्रीजी
एकदम झल्ला गये मेरी बातों से— “ तुम भी न कमाल की
बात करते हो गुरु ! हेरोइन-गांजे-अफीम के धन्धेबाज, ज़हर के
धन्धेबाज , दारु के धन्धेबाज, सुपारीकीलर, चोर-पॉकेटमार...सबके
सब तो बेरोजगार ही हो जायेंगे न यदि कानूनों का सख़्ती से पालन होने लगे? तो क्या चाहते हो इन सबको अपना धन्धा चलाते रहने की खुली छूट दे दी जाये ?
कोई भी नियम बनेगा, सख़्ती से उसका पालन होगा, तो थोड़ी कठिनाई तो
झेलनी ही होगी न । हमें अपनी बुरी आदतें छोड़नी होंगी । गलत परम्पराओं को त्यागना
होगा । घी-तेल के शुभकारी दीए जलाकर दीपावली मनाने की परम्परा रही है हमारी । बारुदी
धुँए के गुब्बार पता नहीं कब भर गए हमारे ज़ेहन में ! इसे तो
निकालना ही होगा । वरना प्रकृति दण्ड दिये बिना मानेगी नहीं । हम नहीं, हमारे की भी चिन्ता करनी होगी और हमारे
का दायरा बहुत बड़ा है हमारे देश में —
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्
आब्रह्मभुवनालोकादिदमस्तु तिलोदकम्...वाले सिद्धान्त प्रदाता हैं हम । ”
शास्त्रीजी
के तर्क ने निरुत्तर कर दिया मुझे ।
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